जीव वैज्ञानिक अब मानव व जानवरों के जींस मिलाकर नया
जीव उत्पन्न करने की तैयारी में हैं। इससे पूर्व चूहे को सुपर चूहा बनाया जा चुका
है। सुना है, गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में भी जीव विज्ञानी काफ़ी सफलता प्राप्त
कर चुके हैं। लगता है कि जीव विज्ञानी इंसान विरोधी हो गए हैं। कारण स्पष्ट है,
बंदर-कुत्ते, चूहे-बिल्ली, भेड़-बकरी पता नहीं किस-किस जानवर के भविष्य को लेकर जीव
विज्ञानी चिंतित हैं, किंतु इंसान से गायब इंसानियत उनकी चिंता का विषय नहीं है।
इंसान को सुपर इंसान बनाने की बात उनके भेजे में नहीं आ रही है। इनसानों की संख्या
निरंतर घट रही है, यह उनके लिए चिंता का विषय नहीं है। इसके विपरीत
जनसंख्या-नियंत्रण पर अवश्य ज़ोर दे रहे हैं। वे नहीं जानते हैं कि जिन बढ़ती
पैदावार तुम्हारी चिंता का विषय है, उनमें इंसान हैं, कितने। उन्हें तो इंसान की
शक्ल-ओ-सूरत के सभी जीव इंसान नजर आते हैं।
चूहे-बिल्ली अथवा गिद्ध हमारे लिए ज़्यादा चिंता का विषय नहीं है। हमारी चिंता का
विषय तो वह नया जीव है, जिसे मानव व जानवर के संयुक्त जींस से बनाने की तैयारी चल
रही है। इस विषय को लेकर हमारी चिंता द्विआयामी है। वैज्ञानिकों का इरादा यदि जानवर
के जींस में मानव जींस आरोपित कर उत्तम किस्म का जानवर बनाना है, तो कल्पना करो कि
नई किस्म के उस जीव का चरित्र कैसा होगा? अभी इस विषय में कल्पना ही की जा सकती है,
क्योंकि अभी इस बारे में विज्ञानी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं।
हमारा मानना है कि वह नया जानवर इस सृष्टि का
सर्वाधिक खतरनाक जानवर होगा। कारण स्पष्ट है, जानवर भले ही किसी भी रूप में हो,
इंसान उन्हें खतरनाक ही मानकर चलता है। एक-दो दुधारुओं को छोड़कर, मगर डरता उनसे भी
है। पुन: कल्पना कीजिए, जब जानवर के चरित्र में मानवीय सद्गुण व्याप्त हो जाएँगे,
तो स्थिति क्या होगी? जानवर भी बलात्कारी हो जाएँगे। भ्रष्टाचारी हो जाएँगे, असत्य
भाषी हो जाएँगे, लैग-पुलर हो जाएँगे। अभी तक कहा जाता है, 'आदमी जानवर से ज़्यादा
खतरनाक है!' तब क्या स्थिति इसके विपरीत नहीं हो जाएगी। जानवर आदमी से ज़्यादा
खतरनाक नहीं हो जाएगा?
अब जरा दूसरी संभावना पर गौर कीजिए। इस नये शोध से
यदि आदमी में जानवर के गुण आ गए, तो वह सुपर मैन होगा अथवा नरपिशाच? नरपिशाच की
कल्पना मात्र से ही क्या पसीने नहीं आने लगते हैं? स्पष्ट है कि वैज्ञानिक यदि
नरपिशाच निर्मित करने पर विचार कर रहे हैं, तो जो थोड़े बहुत इंसान शेष हैं भी, तब
वे भी स्वर्ग की ओर पलायन कर जाएँगे और इंसान ढूँढे नहीं मिलेगा। जानवर तो जानवर है
ही, इनसान के भेष में भी जानवरों की तादाद बढ़ जाएगी। अब आप ही बताइए, क्या हमारी
चिंता जायज़ नहीं है।
जीव विज्ञानी गिद्धों की घटती पैदावार को लेकर
चिंतित हैं। ऊर्जा गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में लगा रहे हैं। सुना है, सरकार भी
इस विषय को लेकर काफ़ी चिंतित है। सरकार की चिंता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं
है, क्योंकि सजातीय के प्रति चिंतित होना जीवों का स्वभाव है। सरकार नामक गठबंधन
में शामिल तत्वों कुछ हों या न हों, किंतु उनके जीव होने से इंकार नहीं किया जा
सकता।
वैसे भी, सरकारों का सरोकार मुख्य रूप में चिंता
और चिंतन से ही है, अत: गिद्धों के प्रति उनका मोह आश्चर्य का विषय नहीं है।
आश्चर्य हमें वैज्ञानिकों की सोच को लेकर है, क्योंकि हम उन्हें बुद्धूजीवी नहीं
बुद्धिजीवी मानते हैं और गिद्धों का विजातीय मानते हैं। हमारा मानना है कि कम से कम
वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य तो मानव सेवा ही है। फिर न जाने क्यों, उन्हें अचानक
गिद्ध मोह हो गया? क्यों उनकी पैदावार बढ़ाने के लिए अभियान चला रहे हैं? पता नहीं
क्यों अपनी ऊर्जा उनका उत्पादन बढ़ाने में ज़ाया करने पर वे उतारू हैं? इसे सोहबत
का असर भी कहा जा सकता है और परिस्थितिजन्य अन्य कारण भी।
अभियान केवल गिद्धों की पैदावार को लेकर ही चलाया
जाता तो भी हमारी चिंता का वजन ज़्यादा न होता, हमारे लिए भी चिंता सरकारी स्तर की
होती। चिंता का वज़न वज़नी होने का कारण इनसानों की अपेक्षा गिद्धों की कहीं अधिक
महत्व देना है।
गिद्धों की पैदावार घट रही है, यह सुनकर भी
आश्चर्य होता है और इंसानियत विरोधी ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस भी आता है।
वास्तविकता तो यह है कि पैदावार गिद्धों की नहीं, इनसानों की घट रही है। गिद्ध एक
ढूँढ़ो, हज़ार मिलते हैं और इंसान हज़ार के बीच एक भी मुश्किल से!
हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि मरे जानवरों को
आहार बनाने वाले गिद्धनुमा विशाल परिंदे आसमान में परिक्रमा करते अब नहीं दिखाई
पड़ते, लेकिन उनकी न तो उनकी संख्या में ही कमी आई और न ही उनकी पैदावार घटी है,
केवल स्वरूप बदला है।
परिवर्तित स्वरूप को पहचानो और अपनी दृष्टि बदलो,
चारों ओर गिद्ध ही गिद्ध नज़र आएँगे। उनके स्वरूप में ही नहीं, स्वभाव में भी
परिवर्तन आया है। परिंदे गिद्ध मृत देह का भक्षण करते थे, परिवर्तित गिद्ध जीवित को
ही अपना आहार बना रहे हैं। परिंदे पर्यावरण के लिए लाभदायक होते होंगे, हम इनकार
नहीं करते, मगर विचारणीय प्रश्न यह भी है कि परिवर्तित गिद्ध समाज के पर्यावरण को
प्रदूषित कर रहे हैं।
ख़ैर जो भी है, खोज गिद्धों की नहीं, जटायु की
होनी चाहिए और उन्हीं की घटती पैदावार चिंता का विषय होनी चाहिए। लुप्त होते
गिद्धों के लिए नहीं, सरकार व वैज्ञानिकों को लुप्त होती इंसानियत की चिंता होनी
चाहिए। इंसानियत वाले सुपर इंसान बनाने के प्रयास करने चाहिए।
१८ फरवरी
२००८ |