एक प्रसिद्ध चुटकुला है कि एक डॉक्टर ने एक गिलास
दारू में एक कीड़ा डाला और थोड़ी ही देर में कीड़े के मर गया तो डॉक्टर ने अपने
मरीजों से जानना चाहा कि इससे क्या सीख मिली? सभी मरीज एक स्वर में बोले कि डॉक्टर
साहब, दारू पीना अच्छी बात है, इससे पेट के सारे कीड़े मर जाते हैं।
इसका एक और आशय यह भी निकला कि कीड़े मरते हैं तो दारू अच्छी क्वालिटी की है। बस हर
वस्तु को देखने का नजरिया सकारात्मक होना चाहिए। खूबियों की कमी नहीं है। हर खराब
से खराब वस्तु में भी गुण देखने ढूंढने की क्षमता का विकास कर लो, समूची दुनिया
खुशनुमा हो जाएगी।
कीड़े हैं तो सब्जी अच्छी है! एकदम ताजा खबर है, बासी गन्ने के ताजा रस से भी। कारण
यह है कि कीड़े जिंदा हैं तो इन्हें मारने वाले कीटनाशक ने असर नहीं किया होगा।
बेअसर रहने के दो कारण हो सकते हैं, पहला वे मिलावटी रहे होंगे, दूसरा कीड़ों तक
नहीं पहुँचे होंगे। दोनों ही स्थितियों में फायदा इंसान का ही है। मिलावटी जहर का
असर कीड़ों पर ही नहीं हुआ तो इंसान पर कैसे होगा?
कीटनाशक मिलावटी नहीं रहे होंगे तो अवश्य ही वो उन कीड़ों तक नहीं पहुँचे होंगे, जो
सब्ज़ियों और फलों में ज़िंदा रह गये। नतीजतन, जब कीड़े ही नहीं मरे तो इंसान क्यों
कर मरेगा? इसलिए उन सब्ज़ियों और फलों को ढूंढ ढूंढ कर खाना चाहिए, जिनमें ज़िंदा
कीड़े हों। उन कीड़ों को ज़िंदा ही रहने दो, इस सद्भावना के साथ कि वे दिन दूनी रात
चौगुनी वृद्धि को प्राप्त हों। कीड़ों के ज़िंदा रहने में ही इंसान की स्वस्थता
छिपी हुई है। कीड़े के द्वारा खाई गई सब्जी खराब हो जाती है परन्तु उतनी नहीं जितनी
कीटनाशक के ज़हरीले असर से। उस खराब हिस्से को काटकर बाकी का सेवन किया जा सकता है
क्यों कि वो बढ़िया होता है।
इस नई खोज से दवा निर्माताओं, विक्रेताओं और डॉक्टरों का भारी नुकसान होगा।
व्यावसायिक नज़रिये वाले अस्पतालों को हानि होगी। जिनके यहां सिर्फ पेट दर्द से
पीड़ित मरीजों के भी दिल और दिमाग की चीरफाड़ कर चांदी काटी जाती रही है। कीटनाशक
पेन्क्रियाज को भी नुकसान पहुँचाते हैं जिससे डायबिटीज जैसा जानलेवा रोग पनपता है
और जीभ से तथा जीवन से मिठास गायब कर देता है। खून में चीनी की जाँच कर करके कितने
ही रक्त जाँच केन्द्र पनप गए?
हमारी समृद्ध भारतीय संस्कृति में वनस्पति को भी नुकसान पहुँचाने की प्रवृत्ति नहीं
है। जीवहत्या तो दूर की बात है, किसी को हानि पहुंचाने से पहले भी हम लोग कई बार
सोचते हैं। वो अलग बात है कि अपवाद हरेक के होते हैं और अपवाद वो किसान हैं, जो
ज्यादा खेती के लालच में, कीड़ों को जहर दे देते हैं। जबकि परोक्ष में वे खुद को,
आदमीयत को जहर दे रहे होते हैं। इतना अगर वे समझ जाते तो किसान से इंसान नहीं बन
जाते। जबकि आज किसान साबित होने की होड़ लगी हुई है।
कवि अज्ञेय की एक प्रसिद्ध कविता की चंद पंक्तियाँ हैं, जिसमें उन्होंने जानना चाहा
है कि - सांप तुम सभ्य तो नहीं हुए होगे, फिर कहां से सीखा डसना और विष कहाँ से
पाया? आज कवि की उस जिज्ञासा का समाधान भी हो गया है कि जो कीटनाशक खेतों में डाला
होगा, वो मिलावटी नहीं रहा होगा और साँपों तक भी पहुंच गया होगा। दूध जो साँपों ने
पिया होगा, उन गायों-भैंसों ने कीटनाशक के ज़हरीले असर वाली वनस्पति खाई होगी,
जिससे उसकी विषाक्तता दूध में घुलकर साँप को ज़हरीला बना गई होगी। इंसान की तो क्या
बिसात है ?
तो कीड़ों को अपना दुश्मन नहीं, मित्र मानिए। आखिर सृष्टि रचयिता ने किसी न किसी
नेक कारण से ही हर जीव को उत्पन्न किया है। बस जानने भर का फेर है। इसके लिए
सकारात्मक दृष्टिकोण की जरूरत है। कीड़ों को मित्र मानने से इसकी शुरुआत हो चुकी
है। हमें इसे आगे बढ़ाना है।
इस खबर से अवश्य ही मेनका गांधी को काफी दिली खुशी मिली होगी। इसी खुशी से हमारा मन
भी मुदित है और हम गाए जा रहे हैं कि कीड़े मुझे अच्छे लगने लगे।
९ दिसंबर २००७ |