दिल्ली के दरवाज़े पर महंगाई का ट्रिपल अटैक
प्रत्यक्ष में तो तिहरा ही दिखता है पर परोक्ष में इसकी अनगिनत तहें हैं। जिनकी
गिनती करना आकाश के तारों को गिनने के समान है। इधर महंगाई नित नये शिखर बना रही है
उधर अपने मुकेश अंबानी अंबर से बातें करने में मशगूल हैं। सिर्फ़ वो ही नहीं उनका
आशियाना भी अंबर से बातें करने में सफल होने वाला है।
मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ पर इतना तो जानता
समझता हूँ कि जब महंगाई का प्रहार होता है तो उससे लोग सिर्फ़ दुखी ही नहीं होते,
सुखी भी होते हैं। जिनका सस्ते में ख़रीदा गया माल महंगा बिकता है, तब तो वे हैप्पी
होते हैं और जब अपनी ख़रीदारी के लिए ज़्यादा कीमत चुकाते हैं तो सैड (दुखी) होते
हैं।
हैपिनेस इंडेक्स से खुशियों को नापने की तलाशी
ज़ोरों पर है। पर इसमें कामयाबी जीरो ही रहेगी। पहले तो इस बात का पता लगाना होगा
कि खुशी दिल में रहती है या दिमाग़ में। या इन दोनों से ही नदारद होती है। आधे तो
इस बात से दुखी होते हैं कि दूसरा सुखी क्यों है? बाकी आधों को दूसरों के दुख में
सुख की प्राप्ति होती है। और जो बाकी बचे वे सुखी के सुख में सुखी और दुखी के दुख
में दुखी होते हैं। अब आप कहेंगे कि बाकी बचे ही कहाँ तो मेरा कहना है कि आप मान
लीजिए कि ऐसे लोग इस पृथ्वी पर तो उपलब्ध नहीं हैं, बाकी सृष्टि के बारे में मैं
कोई गारंटी-वारंटी नहीं ले सकता।
इंसान ने खुशी का पैमाना निर्धारित करने का अभियान
आरंभ किया है। जबकि ज़रूरत खुशी का ठिकाना ढूँढने की है। आज़ाद इंसान खुश होता है,
या बंदी का जीवन जी रहा शैतान। शैतान इसलिए खुश होता है क्यों कि उसने सुखी इंसान को
अपनी खुशियों की नाकेबंदी के लिए तैनात कर लिया है। इंसान जो शैतान की रखवाली के
लिए लग गया उसकी खुशी तो काफूर हुई समझो। चर्चा करके सब कुछ तो पाया जा सकता है पर
खुशी यानी हैपिनेस कैसे मिल पाएगी, यह बात गले नहीं उतरती है। एक तो फुटपाथ पर
सोकर, दिन भर मजदूरी करके भी संतोष का दामन थाम लेता है और चैन की नींद सोता है।
दूसरा सब भौतिक सुख सुविधायें, रुपया-पैसा पाकर भी नरम मुलायम गद्दों पर भी करवटें
बदलता रहता है, उसकी गिनती किसमें करेंगे।
अब खुश होने वालों के लिए तो इतना ही बहुत है कि
लंदन में चल रहे इस सम्मेलन में भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन
जैसे स्वनामधन्य अर्थशास्त्री शिरकत कर रहे हैं। खुश होने वाले तो इस बात पर भी खुश
हो लेते हैं कि हैपिनेस इंडेक्स की खुशियों को तौलने वाले इस सम्मेलन का आरंभ बुध
को हो रहा है और उनका तर्क है कि बुध काम शुद्ध।
इस सम्मेलन में शामिल होने वाले इसलिए भी खुश हो
रहे होंगे कि चलो यह तीन दिन का तो है, तीन दिन तो खूब मौज रहेगी। दुखी होने वाले
सोच रहे होंगे कि यह पांच अधिक दिनों का क्यों नहीं हुआ?
अब एक ही कारण एक के लिए खुशियाँ लाता है और दूसरे
के लिए अपार दुख की संभावनाएँ भी अपने में रखता है। मुझे तो संभव नहीं लगता है कि
ऐसा कोई हैपिनेस इंडेक्स बन पाएगा जिससे वास्तव में खुशियों का वज़न किया जा सके।
पल में तोला पल में माशा होने वाली खुशियों को नापने के लिए कोई इंडेक्स या तराजू
बनाने में सफलता मिल गई तो फिर खुशियों को ख़रीदा या बेचा भी जा सकेगा और मुझे तो
उसी दिन का बेसब्री से इंतज़ार है। जिस दिन खुशियों की सौदेबाज़ी शुरू हो सकेगी और
इसमें लाभ की अपार संभावनाएँ जन्म लेंगी।
इसी आशा और विश्वास के साथ मैं हैपिनेस इंडेक्स की
सफलता की कामना करता हूँ। अब अगर मेरा यह लेख नहीं छपा तो मैं सैड परंतु इसके न
छपने से जिसका लेख छप गया वो हैप्पी। इंडेक्स बनाने वाले अपनी थ्योरी में इसकी
व्याख्या कैसे करेंगे?
१ जुलाई २००७ |