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भारतीय जनता भी अजब-ग़ज़ब है, जो नहीं करना हो वो करती है और जो करना हो वो नहीं करती है। शायद इसी कारण हमारे देश में प्रजातंत्र नामक जीव बचा हुआ है और वो भोलाराम हो गया है। अपने भोलेपन में भूल जाता है कि जो सच्चे मन से उसकी सेवा कर रहे हैं उनकी भी सेवा कर ले। भोलाराम तो आजकल ऐसे लोगों की सेवा कर रहा है जो सेवा के नाम पर उसका मेवा खा रहे हैं और देशहित के नाम पर उससे सेवा करवा रहे हैं। ऐसे सेवक छींक भी दे तो अखबार को जुकाम हो जाता है। इनके कई खून माफ़ हैं क्योंकि ये कभी निशान नहीं छोड़ते हैं। इनकी समाधियाँ बनाई जाती हैं और किसी एक दिन इनकी शहादत को याद करते हुए सर झुकवा दिए जाते हैं। ये बगुले की तरह जन्म से मृत्यु तक झक सफ़ेद रहते हैं और गंदगी ढूँढ़े नहीं मिलती है। ये मरने से पहले तय कर जाते हैं कि उनकी समाधि कहाँ जँचेगी। राष्ट्र की संस्कृति, भाषा, धर्म आदि इनकी मुट्ठी में कसमसाते रहते हैं क्योंकि इन सबकी दिशा तय करने का ठेका इनके पास है।

और वो जो बेचारा मशाल की तरह जलता है, आम आदमी के दर्द को समझता है, जीवन मूल्यों को बंदरिया के बच्चे-सा चिपकाए रहता है, उसकी शहादत को कोई घास नहीं डालता है। तुम्हारा खून खून और हमारा खून पानी के इस्टाईल में बेचारा अवसाद से घिरा रहता हैं। उसकी मौत एक आम आदमी की मौत होती है। उसकी मौत तभी ख़ास होती है जब वो समूह में किसी हादसे का शिकार हो कर मरता है। ऐसे में अखबारों को समाचार मिलता है और न्यूज चैनल्स को दिन भर परोसने के लिए मसाला।

हिंदी भाषा और साहित्य में ऐसे अनसंग हीरोज़ की कमी नहीं है। एक ढूँढ़ो तो हज़ार मिलते हैं, दीगर बात ये है इन हीरोज़ को इनका मोहल्ला ही नहीं पहचानता है क्योंकि इन्हें मीडिया नहीं पहचानता है।
इन दिनों हिंदी का वसंत छाया हुआ। सीकरी से काम रखने वाले संत-पुष्प चहुँ ओर पुष्पित हो रहे हैं, भँवरे सम्मेलन-सम्मेलन गुनगुना रहे हैं, विदेश यात्रा की मंद-मंद समीर चल रही है, साहित्य के 'आम जन' के दर्द को 'समझने' वालों पर बौर आ गया है और वे बौराये-से सात समुंदर पार उस दर्द को और समझने के लिए डोल रहे हैं। पर ये समाज तो साहित्य और भाषा सेवियों के प्रति सदा क्रूर रहा है। वैसे भी आजकल प्रेजेंटेशन का ज़माना है, अपने को जिसने सही प्रेजेंट कर लिया उसने वसंत का फल पा लिया। विदेश यात्रा के फल को पाने के लिए जुगाड़ जमाए जा रहे हैं। जिसका जुगाड़ जम गया है वो रोज़ सुबह उठकर हिंदी माता को प्रणाम करता है और जिसका नहीं जमा है वो गालियाँ दे रहा है। ऐसे सुअवसर जीवन में बार-बार कहाँ आते हैं।

विश्व हिंदी सम्मेलन, और वो भी अमेरिका में, न्यूयार्क में. . . जहाँ कभी ट्विन टॉवर हुआ करते थे, जहाँ स्वतंत्रता की देवी 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' बन पुकार रही है, जहाँ एंपायर स्टेट फिर सबसे उँची इमारत बन गया है और जहाँ क्वींस एरिया में दिल्ली का चाँदनी चौक या करौल बाग जैसी देसी रौनक है। वहाँ अमेरिका में रहते हुए गोलगप्पे, समोसे, टिकिया, डोसा का लुत्फ़ उठाया जा सकता है। हे प्रिय वहाँ तो पान भी मिलता है। जो सुख अमेरिकी डालर देकर इन चीज़ों को खाने का वो यहाँ कहाँ। हे हिंदी-सेवी तू जब यहाँ आकर यह बताएगा कि तूने दो डालर का समोसा खाया या डेढ़ डालर की टिकिया या फिर डेढ़ डालर का पान तो इस सुख का वर्णन करने में तेरी छाती कितनी चौड़ी हो जाएगी। हाय! हाय! हे चौहान चूक मत जाना। हिंदी की जितनी सेवा का सुख और पुण्य तुम्हें वहाँ जाकर मिलने वाला है वो कभी न मिलेगा। इसे तो तू हे संत, कुंभ से भी बड़ा जान। हिंदी की सेवा का बहुत महान अवसर है। देश में हिंदी की स्थिति को लात मार और हो जा हवाई जहाज़ पे सवार। अमेरिकी वीज़ा तो किसी भाग्यवान को ही मिलता है, तू भी भाग्यवान बनने का ये सुअवसर मत त्याग। देख जिस हिंदी को लोग दरिद्र मानते थे और तूने भी अपने कंप्यूटरीकृत बच्चों पर उनकी छाया तक नहीं पड़ने दी, उसी ने क्या सुअवसर प्रदान किया है।

हे हिंदी संत, ऐसे में तू अर्जुन मत बन और किसी दुविधा को मत पाल। मत सोच कि देश में हिंदी की सेवा तो की नहीं और विदेश में. . .देश में तो कभी भी हो सकती है। तेरे पास विदेश में जाकर हिंदी की सेवा करने का सुअवसर है, इसे मत जाने दे। एक बार जाकर तो देख, तेरी टी.आर.पी. कैसे बढ़ जाती है। वहाँ जाकर एक बार देख तो सही कि 'प्रगति' किसे कहते हैं और हम प्रगतिशील कहलाने के बावजूद कितने पिछड़े हुए हैं। जा और तू भी लौटकर आ, अपनी माँ की बदसूरती को खूब कोसने का सुअवसर पा।

इन दिनों हिंदी की मंडी में अचानक शहीदों की बाढ़ आ गई है। जिसे देखो वह अपनी शहादत का प्रमाणपत्र लिए सुपात्र ढूँढ़ रहा है। जैसे राजनीति में खून से रिश्ता उसी से होता है जो सत्ता दिलवाने में मददगार होता है वैसे ही इस समय वो ही अपना है जो इस प्रमाणपत्र की कद्र करे और प्रतिनिधि मंडल का सदस्य बना दे।

हमारे एक वरिष्ठ साहित्यकार 'मित्र' हैं। देखा एक दिन विदेश मंत्रालय के द्वार पर कटोरा लिए भिक्षां देही की पुकार लगा रहे हैं।
मैंने पूछा, ''आप यहाँ?''
वे बोले, ''मैं क्या, आप देखें तो आप समेत सभी हिंदी सेवी यहाँ हैं।''
मैंने कहा, ''पर ये तो बेचारे हिंदी सेवी हैं जिनके पास हिंदी की सेवा करने का चारा नहीं है। आपके पास तो चारा ही चारा है। आप तो दूसरों को चारा देने की क्षमता रखते हैं। आप कटोरा लिए क्यों घिघिया रहे हैं।''
वे बोले, ''तुम नहीं समझोगे। सरकारी ख़र्चे में हिंदी की सेवा करने को जो आनंद है वो अन्यत्र नहीं।''
इससे पहले वे मुझे और कुछ समझाते, द्वार खुला, आलोकित पुरुष प्रकट हुए और वरिष्ठ साहित्यकार का लघु स्वर गलियारे को उनकी हिंदी सेवा से भिगोने लगा।

हिंदी के ऐसे अनेक शहीद हैं जो हवाई जहाज़ द्वारा गरीब हिंदी की सेवा करने के लिए यात्राएँ करते हैं। सेवा करते-करते इनकी गर्दन झुक गई है पर कोई ऐसा दानवीर नहीं है जो एक माला ही डालकर इनकी गर्दन को उठा दे। कुछ प्रवासी बनकर शहीद हो रहे हैं। हम कहते हैं कि भई हमें भी प्रवासी बनने का 'दु'अवसर दे दो जिससे कि हम भी तुम्हारे प्रवास के दर्द को समझ सकें तो वे साफ़ कन्नी काट जाते हैं।

मेरा सुझाव है कि जल्द ही, जैसे सेना में शहीदों का सम्मान किया जाता है, हिंदी में भी शहीदों के सम्मान की परंपरा आरंभ की जाए। क्या कहा आपने. . .  'शहीद' हिंदी का क्या होगा? '' माफ़ कीजिए, इसका ठेका किसी ने नहीं लिया हुआ है।''

9 जुलाई 2007

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