हास्य व्यंग्य | |
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ऑफ़िस से घर की ओर पैदल जाना होता है...बीस मिनट की दूरी पैदल चलते पूरी हो जाए तो दो फ़ायदे और एक मजबूरी होती है। एकमात्र मजबूरी यह कि अपनी ऑफ़िशियल औक़ात के लोग अब कारों में चलते हैं और अपने पास पैसा नहीं तो कार नहीं। दो अनॉफ़िशयल फ़ायदे गिनाकर मैं इस इकलौती मजबूरी को ढाँक लेता हूँ। पहला फ़ायदा यह कि इससे सेहत बनी रहती है और दूसरा गली-कूचों से निकलते हुए मेरे पत्रकारी मन की संवेदनाओं को बड़ी राहत मिलती है। अपने जागरुक और संवेदनशील होने का भ्रम बना रहता है। यहाँ से गुज़रते हुए अपने ज़मीनी जुड़ाव के सरोकारवादी दंभ में कभी-कभी इतना चूर हो जाता हूँ कि नाली से भी जुड़ाव महसूस करने लगता हूँ। फ़िल्मसिटी से वाया रजनीगंधा चौक होते हुए अपने सेक्टर की ओर पैदल जा रहा था। बीच में एक पुल पड़ता है, जिसके किनारे पसरे अँधेरे से पगडंडी पर चलते हुए जाना होता है। कुछ ही दूर चला था कि एक साया मेरी ओर बढ़ता जा रहा था। दस-बारह मीटर की दूरी बची थी कि अचानक से मेरी नज़र उस साये के चेहरे पर पड़ी. वो किसी दिव्य पुरुष का चेहरा था। पास पहुँचते ही इस दिव्य पुरुष के दर्शन मात्र से मेरे हाथ-पैर ढीले हो गए। चेहरे-मोहरे से जाने-पहचाने से लग रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि कौन हो सकता है यह दिव्य पुरुष। सिर के पीछे प्रकाश की छटा बिखरी थी, माथे पर तिलक और कानों में कुंडल, लंबी नाक और बड़ी आँखे...रंग साँवला। चेहरे-मोहरे से अपने भगवान राम दिख रहे थे। मैंने सोचा कि दशहरे के लिए स्पेशल प्रोग्राम कराने कोई स्टूडियो लेकर आया होगा...खाली टाइम में यहीं घूम रहे होंगे रामलीला वाले ये सज्जन...लेकिन प्रभामंडल देख हैरानी में पड़ चुका था। मुझे वो अलौलिक लग रहे थे। अँधेरे में चेहरा ही नहीं बल्कि पूरा शरीर शनैः शनैः प्रकाशित हो रहा था…मैंने सोचा कि कहीं लगाई तो नहीं…फिर याद आया कि अरे, अभी घर पहुँचा ही नहीं हूँ। भक्त नैतिक रूप से समर्थवान होना चाहिए जो भगवान
से आँखे चार कर सके। मेरी क्या बिसात.. मेरे माथे पर पसीना आने लगा। कुछ पल वो
देखते रहे, मैं सँभला और पूछा..."आप मुझे देख रहे हैं?" उस सज्जन ने कहा, "हाँ
पुत्र, तुम कहाँ जा रहे हो? क्या मेरी सहायता करोगे?" "पुत्र, मेरी सहायता करो" प्रभु बोले। मैंने कहा,
"हे मर्यादा पुरुषोत्तम, हे दयानिधान, सर्वशक्तिशाली...मैं तो धन्य हूँ आपके दर्शन
मात्र से...किंतु प्रभु...मैं अदना-सा प्राणी आपकी क्या सहायता करूँ?" कहाँ मैं सांसारिक सुखों को भोगने की प्लानिंग कर रहा था और कहाँ प्रभु मुझे अदालती चक्कर में फँसाने की बात कर रहे थे। मैं भक्तिभाव की तंद्रा से जागा…सांसारिक अवगुणों से ग्रस्त हूँ, इसलिए तुरंत भक्तिरस के कैमिकल लोचे से बाहर आ गया। सबसे बड़ा डर मुझे प्रभु के इस तरह एकाएक पदार्पण पर था। तत्क्षण मेरा दिमाग़ चकराया और मुझे सरकारी हलफ़नामे से लेकर चक्काजाम, ख़ून खराबा, कोर्ट कचहरी, संसदीय जूतम-पैजार, रैली-भाषण, दंगे-फ़साद सब याद आने लगे। ओहहह… "प्रभु…सरकार से बड़ा कोई नहीं है प्रभु...सरकार
ने कह दिया कि आप नहीं थे तो मानने में क्या हर्ज़ है? मान लो प्रभु...सरकारों से
पंगे लेना विवेकपूर्ण कृत्य नहीं है प्रभु। प्लीज़, आप इधर कोने में आइए हे
पुरुषोत्तम...कहीं यू.पी. पुलिस ने देख लिया तो शामत आ जाएगी। आए दिन एनकाउंटर करते
रहते हैं। पता नहीं कब रासुका-वासुका, टाडा-मकोका लगाकर अंदर कर दे। सरकार ने कहीं
आपको देख लिया तो राष्ट्रद्रोह का आरोपी बनाकर जेल में ठूँस देगी। प्रभु, आप कोई
नेता-अभिनेता तो हो नहीं जो ज़मानत-अमानत करवा लेंगे। आप जगत के सामने सशरीर आ गए
तो सरकार की विश्वसनीयता का क्या होगा? सरकार की बेइज़्ज़ती हो जाएगी। हे
कौशल्यानंदन…मेरी मानो कलटी मार देते हैं यहाँ से...।" मैं सकपका गया, तुरंत बोला, "नहीं नहीं प्रभु,
जहाँ से आया वहाँ फिर क्यों ले जा रहे हो। ड्यूटी पूरी कर चुका हूँ। आप ही का नाम
लेकर ड्यूटी करता हूँ। 'जितनी तनख्वाह उतना काम, रघुपति राघव राजा राम'...उधर
फ़िल्मसिटी है। कई चैनलों के स्टूडियों हैं। अपन वहाँ पहुँच गए और किसी रिपोर्टर ने
देख लिया तो पकड़ लेगा। फिर जो दुर्दशा होगी…ओह। सारा दिन आपसे चमत्कारों के खेल
कराएँगे, रामानंद सागर की 'रामायण' के डायलॉग बुलवाएँगे। दर्शकों से फ़ोन पर सीधी
बात कराएँगे। इतना ड्रामा जब दिनभर में हो जाएगा तो रात होते-होते पुलिस भी बुला
लेंगे और सरेंडर का लाइव टेलीकास्ट करेंगे। दिन में चैनल और फिर रातभर पुलिस। बड़ा
बुरा होगा प्रभु, भक्त की अर्ज सुनो और निकल चलिए मेरे साथ...।" मैं उनके चरणों में लपका और कहा, "उधर, कहाँ जाना है प्रभु, आप मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। उधर मर्यादित आचरण नहीं होता प्रभु। वो रास्ता दिल्ली को जाता है। जैसे आपकी राजधानी अयोध्या थी, इस कलयुग में भारत (अनुच्छेद एक के अनुसार भारत, जो कि इंडिया है) की राजधानी यही दिल्ली नगरिया है। वहाँ बहुत सारे राजनीतिक दलों के दफ़्तर हैं। प्रभु चुनाव निकट हैं, आप सशरीर हाथ लग गए तो रैलियाँ-भाषण करा-कराकर थका देंगे। आपके आने से पहले ही रामानंद की रामायण के कई एक्टरों को ये लोग रोड़ शो करा चुके हैं। एक बार इन पर तरस खाकर इनका काम कर भी दिया तो अगले चार साल तक ये आप पर तरस नहीं खाएँगे। हे अयोध्या नरेश, आप इस कचाइन में कूदने की चेष्टा क्यों कर रहे हैं।" प्रभु मेरी प्रार्थना मान गए और मेरे साथ चलने लगे। हम कुछ आगे बढ़े, नाला क़रीब था। दिल्ली की सारी गंदगी इसी नाले में बहते हुए नोएडा तक आती है। बदबू से नाक सिकोड़ते हुए प्रभु आगे बढ़ते रहे। नाले पर बने पुल को देखते ही प्रभु बोले, "पुत्र, नल और नील की याद आ गई। उन कुशल वानरों ने इससे सहस्त्र गुना चौड़े सागर के दो पाटों पर सेतु बना दिया था।" मैं नए संकट में! जैसे-तैसे प्रभु को फ़्लैशबैक
में जाने से रोकता हूँ, वो बार-बार त्रेतायुग में चले जाते हैं। जिस सवाल से
पुरातात्विक विभाग वाले नहीं पार पा सके, उस सवाल को मेरे जैसा अपुरातात्विक महत्व
का प्राणी से कैसे हल कर सकता है। मैंने दोबारा कहा, "चलिए आप मेरे साथ," प्रभु
मेरे साथ चल पड़े। घर पहुँचते ही प्रभु को अपने कमरे तक लेकर आया और
हाथ पैर धुलाए। घर में सारी चीज़ें अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। प्रभु देखकर मुस्कुराए और
कहा, "तुम अभी तक कुँवारे हो।" मैंने कहा, "प्रभु आपकी कृपा रही तो आगे नहीं
रहूँगा।" टीवी चालू किया तो चैनल ख़बरियाने लगे। सरेआम मुँह
काला करने की ख़बर, तोड़-फोड़, रिश्वतखोरी, स्टिंग ऑपरेशन, बलात्कार… प्रभु की आँखे
छलछला रही थीं…मैंने टीवी बंद कर दिया। १६ अक्तूबर २००७ |