पूर्व काल में अख़बार नहीं छपते थे। इसीलिए श्लोकों
के माध्यम से नीति वाक्यों का डोज़ पिलाने वाले पंडितों ने इस बारे में कुछ नहीं
कहा है और सारा ज़ोर विद्या पर डालते रहे हैं या विद्योतमाओं के खिलाफ़ षड़यंत्र
रचते रहे हैं। 'विद्या ददाति विनयं' या 'येशां न विद्याम् न तपो दानं' आदि-आदि तो
कहा है, पर ''अख़बार क्या देता है, या जो अख़बार नहीं पढ़ता वह इस धरती पर भार बनकर
मनुष्य के रूप में पशु की तरह विचरण करता है' जैसी कोई बात देखने को नहीं मिलती।
यही कारण है कि हमें पुरातत्व काल की लगाम से मुक्त होकर आधुनिक काल के उपदेशों,
निर्देशों आदि से दिशा ग्रहण करना पड़ती है।
यद्यपि आज के इस दौर में जब हम भूत के पाँवों की तरह
उल्टे-उल्टे भाग रहे हैं, इतिहास बदल रहे हैं, विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र
पढ़ा रहे हैं, अस्पतालों में मंत्र चिकित्सा विभाग खुलवा रहे हैं और झाड़फूँक के
लिए रास्ता बना रहे हैं तब आधुनिक काल से दिशा ग्रहण करने में ख़तरे ही ख़तरे हैं।
पर क्या करें। हमारे पास कोई चारा ही नहीं है बिहार वालों के पास हो तो हो और
बेचारे होकर हमें आधुनिक काल से ही दिशा ग्रहण करना पड़ेगी।
जब भी अख़बार निकालने की बात चलती है तो अकबर
इलाहाबादी जी का शेर ''गर तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो'' सबसे पहले निकल जाता
है, भले ही तोप तो क्या तमंचा भी मुक़ाबिले में न हो। आजकल हर कस्बे हर नगर में
हज़ारों पत्रकार बिना लिखे और बिना अख़बार निकाले ही बड़ी-बड़ी तोपों को डराते फिर
रहे हैं।
तोपें पूछती हैं- ''और शुक्ला जी अख़बार कैसा चल रहा है?''
''कैसा क्या चल ही नहीं रहा है बंद पड़ा है'' तंबाखू की पीक को बाहर बह जाने से
रोकने की खातिर मुँह को उपर की ओर उठा कर शुक्ला जी बताते हैं।
''क्यों?''
''अरे आप लोग चलने ही कहाँ देते है। पी.डब्ल्यू.डी. वाले अरोरा साहब के विभाग की एक
स्टोरी छापी थी कि दूसरे ही दिन बेचारे घर पर आकर मिठाई के डिब्बे में बीस हज़ार
रुपये दे गए और कह गए कि ''शुक्ला जी काहे को कष्ट करते हो अख़बार निकालने का।
अखबार लिखोगे, छपवाओगे, बाँटोगे, विज्ञापन बटोरोगे, कमीशन दोगे, पैसा वसूलोगे तब
कहीं जाकर दो चार हज़ार पाओगे। भैया आपका ये छोटा भाई काहे के लिए अपने जूते घिस
रहा है। जब छोटा भाई है तो बड़ा भाई क्यों चप्पलें चटकाए। हम तो हैं सेवा में। काहे
अखबार निकालने का कष्ट करते हैं- सो तब से बंद पड़ा हे। अब तो जब पैसे की दरकार
होती है तो किसी 'तोप' के पास चला जाता हूँ और कहता हूँ कि सहयोग करो नहीं तो
अख़बार निकालना पड़ेगा। लोग भले हैं, सहयोग करते हैं। साब जी अपने अकबर इलाहाबादी
जी को तो लोग सही अर्थों में नहीं लेते, उन्होंने तो बहुत साफ़-साफ़ कहा है कि- गर
तोप मुकाबिल हो तो...अख़बार निकालो। अब भाईसाहब तोप मुक़ाबिले में ही नहीं आती है
तो फिर बिना वजह क्यों अख़बार निकालें।''
'तोप' शुक्ला जी के इस आख्यान पर विचार मग्न हो जाए इसके पहले ही वे पुन: निवेदन
करते हैं ''भाई साहब एक कष्ट देने आया था। ये वर्मा जी हमारे रिश्तेदार बराबर है,
आपके ही विभाग में मुलाजिम है कई वर्षों से सैंवढा में सड़ रहे हैं विचारे। इनका
काम कर दें तो बड़ी कृपा होगी। आप जैसी दिव्य मूर्तियों के दर्शनों का सौभाग्य
मिलता रहेगा नहीं तो फिर उसी साले अख़बार में घुसना पड़ेगा।''
तोप शुक्ला जी का काम कर देती है।
वर्मा जी भी शुक्ला जी का 'काम' कर देते हैं।
हम अखबार निकाल सकते हैं, इसलिए हमसे डरो, नहीं तो अख़बार निकाल देंगे - ऐसा आदेश
देते हुए हर नगर कस्बे में डायरी दावे, खैनी फटकारते अनेक लंबे कुर्ते वाले मिल
जाएँगे जो केवल होली, दिवाली, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को स्थानीय तुकड़ों की
फूहड़ कविताओं और त्यौहारों की तरह मिलने वाले सरकारी विज्ञापन के साथ अख़बार इसलिए
छापते हैं कि सनद रहे, वक्त ज़रूरत पे काम आवे।
चूँकि किसी के मुँह पर तो लिखा नहीं रहता कि ये
अखबार निकालते हैं सो वे अपने स्कूटरों पर प्रेस लिखवा लेते हैं - बड़े-बड़े
मोटे-मोटे अक्षरों में। इस प्रेस का यह मतलब नहीं है कि हम अख़बार वाले हैं अपितु
इसका मतलब है कि हम अख़बार निकाल सकते हैं। ट्रैफिक के कानिस्टबिलों, वर्जित
क्षेत्र में प्रवेश कराने वालों, स्कूटर चुराने वालों, अगर पढ़ सकते हों तो पढ़ लो
कि हम वो हैं जो अख़बार निकाल सकते हैं। नहीं निकाल रहे यह हमारा अहसान है। यह
लोकतंत्र का चौथा पाया है जो हमने उपर उठा रखा है अभी। अगर...टिका दिया तो लोकतंत्र
चौपाया होकर जम जाएगा। इसलिए- हे तीन हिस्सों, हमें टिकने को मजबूर मत करो। तुम
अपनी मन मर्जी करो और हमारा ध्यान रखो, नहीं तो हम टिक जाएँगे।
हम टिक नहीं पाए इसलिए हमें बिकते रहने दो। अख़बार
निकालने वालों की तुलना में अख़बार न निकालने वालों से तोपें ज़्यादा डरती हैं। अब
जो अख़बार निकाल ही रहा है उसे तो हज़ार दूसरे काम भी हैं और उसे तो किसी तरह
निकालना ज़रूरी है सो उसका ध्यान दूसरी तरफ़ रहता है, पर अख़बार न निकालने वाले तो
बाल की खाल और ढोल की पोल में घुसने के लिए जगह तलाशते रहते हैं। भूखे भेड़ियों की
तरह यहाँ वहाँ पहुँचने की कोशिशें करते हैं जहाँ तोपों के हित में उन्हें नहीं होना
चाहिए। इसीलिए तोपों की कोशिश रहती है कि इसका अख़बार न निकले।
अख़बार निकालने वालों की तुलना में अख़बार न निकालने वालों की सक्रियता देखते ही
बनती है। निकालने वालों की तुलना में सभी चिंताओं से मुक्त वे प्रभावशाली नेताओं के
ईद-गिर्द घूमते रहते हैं।
वे जनसंपर्क विभाग से निरंतर संपर्क रखते हैं।
उन्हें ज़्यादा पता होता है कि कब किसकी प्रेस कान्फ्रेंस कहाँ होने वाली है।
अख़बार निकालने वाले जब चुटीले प्रश्न खोज रहे होते हैं तब अख़बार न निकालने वाले
गर्म समोसों की खुशबू सूँघ रहे होते हैं। कोल्ड ड्रिंक की
बोतलों के ढक्कनों के खुलने की प्रतीक्षा में होते हैं। प्राप्त हाने वाले उपहारों
की संभावनाओं को तलाश रहे होते हैं, उनका मूल्यांकन कर रहे
होते हैं।
अकबर इलाहाबादी आज होते तो शायद उन्हें भी यह लिखना पड़ता
कि तोप से मुक़ाबला कैसा अख़बार न निकालो और तोप के साथ हो जाओ इसी में फ़ायदा है।
१६
दिसंबर २००७ |