अभी पिछले दिनों अपने राधेलाल जी मिल गए। कौन राधेलाल? आप राधेलाल जी को नहीं
जानते। यह आपका दुर्भाग्य है। राधेलाल तो हर मोहल्ले, हर शहर में रहता है। ख़ैर ये
राधेलाल जी मेरे बचपन के मित्रा हैं। उनकी शिक्षा -दीक्षा का इतिहास बहुत
स्वर्णिम है। दो साल तक आठवीं में लुड़के और तीन साल तक दसवीं में लुड़के। तीन-तीन
लड़कियों के बाद पैदा हुए घर के इस चिराग़ का शिक्षा - प्रेम देख उनके पिता का
सिंहासन डोलने लगा। बेटियों को जो दहेज देना पड़ेगा उसकी वसूली के लिए अपना माल भी
तो चोखा होना चाहिए। स्कूल में मास्टर या तो बहुत लायक को पहचानते हैं या बहुत
नालायक को -- इस सिद्धांत के आधार पर राधेलाल अनेक मास्टरों का चहेता था। पुत्र के
शिक्षा प्रेम को देखकर पिता ने उसे किताबों कापियों की दूकान करवा दी थी। लड़का
होनहार निकला। ग़रीब मास्टरों की मास्टरनियों की ग़रीबी दूर करने लगा और इधर उसकी
ग़रीबी दूर होने लगी। इसलिए कहा गया है कि आप दूसरों की ग़रीबी दूर करो, भगवान आपकी
दूर करेगा। देश से ग़रीबी दूर करने का यह अत्यंत ही धार्मिक एवं कारगर उपाय है।
परीक्षा और प्रवेश के दिनों में उसे सर उठाने की फुरसत नहीं मिलती है। मैं
पुस्तकें पढ़कर इतना नहीं कमा पा रहा हूँ जितना वह पुस्तकें बेचने वाले अपने नौकरों
पर खर्च कर देता है। दूकान पर उसने बी. ए. पास नौकर रखे हुए हैं।
आजकल सरकार भी शिक्षा पर बहुत बल दे रही है। शिक्षा को चुस्त-दुरूस्त किया जा रहा
है। चुस्त-दुरूस्त शिक्षा के अनेक लाभ हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि ऐसी शिक्षा को
आसानी से बेचा और मुश्किल से ख़रीदा जा सकता है। बाज़ारवाद के युग में ऐसी शिक्षा
मूल्यवान हो जाती है और शिक्षा का व्यवसाय करने वाले बहुमूल्य। यही कारण है कि आजकल
व्यवसायी व्यावसायिक शिक्षा पर ज़ोर दे रहे हैं। सरकार का भी विश्वास है कि शिक्षा
को व्यवसाय से जोड़ने से रोज़गार के अवसर बढ़ेंगें। मैं भी आस लगाए बैठा हूँ कि जिस
देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी, महँगाई और अन्याय के अवसर बढ़ रहे हैं वहाँ शायद
रोज़गार के भी अवसर बढ़ जाएँ। सरकार रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए शिक्षा को
व्यावसायिक करना चाहती है पर चतुर व्यावसायिओं ने शिक्षा का व्यवसाय आरंभ कर दिया
है। आठवीं फेल को एक ज़माने में मैंट्रीक पास करवाई जाती थी। आजकल बिना पढ़ें
डिग्रियाँ दिलवाने का धंधा ज़ोरों पर है। दूकानें खुली हैं, दाम चुकाइए और जैसी
चाहे डिग्री ले जाइए। और यदि आप शरीफ़ और ईमानदार हैं, बिना परीक्षा दिए डिग्री
हासिल नहीं करना चाहते हैं तो आपके लिए पेपर आउट करवाने वाले पलक पाँवड़े बिछाए
बैठे हैं।
हमारे राधेलाल जी शिक्षा-विद चाहे न हों पर शिक्षा के प्रति उनका प्रेम लैला-मजनू
जैसा है। इसी प्रेम के कारण उनके आँगन में सरस्वती माता ने उनके लिए पैसों का पेड़
बो दिया है। संत कहते हैं कि लक्ष्मी और सरस्वती में बैर होता है पर राधेलाल को
देखकर लगता है कि दोनों ऐसी बहने हैं जो एक दूसरे के बिना पल भर भी नहीं रह सकती
हैं। हाँ, अगर आप मेरे हालात देख लें तो आपको संतों की बातों पर यकीन हो जाए।
राधेलाल चार सौ गज की कोठी में विराजता है और इसी राधेलाल का पढ़ा-लिखा मित्र, मैं,
दो कमरों की कोठरी में रहता हूँ। जिस राधेलाल को मैं 'अबे ओ राधू' कहकर पुकारता था
अब राधेलाल जी कहकर पुकारता हूँ।
तो यही राधेलाल जी मिल गए और बोले, ''यार तू किसी भरोसेमंद पादरी को जानता है?''
मैंनें मज़ाक किया, ''पादरी को क्यों, क्या किसी इसाई लड़की पर दिल आ गया है?''
''नहीं यार, एक पब्लिक स्कूल खोलना है। बस एक बढ़िया-सा पादरी दिलवा दे। नहीं तो
अमिताभ की हाईट वाला कोई गोरी चमड़ी का नमूना ही दिलवा दे, हमारी तरह चाहे कम
पढ़ा-लिखा हो पर अंग्रेज़ी फ़र्राटेदार बोलता हो। देखने में चकाचक प्रिंसिपल लगता हो।
मुझे एक बंदा मिला है डी. डी. ए. में, स्कूल के नाम पर बहुत सस्ती ज़मीन दिलवा देगा।
अच्छी शक्ल-सूरत वाली मैडमें रख लेंगें और बढ़िया एयरकंडिशंड स्कूल बना लेंगें। फिर
देखना कैसे पैसा बरसता है।''
''पैसा तो बाद में बरसाना, पहले बढ़िया एयरकंडीशंड स्कूल के बनाने के लिए पैसा कौन
इन्वेस्ट करेगा, विदेशी निवेशक? इस समस्या पर आपने कभी ध्यान दिया है, राधेलाल जी!''
मैंनें पूछा।
''इस छोटे से काम के लिए विदेशी निवेशक की ज़रूरत नहीं है, हमारे देसी भाइयों की
डोनेशन से आ जाएगा, बौड़म जी! अबे इतना पढ़-लिख गया पर एजूकेशन के मामले में बौड़म
ही रहा। केवल किताबों में ही सर मत खपाया करो मास्टर जी, अपने आस-पास भी नज़रें
मारा करो। देखते नहीं हो पब्लिक स्कूलों में एडमिशन की क्या मारामारी होती है।
जितना अच्छा स्कूल उतनी अच्छी डोनेशन। और अच्छे स्कूल का मतलब अच्छी पढ़ाई नहीं
उसका अच्छा दिखना ज़रूरी है। अच्छी-अच्छी मैडमें हों, अच्छी-अच्छी स्कूल बसें हों
तो स्कूल अच्छा दीखता ही है और जितना अच्छा स्कूल होता है उतनी अच्छी डोनेशन देनी
पड़ती है। डोनेशन तो इंटरनेशल धंधा है, मास्टर जी!''
''और पढ़ाई, उसका अच्छा होना आवश्यक नहीं है क्या? पढ़ाई अच्छी नहीं होगी तो
रिज़ल्ट ख़राब आएगा और ख़राब रिज़ल्ट वाले स्कूल में कौन माँ-बाप अपने बच्चों को दाखिल
करेंगें?''
राधेलाल ने मुस्कराकर कहा, ''प्यारे ज़माना बहुत बदल गया, अब तेरे मेरे
माँओं-बापों का ज़माना नहीं रह गया है। तब तो इतने बच्चे होते थे कि बाप को पता ही
नहीं होता था कि उनका बच्चा किस क्लास में पढ़ रहा है। उसे हुक्का गुड़गुड़ाने और
अपनी बीवी को लतियाने से ही फ़ुरसत नहीं मिलती थी। तब कंधे पर बस्ते का कम और हाथ
में तखती का बोझ अधिक होता था। ये तेरे-मेरे जैसे मम्मियों-डैडियों का ज़माना भी
नहीं है कि माँ-बाप ने बच्चों को सुविधा भर दे दी कि जितना पढ़ना है पढ़ लो, जो
करना है अपने आप करो। ये तो इक्कीसवीं सदी का ज़माना है, ट्यूशन और कोचिंग का
ज़माना। ससुर बहुत ही कंपीटिशनवा हो गया है। अब तो माँ-बाप बच्चों को पढ़ाते ही
हैं, ट्यूशन और कोचिंग भी करवाते हैं। ऐसे में स्कूल के पास समय ही कहाँ बचता है कि
वह पढ़ाई पर समय नष्ट करे। वैसे भी आजकल, पढ़ोगे तो बनोगे नवाब वाला फार्मूला फेल
हो गया है, आज तो खेलने-कूदने वाले, चाहे वे राजनीति से लेकर धर्म तक, कोई भी खेल
खेलें, नवाब ही नवाब हैं।''
''राधेलाल जी, आप तो बहुत समझदार हो गए हो।''
यह सुनते ही वे ज़ोर से हँसे और बोले, ''यार तेरे जैसे पढ़े-लिखे जब हम लोगों को जी
कहते हैं तो सारे शरीर में अजब-सी गुदगुदी होने लगती है। तब साली पैसे की ताक़त पता
चलती है। पैसा हो तो शरीर के किसी भी हिस्से में गुदगुदी करवा लो। तू तो कबाड़ी का
काम करने वाले हरिप्रसाद को जानता है। साले ने कबाड़ी के काम में ही पैसा खींच लिया
है। उसे हँसी-मज़ाक की कविता सुनकर बहुत गुदगुदी होती है। जब मन करता है, लाख
डेढ़-लाख खरच करता है और हँसी-मज़ाक के कवियों को बुलवा लेता है। छक के दारू पिलाता
है। सब कवि उसकी इज़्ज़त करते हैं। उसकी देखा-देखी मैंनें भी सोचा कि हम भी कुछ
पढ़े-लिखों का काम कर लें। तू तो अपना यार रहा है। चल हम तेरे लिए भी लिए एक बढ़िया
कॉलेज खुलवा देते हैं जिसमें हम अलग तरह की पढ़ाई करवाएंगे।''
''अलग तरह की पढ़ाई, ये पढ़ाई कैसी होगी?''
''प्यारे तू तो जानता ही है हमारे देश में प्रजातंत्र है। अब इस तंत्र को चलाने के
लिए कुछ मंत्र होते है, हम उन मंत्रों की शिक्षा देंगें।''
''मैं समझा नहीं।''
राधेलाल जी हँसते हुए बोंले, ''तुम पढ़े-लिखों में ये ही दिक्कत है, बात को ज़रा
देर से समझते हो और जब तक समझते हो दूसरा मैदान मार चुका होता है। तू तो अपना यार
है, चल तुझे समझा ही देता हूँ।
हमारे-तुम्हारे ज़माने में, राम घर जाता था, पुस्तक लाता था, राम पढ़ता था और अच्छा
बच्चा कहलाता था। आज अच्छा बच्चा बनने के लिए पुस्तक पढ़ना आवश्यक नहीं है। आज कल
का पाठ तो है -- राम, पढ़ मत, मत पढ़।''
मैं वंदना करते भक्त-सा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, ''राधेलाल जी, मैं चुनाव
में मतदाता-सा भकुवा गया हूँ। अपने इस सूत्र की व्याख्या करें -- राम, पढ़ मत, मत
पढ़। आप राम को दो-दो बार मत पढ़ने को क्यों कह रहे हो, क्या वह बहुत नालायक है?''
''नहीं रे। सीधी-सी बात कही गई है कि हे राम तुझे यदि पढ़ना है तो मत को पढ़, वरना
मत पढ़।''
''देख, हमारे देश में चुनाव, रैली, आंदोलन, भूख हड़ताल, रथ यात्राओं आदि सारे साल ही
चलती रहती हैं। ये क्यों चलती हैं, क्यों कि हमारे देश में प्रजातंत्र है।
प्रजातंत्र में चुनाव होते हैं और मतदाता अपना मत देता है। जिसने मतदाता के मत को
पढ़ लिया वह ही देश का कर्णधार बनता है और मालामाल हो जाता है। पढ़ा लिखा जब
किताबों में सर खपा रहा होता है तब देश का कर्णधार स्टूडेंट यूनियन में मत की महिमा
को पढ़ रहा होता है। जो मत की महिमा को जान जाता है, वह ही देश सँभालने की नौटंकी
कर पाता है।
देश में प्रजातंत्र दिखाई देता रहे, इसके लिए बसें जलाने, पत्थर मारने, बूथ लूटने
आदि के लिए कितने साहसी लोगों की आवश्यकता पड़ती है। आजकल तो हर जगह प्रोफेशनल
लोगों की माँग है। हम एक ऐसा कॉलेज शुरू करते हैं जिसमें पत्थर मारो, तोड़-फोड़
करो, कल बस जलाओ विज्ञान, चापलूसी कला, सरकार गिराओ। तकनीक आदि की शिक्षा देंगें।
प्यारे एक बार यह कॉलेज चल गया तो सोने चाँदी के साथ-साथ डॉलर भी बरसेंगे और हो
सकता है राज्यसभा की सदस्यता भी मिल जाए।''
''और देश का क्या होगा?''
''जो अब हो रहा है। देश की चिंता तू मत कर। देखता नहीं है देश की चिंता करने वाले
कैसे दुबले होते जा रहे हैं और देश जिनकी चिंता करता है वे कैसे मुटियाए जा रहे
हैं। देश की ज़्यादा चिंता करेगा तो बहुत हुआ सोने का एक आधा मैडल मिल जाएगा पर जिस
दिन तू देश से अपनी चिंता करवाने लगा उस दिन सैंकड़ों सोने के मैडल बाँटने लगेगा
प्यारे। अगर इस ज़िंदगी में कुछ बनना है तो देश की चिंता करना छोड़ दे और कुछ ऐसा
कर की देश तेरी चिंता करने लगे। अब तो तू मैदान में कूद जा।''
ये कहकर राधेलाल जी ने मुझे ऐसे बाजू से पकड़ लिया कि जैसे मैदान में कूदने के लिए
धक्का देने वाले हों।
मैंनें कहा, ''सोचता हूँ राधेलाल, तेरी बात पर सोचता हूँ।''
''सोच प्यारे सोच, तुझे तो सरस्वती माता का श्राप है कि तू ज़िंदगी भर सोचता ही
रहे। मैं तो चला। तेरी और संगत में रहा तो मुझे भी यह इंफैक्शन हो जाएगा। आज ही
तूने इतनी बातें सुचवा दी हैं कि माई हैड इज इटिंग सर्कल एंड सर्कल। आज तो तीन चार
गोलियाँ सरदर्द की खानी पड़ेंगी।''
यह कह कर राधेलाल जी चले गए और मैं फिर सोचने लगा।
9 जून 2006
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