ईमानदारी की तरह राजनीति में मूँछों का भी महत्व घटता जा रहा है। यहाँ तक कि
बालीवुड से राजनीति की तरफ़ पलायन करने वाले अभिनेता भी मूँछ विहीन हैं। मुझे नहीं
मालूम की ईमानदारी व मूँछों के बीच कोई रिश्ता है या नहीं, मगर दोनों का साथ-साथ
महत्वहीन होना पारस्परिक रिश्तों की तरफ़ इशारा अवश्य करता है। हमारी चिंता व चिंतन
का विषय यहाँ ईमानदारी नहीं केवल मूँछें हैं, क्यों कि संवेदनशील दो मसले एक साथ
उठाना हमारी कूवत से बाहर की बात है। आप यदि पसंद करें और आपके स्वभाव के अनुकूल हो
तो मूँछों पर किए गए हमारे शोध से प्राप्त निष्कर्षों को आप ईमानदारी की दुर्गति पर
भी लागू कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हम आपको मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं।
ऐसा नहीं है कि राजनीति से मूँछें डॉयनासोर अथवा गिद्ध गति को प्राप्त हो चुकी हैं।
थोड़ी-बहुत मूँछें हैं, मगर उनमें से अधिकांश को मूँछें नहीं अपितु मूँछों के अवशेष
ही कहना ज़्यादा उचित होगा। ऐसी मूँछों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर नहीं है। उन्हें
दलित स्तर की मूँछें ही कहना ज़्यादा उचित होगा। भेड़ों के झुँड में ऊँट की तरह
यदाकदा कुछ उच्चवर्गीय मूँछें भी दलित मूँछों की राजनीति करती दिखलाई पड़ जाती हैं,
मगर उनका दायरा भी सीमित ही है और वंशानुगत गुण ताव उन्हें कभी-कभार ही आता है। कुल
मिलाकर यह कहना अनुचित न होगा कि राजनीति में मूँछें अल्पसंख्यक होती जा रही हैं।
ऐसा क्यों? ठहरे पानी में जलकुंभी की तरह यह प्रश्न एक अर्से से हमारी बुद्धि की
पोखर पर काबिज़ है। उसे हम जितना हल करने का प्रयास करते हैं, जलकुंभी में गधे की
तरह उतना ही हम उसमें फँसते जा रहे हैं। प्रश्न हल होने का नाम नहीं ले रहा है और
हम हल करने की ज़ि नहीं छोड़ पा रहे हैं, अत: मूँछों से जुड़ा यह प्रश्न हमारे लिए
'मूँछ का सवाल' बन गया है।
फितूरी यह सवाल सुन हमारे खासुल-ख़ास कुछ मित्रों ने नेक सलाह दी, 'भइया राजनीति अब
मूँछों की लड़ाई नहीं रह गई है। स्थायित्व शब्द राजनीति में अर्थहीन हो गया है,
इसलिए स्थाई दुश्मनी और दोस्ती का राजनीति में कोई अर्थ नहीं है, फिर मूँछों का
औचित्य क्या? चेहरे पर क्यों फिज़ूल ही में खर-पतवार उगाए जाएँ?'
नैतिक घास से अपना भरण-पोषण करनेवाला दूसरे मित्र ने हमें समझाया और सलाह भी दी,
'सुनो, भइया, मूँछ की प्रासंगिकता है वहाँ आदर्श-सिद्धांत है जहाँ। आदर्श-सिद्धांत
जब राजनीति की राह में बाधक हैं तो फिर मूँछों का क्या अर्थ? अत: श्रीमान
मुन्नालाल, हमारी सलाह मान मूँछों से जुड़े इस प्रश्न को मूँछों का सवाल न बना।
मूँछ मुंडा और किसी दल में शामिल हो जा। चुनाव का वक्त है, राजनीति के
इंफ्रास्ट्रक्चर बांड की बिक्री खुली है।'
'विनाश काले विपरीत बुद्धि' किसी ने सही कहा है कि
जब दुर्दिन आते हैं तो अच्छी-ख़ासी बुद्धि को भी लकवा मार जाता है और नेक सलाह में
भी उसे दुर्भावना की बदबू आती है। कहा यह भी गया है, जाको प्रभु दारुण दुख देहीं, ता की मति पहले हरि
ले हीं।' हमारे साथ भी यही हुआ, हमारी बुद्धि को लकवा मार गया था। मित्रों की सलाह
ने हमें प्रभावित नहीं किया। वरन हम भी आज कहीं एमपी-सैंपी होते, बस मूँछें ही तो
मुंडानी पड़ती। ख़ैर मित्रों की सलाह दरकिनार कर हम अपने चिंतन में डूबे रहे और जब
चिंतन धारा से बाहर निकल कर आए, भीगे कपड़े निचोड़े तो इस नतीजे पर पहुँचे कि
राजनीति में मूँछों के अल्पसंख्यक होने का एक कारण पूँछ का विकसित होना है, क्यों कि
राजनीति में पूँछ वालों की पूछ है। अत: मूँछें साफ़ होती गईं और पूँछ लंबी होती चली
गई। मूँछों की ऐसी दुर्गति होने या कहिए अल्पसंख्यक करने में उसके स्वकर्मों
ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दरअसल मूँछ प्रगति में बाधक है। प्रगति के लिए
किसी की नाक का बाल बनना एक अनिवार्य शर्त है और नाक का बाल बनने में पुलिस बेरीकेट
की तरह मूँछ सदैव आड़े आ जाती है। मूँछें किसी भी व्यक्ति को इंसेल्टप्रूफ़ होने से
रोकती हैं। जबकि नेता को इंसेल्टप्रूफ़ होना चाहिए और मूँछें इज़्ज़त का प्रतीक हैं
और इज़्ज़त प्रगति में बाधक है। अत: प्रगति पथ पर आरूढ़ रहने के लिए मूँछ मुंडाना
ही श्रेयस्कर है। समय और परिस्थितियों के अनुरूप मूँछें ऊँची-नीची कर नेता यदि
प्रगति कर भी ले तो मलाई चाटने के वक्त मूँछें आड़े आ जाती हैं और आधी मलाई मूँछों
पर चिपक कर रह जाती है। मलाई भी पूरी हाथ नहीं लगती और जग हँसाई मुफ़्त में हो जाती
है। अस्तित्व बरकरार रखने के लिए मूँछें नहीं, मलाई आवश्यक है।
देवता भी खूब मलाई मारते थे, अत: मूँछ नहीं रखते थे। आधुनिक देवता भी उसी देवत्व
परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। इस प्रकार मूँछ अल्पसंख्यक व पूँछ बहुसंख्यक होती जा
रही है। आप चाहें तो राजनीति में ईमानदारी विलुप्त होने के पीछे भी मेरे इन्हीं शोध
निष्कर्ष को लागू कर सकते हैं।
9 अगस्त 2006
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