कल रात देर तक जगा। फिर सो नहीं पाया। घर के बाहर पक्षी
आवाज़ कर रहे थे। कोलाहल से नींद टूट गई। इस कोलाहल को पता नहीं क्यों कविगण कलरव
कहते रहे? बाहर निकल कर मैंने देखा तो मोर हल्ला मचा रहे थे। मैंने कहा - तुम क्यों
चिल्ला रहे हो? सोने क्यों नहीं देते। एक स्मार्ट से दिखने वाले मोर ने इठलाते हुए
कहा – साहब, अब तो भोर हो गई। उठ जाइए। रात तो कब की बीत गई। आप उठते क्यों नहीं?
मैंने उसे 'दिस इज़ नन आफ़ योर बिज़नेस' कहकर हड़काने के लिए मुँह खोला कि मेरे मुँह से
सवाल चू पड़ा - पर बाँग देकर जगाने का काम तो मुर्गे करते थे। तुम लोग क्यों जुटे हो
इस काम में? वह बोला – साहब यह काम मुर्गों ने– मोरों को आउटसोर्स कर दिया है। वे
खुद तो सो रहे होंगे कहीं। हम जुटे हैं पेट की ख़ातिर।
मैं वापस लौट रहा था कि एक मोर गर्दन उचकाते हुए बोला – साहब, आप तो मुझे
पहचानते होंगे। मैं वेब पत्रिकाओं की छत पर रहता हूँ। मेरे संपादक ने मुझे आपका लेख
लेने के लिए भेजा है। अगले अंक में छापेंगे। मैं बोला – क्या हाल है तुम्हारे
संपादक के, मूड ठीक है? वह बोला – हाँ, हवाखोरी के बाद कुछ ठीक लग रहे हैं। देखो कब
तक ठीक रहते हैं। मैंने कहा – ठीक है, तुम चलो मैं लेख भेजता हूँ।
सवेरे आफ़िस पहुँचा तो लिखने का दबाव हावी था। एक अप्रैल आ गया था पर वहाँ
दिगदिगंत में 31 मार्च हावी था। बिल, रजिस्टर, चिठ्ठी–पत्री चतुर्दिक 31 मार्च का
साम्राज्य पसरा था। सूरज 1 अप्रैल का साइनबोर्ड लटकाए था पर फ़ाइलों पर मार्च का
कब्ज़ा था। एक दिन – समय दो तारीखें चोर–सिपाही की तरह गलबहिंयाँ डाले घूम रहीं थीं।
दुनिया का तो पता नहीं पर अपने देश में 31 मार्च का दिन
सबसे लंबा होता है। हफ़्तों पसरा रहता है। कहीं–कहीं तो महीनों, सालों तक। बालि को वरदान था कि उसके
शत्रु की आधी शक्ति उसे मिल जाती थी। राम को उसे छिपकर मारना पड़ा। यहाँ देख रहा हूँ
कि 31 मार्च का दिन अप्रैल के दिनों को पनपने ही नहीं देता। अप्रैल के दिन आते हैं।
अपना सर काटते हैं। मार्च के चरणों में चढ़ाते हैं, चले जाते हैं।
31 मार्च की ताकत का कारण तलाशने पर पता चलता है कि यह वित्तीय वर्ष का अंतिम
दिन होता है। आज खर्चने का आख़िरी दिन होता है सरकारी महकमों में। जो आज खर्चा नहीं
होता वह हाथ से निकल जाता है। 'लैप्स' हो जाता है। सारी कोशिशें की जाती हैं कि
पैसा इसी साल हिल्ले लग जाए। एक पेन ख़रीदने की स्वीकृति देने में नखरे करने वाला
साहब छापाखाना लगवाने का आदेश बिना ज़रूरत दे देता है। आज अभी इसी वक्त वाले अंदाज़
में। सब कुछ 31 मार्च को होना है।
इस दिन सरकारी कर्मचारियों की कार्यक्षमता चरम पर होती है। 11.30 पर मिली ग्रांट
11.35 तक ठिकाने लग जाती है। 'कंज़्यूम' हो जाती है। अगर 31 मार्च की कार्यक्षमता के
अंश के टुकड़े–टुकड़े करके साल के बाकी दिनों में मिला दिए जाएँ तो देश पलक झपकते
चमकने लगे। देश 2020 के बजाय अगले साल ही विकसित हो जाते। 31 मार्च का 'फ्लेवर' ही
कुछ ऐसा है।
मैं और तमाम बातें कहता पर हमारे दोस्त ने टोंक दिया। ये क्या मज़ाक है। 'मूर्ख
दिवस' पर ज्ञान की बातें कर रहे हो। अजीब मूर्खता है। मैंने कहा – क्या यह साबित
नहीं करता कि 31 मार्च का समय बीत गया। एक अप्रैल आ गया है। दोस्त ने कहा – करो कोई
मूर्खतापूर्ण हरकत। हम बोले – लिख रहे हैं यह कोई कम मूर्खतापूर्ण काम है। इससे बड़ी
मूर्खता भी की जा सकती है क्या कोई? दोस्त उवाचा – यह मूर्खता तो तुम बहुत दिन से
कर रहे हो। कुछ नया करो। अपने से ऊपर उठो। देश, काल, समाज की बात करो। मार्च–अप्रैल
को नादान ब्लागरों की तरह मत लड़वाओ।
हम फ़ौरन गंभीर हो गए। अपने गुरुकुल गए – इलाहाबाद। अकबर इलाहाबादी से कहा –
बुज़ुर्गवार कोई ऐसा शेर बताएँ जो आज के हाल का बयान करता हो। बुज़ुर्गवार ने गला
साफ़ करके फ़रमाया –
कौम के डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ।
जब देश के कर्णधार आराम के मूड़ में हों तो उनका अनुसरण न करना बेअदबी है। कम से
कम मैं ऐसा नहीं कर सकता।
1 अप्रैल 2006 |