अपराधियों का पता लगाना, उन्हें पकड़ना और दंड दिलाना पुलिस के लिए उतना ही दुरुह
कार्य है जितना अंधे द्वारा बटेर पकड़ना और यदि 'अंधा' आलस्यवश, लालचवश अथवा दबाववश
'बटेर' पकड़ना ही न चाहे, तो 'बटेर' की स्वच्छंद उड़ान में कौन ख़लल डाल सकता है।
परंतु जब 'बटेर' की स्वच्छंदता और 'अंधे' की असफलताओं के किस्से अख़बारों के
मुखपृष्ठ पर सुर्खियों में छपने लगते हैं तो पुलिस को जनता को चुप कराने के लिए कुछ
न कुछ कारगुज़ारी तो करनी ही पड़ती है। इनमें सबसे अधिक पुलिसप्रिय कारगुज़ारी है
'अपराध विरोधी अभियान'।
अंग्रेज़ी ज़माने में भी पुलिस इस अमोघ अस्त्र का प्रयोग करती थी और इसे
'ऐंटी-क्राइम-ड्राइव' कहती थी। इस ऐंटी-क्राइम-ड्राइव में जो थानेदार जितने
अधिक रिक्शेवालों, एवं लावारिस, बेघरबार और बेसहारा लोगों को ''दफ़ा 109'' के अंतर्गत,
अथवा उनके पास से एक अद्धा कच्ची शराब या एक टूटा-फटा कट्टा बरामद होने का आरोप
लगाकर बंद कर देता था, उसको उतना बड़ा इनाम मिलता था। हिंदी का ज़माना आने पर इसे
'अपराध विरोधी अभियान' कहा जाने लगा, परंतु पैमाना को पेग कह देने से मय की तासीर
थोड़े ही बदल जाती है। इस अभियान के दौरान कोई-कोई थानेदार तो इनाम पाने के लालच
में अपने इलाके को उसी प्रकार रिक्शाविहीन कर देता है जैसे परशुराम अपने जुनून में
बारंबार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करते रहे थे।
अब स्पेशलाइज़ेशन का ज़माना आ गया है अत: अब
अलग-अलग प्रकार के अपराधों की रोकथाम की कारगुज़ारी दिखाने के लिए स्पेशलाइज़्ड नामों के अभियान चलाए जाने लगे हैं। आजकल
भाषा भी उस तरह रीमिक्स हो गई है जैसे राजनेता और माफ़िया रीमिक्स हो गए हैं अत:
पुलिस ने अब अभियान को आपरेशन नाम दे दिया है। मेरठ पुलिस ने इन्हीं आपरेशनों में
से एक 'आपरेशन मजनू' चलाया था, जिसका घोषित उद्देश्य था शोहदों द्वारा लड़कियों की
छेड़छाड़ रोकना।
मजनू लैला के प्यार में दीवाने एक व्यक्ति का नाम था। अत: अपने मूलरूप में मजनू
एक संज्ञा है परंतु कालांतर में हर दीन-दुनिया से बेख़बर दुखी चेहरे वाले पुरुष
से लोग कहने लगे 'यार क्या मजनू बने घूम रहे हो' और यह एक सर्वनाम बन गया।
पुलिस की भाषा रफ़ और टफ़ होती है और आवश्यक नहीं कि उनका हिंदी भाषा का ज्ञान
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान करने लायक हो, अत: मेरठ की पुलिस ने मजनू का अर्थ
लगाया 'लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले एवं खुलेआम इश्क लड़ाने वाले' और ऐसे
'नामाकूल' तोगों के विरुद्ध 'आपरेशन मजनू' चला दिया। पुलिस से सेवानिवृति के उपरांत चूँकि
मैंने साहित्यकार होने का भ्रम पाल लिया है, अत: मुझे यह नामकरण दुनिया के
सर्वश्रेष्ठ आशिकों में रुतबा रखने वाले मजनू की सरेआम तौहीन लगता है, और यदि
कोई वकील मजनू की ओर से मेरठ की पुलिस के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा चलाना चाहे,
तो मैं उसका खर्चा-पानी उठाने को सहर्ष तैयार हूँ।
ख़ैर अब असली मुद्दे पर आया जाए कि हुआ क्या?
जवान होती लड़की के बाप को ए. के. 47 देखकर उतना डर नहीं लगता है जितना गली-टोलों
में मटरगश्ती करने वाले अथवा स्कूल-कालेजों में नाम लिखाकर छात्राओं पर फ़ब्तियाँ
कसने वाले शोहदों को देखकर लगता है। लड़कियों के जवान होते-होते अक्सर उनके बाप की
आँखों में एक दूरबीन फ़िट हो जाती है जिसका लेंस किसी भी जवान लड़के के उनकी कन्या
के आस-पास एक-आध किलोमीटर के दायरे में आने पर अपने आप खुल जाता है। अत: जब ऐसे
बापों को पता चला कि मेरठ पुलिस ने 'आपरेशन मजनू' चला दिया है तो उनकी बाँछें खिल
गईं- कइयों ने इस अभियान को इस शताब्दी का सबसे क्रांतिकारी 'आइडिया' बताकर पुलिस
अधिकारियों को बधाई भी दी। कुछ ने पुलिस का मुखबिर बनकर उन गलियों, स्कूल, कालेजों
आदि के नाम भी पुलिस वालों को बताए, जहाँ मजनू प्राय: लैलाओं के इंतज़ार में एक
टाँग खड़े हुए देखे जाते थे। यह सर्वविदित है कि अब पुराने ज़माने की तरह कामदेव को
सदैव छुपकर रति पर वाण नहीं चलाने पड़ते हैं वरन किन्हीं प्रकरणों में पाश्चात्य
सभ्यता में रंगी-पगी रति स्वयं भी वैलेंटाइन बनने को आतुर रहतीं हैं, अत: मेरठ के
पार्कों में झाड़ियों के पीछे अक्सर कामरस में पगे जोड़े देखे जाते हैं। ऐसी लैलाओं के बापों को 'आपरेशन मजनू'
चलाए जाने की बात जानकर विशेष प्रसन्नता हुई, क्यों कि इन बापों में न तो स्वयं अपनी
'माडर्न' कन्या को मजनू से मिलने से रोकने
की हिम्मत थी और न मजनू की ठुकाई कर कन्या का कोपभाजन बनने की। उन्होंने सोचा कि अब
पुलिसवाले मजनुओं को पकड़कर उनका ऐसा भुरकुस बना देंगे कि वे लैला की परछाईं
से दूर भागने लगेंगे। अब उन्हें न तो लैला को समझाना पड़ेगा और न मजनू पर निगाह
रखनी पड़ेगी - 'साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।'
दुहिता-दुखित इन बिचारे बापों ने मॉडर्न युग में
पुलिस में हुए एक डेवलपमेंट की और ध्यान ही नहीं दिया कि अब पुलिस में पुरुषों के
अतिरिक्त स्त्रियाँ भी भरती होने
लगीं हैं और वे अपनी कारगुज़ारियों से पुरुष पुलिसवालों को चारों खाने चित किए
हुए हैं। यह सोचकर कि 'आपरेशन मजनू' से नाराज़ कोई लड़की पुरुष-पुलिस के
विरुद्ध छेड़खानी की शिकायत न कर दे, पुलिस अधिकारियों ने पुरुष-पुलिस के साथ
महिला-पुलिस को भी 'आपरेशन मजनू' की डयूटी अंजाम देने हेतु लगा दिया। वे कोई
मनोवैज्ञानिक तो थे नहीं जो यह अनुमान लगा लेते कि यदि पुरुष-पुलिस लैलाओं को न
छेड़ पाने की अपनी अतृप्त कुंठाओं के वशीभूत होकर मजनुओं की धुनाई कर सकती है, तो
महिला-पुलिस उन्हीं कुंठाओं के वशीभूत होकर लैलाओं का झोंटा खींच सकती है।
सो वही हुआ जो फ्रायड द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार होना चाहिए था। महिला
दरोगा ने पार्क में जैसे ही किसी 'लैला' को 'मजनू' से चोंच लड़ाते देखा, ईर्ष्या
के वशीभूत होकर अपना आपा खो बैठा, और लैला को झोंटा पकड़कर झपड़ियाना प्रारंभ कर
दिया- अब लैला जितना हाथ पैर जोड़ती, उतना ही अधिक पिटती क्यों कि दरोगा को लगता कि
'यह मेरे से इतनी कमज़ोर होते हुए भी कैसे मजनू के संग मस्ती ले रही है, जब कि
मैं इस सुख से चिरवंचित हूँ।' इस दुनिया में हर व्यक्ति को- चाहे वह पुरुष हो अथवा स्त्री- अपनी मर्दानगी प्रदर्शित करने की अदम्य चाह रहती है, अत: पुलिस वाली
ने अपनी इस बहादुरी का ज्ञान जन-जन को कराने हेतु वहाँ अख़बार वालों एवं टी. वी.
कैमरा वालों को भी बुला लिया था। मीडिया वालों के लिए तो यह नायाब मौका था-
उन्होंने ऐसा कोई ऐंगिल नहीं छोड़ा जिसमें कुंठित-लैला द्वारा तृप्त-लैला की धुनाई
का दृश्य कैद न किया हो। फिर मिनटों में सभी चैनलों में होड़ लग गई कि कौन सबसे
पहले एवं सबसे अधिक बार लैला की पिटाई को टी. वी. पर दिखा सके। सामान्य भारतीय के
कामकुंठित नेत्रों के लिए सीन इतना चित्ताकर्षक था कि अधिकांश सरकारी व ग़ैर-सरकारी
महिला संगठनों के पदाधिकारियों एवं माननीयों ने उसे बार-बार देखा। महिला संगठन एवं
विपक्ष, जो किसी उछाले जा सकने वाले प्रकरण की प्रतीक्षा में बकुल-दृष्टि लगाए बैठे
रहते हैं, को कुछ दिन तक प्रचार-प्रसार का भरपूर मसाला मिल गया। शासन पर पुलिस की
निरंकुशता के आरोप लगाए जाने लगे और फिर वही हुआ, जो ऐसी स्थिति से निबटने का शासन
के पास रामबाण इलाज है- कुछ समय के लिए कतिपस पुलिसजनों का निलंबन।
अब मेरठ में जवान होती लड़कियों के बापों की नींद
पहले से अधिक हराम हो गई है- पहले वे समझते थे कि यदि वे अपने दुहिताओं को स्वयं न
रोक पाए एवं उनके आशिकों को भी न पिटवा पाए, तो कम से कम पुलिस से शिकायत कर लैला
को मजनू से बचा सकते है। इस कांड
में पुलिस वालों के निलंबन के बाद पुलिस वालों ने ऐसे प्रकरणों में हाथ डालने से सौ
फ़ीसदी परहेज़ कर रखा है।
मैं पुराना पुलिस वाला हूँ और मुझे 'गुनाह-बेलज़्जत' निलंबित होने वाले पुलिस वालों
से पूरी हमदर्दी है- बस एक ही सवाल मेरे मस्तिष्क में बार-बार केंचुए की तरह
कुलबुलाने लगता है- 'जब आपरेशन मजनू के खिलाफ़ था तो आफ़त लैला पर क्यों आई?'
9 अप्रैल 2006
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