मैं आमतौर पर खुशमिज़ाज़ इंसान के रूप में बदनाम
हूँ। किसी किसिम की चिरकुट–चिंता से मुक्त। पर कभी–कभी कुछ–कुछ होने लगता है। क्या
होता है बताना मुश्किल है। पर 'ट्राई' मारने में क्या हर्ज़?
अफ़सोस मुझे तब होता है जब मैं तमाम स्वनामधन्य
साथियों की कविताएँ देखता हूँ। मैं शर्म महसूस करता कि हाय हम काहे न लिख पाए।
कविता–कानन में हम क्यों न टहल पाए? इतनी धाँसू कविताएँ देखता हूँ कि शर्म से ज़मीन
में धँस जाता हूँ। कोशिश करता हूँ कि मैं भी लिखूँ पर वे प्रयास इतने बचकाने लगते
हैं कि मैं सोचता हूँ कि इससे तो हम बिना कविता के ही अच्छे।
एक बार परसाईजी के पास एक उम्रदराज़ युवा कवि आए।
अपनी कविताएँ दिखाईं। कहा – मैं जीवन में सब कुछ कर चुका हूँ। अब साहित्य सेवा करना
चाहता हूँ। ये देखें मैंने कुछ लिखा है। बताएँ मैं कैसे साहित्य सेवा कर सकता हूँ?
परसाईजी ने रचनाएँ देखीं और कहा– यदि आप सचमुच साहित्य सेवा करना चाहते हैं तो
अनुरोध है कि आप इन कविताओं को छपाने की इच्छा का त्याग कर दें तथा संभव हो लिखना
भी छोड़ दें।
यह बात तो मज़ाक में कही गई होगी पर मैं जब भी कभी
लिखता हूँ– ख़ासकर कविता, तो लगता है कि शायद यह मेरे जैसों के लिए ही कही गई होगी।
बहरहाल मैं जब भी कोई कविता देखता हूँ किसी ब्लॉग में तो मन बहुत बेचैन होता है।
हूक-सी उठती है मन में– काश हम भी लिख पाते कुछ कविता–सविता, पर उस हूक को हम
समझदारी से ज़बरियन दबा देते हैं। तब हमें अहसास होता है कि विद्रोह कैसे कुचले जाते
होंगे।
सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता। आजकल बच्चे बड़े
समझदार हो गए हैं। मेरा बच्चा रोज़ देखता कि नई कविता पढ़ने के बाद मेरा मुँह झोले की
तरह कैसे लटक जाता है। एक दिन उसने मुझे उदास होते रंगे हाथों पकड़ लिया। पूछा–
"पापा, आप उदास क्यों हैं? क्या कोई कविता पढ़ी?"
हमें लगा कि जिस बात को हम खुद से छिपाते रहे उसे मेरा बच्चा बता रहा है। हमने किसी
घपले का खुलासा होते ही उसे दबाने के प्रयासों की तत्परता से कहा, "नहीं बेटा, ऐसी
कोई बात नहीं है।"
पर वह माना नहीं। बोला, "आप छुपा रहें हैं। पर मैं जानता हूँ कि इसके पीछे कविता का
दुख है।"
मैं बोला, "नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।"
पर वह माना नहीं तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी।
मैंने अपने जुर्म का इकबाल कर लिया। कहा– "हाँ! मैं कविता के कारण दुखी हूँ।"
फिर तो वह मौज लेने लगा। बोला, "यह आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। मैंने तो पढ़ा है कि
कविता दुख से उपजती है। पहली कविता का जन्म ही आह से हुआ था। कहा गया है,
''वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान,
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।"
बहरहाल हमें हमारे बच्चे ने आगे समझाया कि अगर
आपको इस बात से दुख होता है कि आप कविता लिख नहीं पाते तो फटाक से शुरू कर दीजिए
लिखना। कुछ दिन में हाथ रवाँ हो जाएगा तो धड़क्के से लिखने लगेंगे फिर आपको रोकना
पड़ेगा। मैंने कहा, नहीं यार नहीं होता अपुन से।"
पर वह तुल गया समझाने पर। बोला, "पहले जब आपने
ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो कहाँ लिख पाते थे? धीरे-धीरे सीखे न। वैसा ही यह भी
होगा।"
मेरी हिचक देख के वह बोला, "अच्छा लाइए, मैं बताता हूँ कैसे लिखते हैं। दिखाइए वे
ब्लाग जिनकी कविताएँ पढ़कर मन बेचैन हो जाता है।"
मैंने सारे कविता–रस पगे ब्लाग उसे दिखाए। एक जगह वह चौंका, "पापा, यह क्या यहाँ
पूँछ ऊपर है, मूँछ नीचे?"
मेरे मुँह से निकल गया, "हर आदमी अपनी सबसे खास चीज़ को सबसे ऊपर रखता है। यहाँ क्या
बुरा है?"
"वाह पापा, आप भी हमेशा अपनी अकल लगाते हो", कहते हुए सारे कविता से लदे–फदे ब्लाग
सरसरी तौर पर देख गया। फिर बोला, आप इन कविताओं की नकल करके कुछ लिखिए। पुत्र की
सलाह मानने पर मजबूर होना पड़ा मुझे। मैंने जो लिखा वह नीचे दिया जा रहा है। अच्छा
लगे तो मेरे प्रयास की तारीफ़ करिएगा। बुरा लगे तो उनको कोसिएगा जिनकी कविता की
देखा–देखी हमने यहाँ शब्दों की गठबंधन सरकार बनाई।
मैं
हवाई जहाज़ में
खाने के इंतज़ार में हूँ
एअर होस्टेस आती है
पूछती है -क्या लेंगे आप?
मैं कहता हूँ
मेरी माँ के हाथ की बनी
बुकनू ले आओ।
वह चौंककर कहती है-
यहाँ हवाई जहाज़ में बुकनू कहाँ?
यहाँ तो इंपोर्टेड नमक मिलता है।
मैं कैसे बताऊँ– कितना ज़रूरी है मेरे लिए
इंपोर्टेड नमक के मुकाबले
भोजन में माँ के हाथ की बुकनू होना।
लड़के ने चार–पाँच बार वाह–वाह किया फिर बोला अब एक
इंकलाबी ग़ज़ल लिख मारिए। हम बोले -कहाँ हम, कहाँ इंकलाब! पर वह ज़िद पर अड़ा रहा। मुझे
लिखना पड़ा-
या खुदा ये कैसे–कैसे मंज़र नज़र आने लगे,
जो रुकने को आए थे, उठ–उठ के जाने लगे।
बात तो साथ हर हाल में निभाने की हुई थी लेकिन
ये क्या हुआ कि ख़ास अपने आँखें चुराने लगे।
जिनके हाथों में था रहबरी का आलिम ख़िताब,
वे सरे राह रहजनों के साथ नज़र आने लगे।
देश की अब क्या सुनाएँ दास्ताँ ऐ मेरे दोस्त,
जो बहुत जागरूक थे वे भी तो जम्हुआने लगे।
यह इंकलाबी तेवर वाली ग़ज़ल हम पाँच मिनट में टाइप
करके हाँफने लगे तब तक लड़के ने वाह–वाह करके हमें चौंका दिया। वो तारीफ़ की कि हमें
मज़ा आने लगा। अब हम भी सोचने लगे कि एक प्रेम कविता पर भी ट्राई मारें नहीं तो पंकज
बोलेंगे -हमारे लिए कुछ नहीं लिखा। तो जो ट्राई मारा वह यह है:-
ये खिला हुआ चाँद कहाँ कुछ कहता है,
पर कुछ है यह जो मेरे मन में बहता है।
वैसे तो हमेशा ही हँसते रहते हैं हम,
अब कैसे कहूँ दिल कितना दुखता है।
फिर देखने का मन है तुमको लेकिन,
लंबा बहुत तुम्हारे घर का रस्ता है।
औरों के तो नखरे भी होंगे लेकिन,
ले लेना दिल मेरा ये सबसे सस्ता है।
लड़का बोला –थोड़ा और ज़रा लुटा–पिटा लिखो। मैं बोला
–क्या कारवाँ गुज़ार दूँ? नीरज की तरह लिखूँ। वह नीरज को जानता नहीं है फिर भी बोला
–तब क्या। बेवकूफ़ी करना है तो कायदे से करें। मैंने फिर अर्ज़ किया-
आँसू, जिल्लत, ग़म- न जाने क्या–क्या पी गए?
मज़ाक ही मज़ाक में हम ज़िंदगी जी गए।
सोचा था कभी सुकून से गुज़ारेंगे ज़िंदगी,
पर बेकरार, हड़बड़ी में ज़िंदगी जी गए।
ख़्वाब में हमनें तुमको था देखना शुरू किया,
क्या हो रहा गुरु, सुना और हम सिहर गए।
कैसे बताएँ थी ज़िंदगी कितनी कामयाब,
बेक़रार– बेखुदी में सब हिसाब भूल गए।
पाँच मिनट प्रति कविता की दर से चार कविता लिखने
के बाद हमने गरदन अकड़ाकर लड़के की तरफ़ देखा। सोचा अब यह और तारीफ़ करेगा। पर वह तारीफ़
छोड़कर चुनौती वाले अंदाज़ में बोला– कोई व्यंग्य कविता लिख के दिखाएँ। मैंने कहा
-कैसे लिखूँ। बोला -जैसे ये लिखी। मैंने चुनौती स्वीकार की। लिखा-
प्रेम विवाह करके
दंपति गति को प्राप्त पत्नी
बुढ़ापे में पति से बोली -
ये मुई जुड़वाँ लड़कियों की शादी कैसे होगी?
पति चिंता मुक्त होकर बोला,
अभी भी लड़के काफ़ी वेबकूफ़ हैं
जैसे तुमने भागकर शादी की थी
वैसे ये भी कर लेंगी
हमें इस चिंता से मुक्त कर देंगी।
मैंने कविता की खेती के कारण उपजे श्रम सीकर
सुखाते हुए अपने बेटे की तरफ़ देखा। वह मुस्कराता हुआ बोला, "पिकअप तो अच्छा है पर
अब मुझे डर लग रहा है कि कहीं लोग आपकी तुकबंदियों की तारीफ़ न करने लगें और आप
ग़लतफ़हमी के शिकार न हो जाएँ।"
24 फरवरी 2006 |