यह वह दौर था, जब आदमी और कुत्तों का फ़र्क
लगातार कम होता जा रहा था। कुत्तों का सम्मान बढ़ता जा रहा था और आदमी की मर्यादा
टूटती जा रही थी। कुत्ते पालने का चलन कोई मैंने शुरू नहीं किया था। बाप-दादा के
ज़माने से लोग कुत्ते पाल रहे थे। लेकिन अब कुत्ते पाल कर कुछ लोग रातों-रात अपनी
प्रतिष्ठा बढ़ा लेते थे। दरवाज़े पर कुत्ते भौंकते थे, तो समाज में उनका रुतबा बढ़
जाता था।
यह वह दौर था, जब मुझे संदेह होने लगता था कि
आदमी ने कुत्ता पाल रखा है या कुत्ते ने आदमी को पाल लिया है। लोग उसे सुबह-शाम
पार्क में घुमाने ले जाते थे। कुत्ता किलकारियाँ भरता, तो लोग ऐसे खुश होते, जैसे
अपना कोई बच्चा चहक रहा हो। कुत्ता कुलाँचे भरता, तो लोग उसके पीछे ऐसे भागते, जैसे
बॉस के पीछे चापलूस चपरासी भागता है। कुत्ते कार में अगली सीट पर सफ़र करते। कुत्ते
रातों में गद्दों पर सोते। लोग गोद में कुत्ता खिलाती स्त्रियों को हसरत भरी निगाह
से देखा करते।
फिर वह दौर भी आ गया जब लगने लगा कि कुत्ते
हमसे बेहतर हैं। बल्कि कुत्ते तो हम हैं। कुत्ते किसी 'एंगिल' से कुत्ते नहीं लगते
थे। कुत्तों के पिल्ले इतने 'क्यूट' होते थे कि 'ब्यूरोक्रैटों' की बेटियाँ उन्हें
गोद में भरकर बगल से गुज़रने वाले बच्चों को दुरदुरा देतीं। धनकुबेरों की
अर्द्धांगिनियाँ उनके मल-मूत्र खुद साफ़ कर देतीं और ख़ास तरह के साबुन से उन्हें
नहलाकर खुद ही कंघी भी कर देतीं। कुत्ते माँस खाते थे, कुत्ते दूध पीते थे- ये बात
तो पुरानी हो गई। अब बाज़ार में कुत्तों के लिए बिस्कुट से लेकर गर्भनिरोधक गोलियाँ
तक बिकने लगी थीं। जिन लोगों ने प्रेमचंद की कोई किताब न ख़रीदी, न पढ़ी थी, वो लोग
ख़रीदकर कुत्ता पोसने का साहित्य पढ़ रहे थे। इंटरनेट पर जाकर कुत्तों की देखभाल से
जुड़ी जानकारियाँ खंगाली जा रही थीं। कुत्तों की ऐसी-ऐसी नस्लें आ गई थीं जो पुरुषों
से ज़्यादा मर्दानगी वाली और स्त्रियों से ज़्यादा खूबसूरत दिखाई देती थीं।
बड़े-बड़े लोग कुत्ता पाल रहे थे। जिन लोगों से मिलने के लिए हमें 'अप्वाइंटमेंट'
लेना होता था, उनके पास कुत्तों के लिए भरपूर समय था, या यों कहें कि वो कुत्तों के
हिसाब से अपना समय तय करते थे।. . .तो ऐसे देशकाल वातावरण में मुझे अब कुत्ते जहाँ
कुत्ते नहीं लगने लगे, वहीं अपने भीतर कुत्तेपन का भाव घर करता चला गया। जब मैं
आदमी होने जैसा महसूस करता था, तब मैं आदमियों से ईर्ष्या करता था। अपने दोस्तों की
खुशी आत्मा में कील की तरह चुभती। लेकिन अब मुझे कुत्तों से ईर्ष्या हो रही थी,
इससे मेरा कुत्तापना पुष्ट हो गया।
बड़े-बड़े लोग कुत्ता पाल रहे थे, इसलिए मैंने
भी तय कर लिया कि अब एक कुत्ता पोस ही लूँगा। लेकिन मेरे भीतर असली अहसास यह था कि
इस दौर में अपना कुत्तापना छिपाने के लिए इस तरह के प्रयोग ज़रूरी हैं। आदमियों के
बीच तो कुत्ता बन ही चुका था, इसलिए अब कुत्तों के बीच ही थोड़ा आदमी होने का अभिमान
ज़िंदा रख लूँ। हालाँकि वह भी कई बार चकनाचूर होता लगा। क्यों कि भीतर यह महसूस हो
चुका था कि कुत्तों ने तो अपना कुत्तापना आज भी नहीं छोड़ा है, लेकिन आदमीयत बार-बार
खंडित हुई है। वो लाठी-भाले के समय में भी अजनबियों पर भौंकते थे, आज एके सैंतालीस
और छप्पन के समय में भी भौंकते हैं। उनके भौंकने के जज़्बे या साहस में कोई कमी नहीं
आई है। वो पहले भी जिसकी खाते थे, उसी के लिए भौंक बजाते थे और आज भी वफ़ादारी की
मिसाल कुत्तों से ही दी जाती है। लेकिन हम तो. . .संदिग्ध अजनबियों तो क्या,
'कन्फर्म' चोरों पर भी नहीं भौंक पाते। यही नहीं, जो भी बिस्कुट फेंक दे, उसी के
सामने लार टपकाने लगते हैं। ऐसे में मुझे यकीन हो गया कि ये अच्छे वाले कुत्ते हैं।
ख़ैर कुत्ता तो मैंने पाल लिया। अब समस्या आई
उसके नामकरण की। टॉमी और शेरू जैसे तमाम प्रचलित नामों से जूझते हुए मैं दो नामों
पर अटका- कुत्ता और आदमी। तमाम दोस्तों के बीच इसपर बाकायदा शास्त्रार्थ किया गया
कि कौन-सा नाम 'फाइनल' किया जाए। सबसे बड़ा सवाल यह था कि खुद कुत्तों से बदतर हाल
में होते हुए किसी को कुत्ता कहना कहाँ तक जायज़ है? साथ ही क्या अपनी बिरादरी के
लोगों से अदब से पेश नहीं आना चाहिए? यह भी सवाल उठा कि क्या अपने बीच कोई आदमी
नहीं रहेगा? ये दो-तीन सवाल ऐसे थे, जिनसे सारी दुविधा जाती रही और मैंने उसका नाम
'आदमी' रख दिया।
लेकिन कहते हैं 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि।'
मेरी मति मारी गई थी। उसका नामकरण 'आदमी' करके मैंने मुसीबत मोल ले ली। कुत्ता
मुझसे बुरी तरह नाराज़ हो गया है। भौं. . .भौं. . .भौं। भौं. . .भौं. . .भौं।
भौं. . .भौं. . .भौं। मेरे तीनों लोक, दसों दिशाओं और आठों यामों में अब यही
सुरलहरी गूँज रही है। मेरा जीना मुहाल हो गया है। कुत्ते ने मुझ पर मानहानि का
मुकदमा दायर करने की धमकी दी है। कहा है कि अब वो कुत्तों की अदालत बुलाकर मेरे
खिलाफ़ सुनवाई करवाएगा। मैंने बहुत सफ़ाई दी कि मेरी नीयत बुरी नहीं है और यह नाम
देकर मैंने उसे इज़्ज़त ही बख्शी है, लेकिन वह मेरी बात से सहमत नहीं है। आख़िर जब वह
अदालत बुलाने पर अड़ ही गया, तो मैंने उससे कहा कि मैं ये साबित करने को तैयार हूँ
कि मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है, मेरी सिर्फ़ इतनी शर्त है कि वह अदालत कुत्तों की
नहीं, आदमियों की होगी, क्यों कि मुझे कुत्तों की भाषा नहीं आती। लेकिन वह इस पर भी
तैयार नहीं है।
उसका तर्क यह है कि कुत्तों की भाषा आदमियों
की भाषा से कम पेचीदा और कम प्रपंचकारी है। उसका यह भी कहना है कि आदमियों की अदालत
में मेरी ही नस्ल के लोग बैठेंगे, जिन पर उसे भरोसा नहीं है। मुझे मालूम है कि
कुत्तों की अदालत में मेरे तर्क रत्ती भर नहीं टिकेंगे और रेत के महल की तरह
धराशायी हो जाएँगे। मुझे यह भी मालूम है कि अगर आदमियों की अदालत होती तो मैं
न्यायाधीश को ख़रीद सकता था, गवाहों को तोड़ सकता था, विरोधी पक्ष में फूट पैदा कर
सकता था, लेकिन कुत्तों की अदालत में ये सारे हथकंडे नहीं चलेंगे। उसमें दोषी पाए
जाते ही सारे कुत्ते एक साथ मुझ पर टूटेंगे और फिर मेरी वो गति होगी, जो आज तक किसी
कुत्ते की भी नहीं हुई होगी।
दोस्तो, अब आप ही बताएँ, क्या करूँ 'आदमी' नाम
वापस लेकर माफ़ी माँग लूँ?
24 मई 2006 |