जैसे
ही सितंबर का महीना आता है¸ हिंदी की याद में हर
हिंदुस्तान का दिल धड़कने लगता है। हम जो शुद्ध हिंदुस्तानी
ठहरे¸ हमारा जी और भी व्याकुल हो उठता है¸ सावन के महीने
में जिस तरह महिलाओं को पीहर की याद आती है ठीक वैसे ही।
मन में हूक सी उठती है कि सब जग हिंदीमय हो जाए। इसी तड़फ़
को बनाए रखने के लिए हर साल चौदह सितंबर को हिंदी दिवस
मनाने की परंपरा चल पड़ी हैं। हर साल सितंबर का महीना
हाहाकारी भावुकता में बीतता है। कुछ कविता पंक्तियों को तो
इतनी अपावन क्रूरता से रगड़ा जाता है कि वो पानी पी-पीकर
अपने रचयिताओं को कोसती होंगी। उनमें से कुछ बेचारी हैं:-
निज भाषा उन्नति अहै¸ सब उन्नति को मूल¸
बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल।
या फिर
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती¸
भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।
या फिर
कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता.¸
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक
पहुंचने के लिए अपराधबोध¸ निराशा¸ हीनताबोध¸
कर्तव्यविमुखता¸ गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुज़रती
है कि असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में
हिंदी की स्थिति क्या है?
ऐसे में श्रीलाल शुक्ल जी का लिखा उपन्यास 'राग दरबारी'
याद आता है जिसका यह वर्णन हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं
पर लागू होता है:-
एक लड़के ने कहा¸ "मास्टर साहब¸ आपेक्षिक घनत्व किसे कहते
हैं?"
वे बोल¸ ."आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा¸ "अब आप देखिए¸ साइंस नहीं अंग्रेज़ी
पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले¸ ."साइंस साला बिना अंग्रेज़ी के कैसे आ सकता है?"
हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर
साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता। सो लपके और गुरु को पकड़
लिया। उनके पास कोई काम नहीं था लिहाज़ा बहुत व्यस्त थे।
हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया।
सवाल:- हिंदी दिवस किस लिए मनाया जाता है?
जवाब:- देश में तमाम दिवस मनाए जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस¸
गणतंत्र दिवस¸ गांधी दिवस¸ बाल दिवस¸ झंडा दिवस वगैरह।
ऐसे ही हिंदी दिवस मना लिया जाता है। जैसे आज़ादी की¸
संविधान की¸ नेहरू–गांधी जी की याद कर ली जाती हैं वैसे ही
हिंदी को भी याद रखने के लिए हिंदी दिवस मना लिया जाता है।
राजभाषा होने के नाते इतना तो ज़रूरी ही है मेरे ख्याल से।
सवाल:- लेकिन केवल एक दिन हिंदी दिवस मनाए जाने का क्या
औचित्य है?
जवाब:- अब अगर रोज़ हिंदी दिवस ही मनाएंगे तो बाकी दिवस
एतराज़ करेंगे न! सबको बराबर मौका मिलना चाहिए। एक फ़ायदा
इसका यह भी होता है कि लोगों के मन में जितनी हिंदी होती
है वह सारी एक दिन में निकाल कर साल भर मस्त
रहते हैं। हिंदी दिवस पर सारी हिंदी उडे.लकर बाकी सारा साल
बिना हिंदी के तनाव के निकल जाता है। साल में हिंदी की एक
बढ़िया खुराक ले लेने से पूरे साल देशभक्ति का और कोई बुखार
नहीं चढ़ता। बड़ा आराम रहता है।
सवाल:- हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नज़र में?
जवाब:- हिंदी की हालत तो टनाटन है। हिंदी को किसकी नज़र
लगनी है?
सवाल:- किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा?
जवाब:- कौनौ एक हो तो बताएं। कहां तक गिनाएं?
सवाल:- कोई एक बता दीजिए।
जबाव:- हम सारा काम बुराई-भलाई छोड़कर टीवी पर हिंदी सीरियल
देखते हैं। घटिया से घटिया¸ इतने घटिया कि देखकर रोना आता
है¸ सिर्फ़ इसीलिए कि वो हिंदी में बने है। यही सीरियल अगर
अंग्रेज़ी में दिखाया जाए तो चैनेल बंद हो जाए। करोड़ों घंटे
हम रोज़ होम कर देते हैं हिंदी के लिए। ये कम बड़ा
प्रमाण/आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का?
सवाल:- अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा
है। आपका क्या कहना है?
जवाब:- कौनौ ख़तरा नहीं है। हिंदी कोई बताशा है क्या जो
अंग्रेज़ी की बारिश में घुल जायेगी? न ही हिंदी कोई छुई-मुई
का फूल है जो अंग्रेज़ी की उंगली देख के मुरझा जाएगी।
सवाल:- हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रदूषण हिंगलिश
के बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब:- ये रगड़-घसड़ तो चलती ही रहती है। जिसके कल्ले में
बूता होगा वो टिकेगा। जो बचेगा सो रचेगा। समय की मांग को
जो भाषा पूरा करती रहेगी उसकी पूछ होगी वर्ना आदरणीय¸
वंदनीय¸ पूजनीय बताकर अप्रासंगिक बन जाएगी।
सवाल:- लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा
हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषा होती तो वो आज के मुकाबले बीस
वर्ष अधिक विकसित होता।
जवाब:- ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं। तो
क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे है हिंदी में
कंप्यूटर के विकास पर? बनाओ। निकलो आगे। झुट्ठै स्यापा
करने रहने क्या मिलेगा?
सवाल:- बॉलीवुड वाले जो हिंदी की रोटी खाते हैं¸ हिंदी
बोलने से क्यों कतराते हैं? रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से
क्यों कतराते हैं? इसका जवाब ज़रा विस्तार से दें काहे से
कि यह सिनेमा वालों से जुड़ा है और इसलिए जवाब में ये दिल
मांगे मोर की ख़ास फ़रमाइस है लोगों की।
जवाब:- इसके पीछे आर्थिक मजबूरी मूल कारण हैं। असल में तीन
घंटे के सिनेमा में काम करने के लिए हीरो-हीरोइनों को
कुछेक करोड़ रुपये मात्र मिलते हैं। हिंदी फ़िल्मों में काम
करते समय तो डायलाग लिखने वाला डायलाग लिख देता है वो
डायलाग इन्हें मुफ्.त में मिल जाते हैं सो ये बोल लेते
हैं। एक बार जहां सिनेमा पूरा हुआ नहीं कि लेखक लोग
हीरो-हीरोइन को घास डालना बंद कर देते हैं। इनके लिए
डायलाग लिखना भी बंद कर देते हैं। अब इतने पैसे तो हर
कलाकार के पास तो होते नहीं कि पैसे देकर ज़िंदगी भर के लिए
डायलाग लिखा ले। पचास खर्चे होते हैं उनके। माफ़िया को
उगाही देना होता है¸ पहली बीबी को हर्जाना देना होता है¸
एक फ्लैट बेच कर दूसरा ख़रीदना होता है। हालात यह कि तमाम
खर्चों के बीच वह इत्ते पैसे नहीं बचा पाता कि किसी कायदे
के लेखक से डायलाग लिखा सके। मजबूरी में वह न चाहते हुए भी
अपने हालात की तरह टूटी-फूटी हिंदी-अंग्रेज़ी बोलने पर
मजबूर होता है।
अब हिंदी चूंकि वह थोड़ी बहुत समझ लेता है लिहाज़ा उसे पता
लग जाता है कि कितनी वाहियात बोल रहा है। फिर वह घबराकर
अंग्रेज़ी बोलना शुरू कर देता है। अंग्रेज़ी में यह सुविधा
होती है चाहे जैसे बोलो¸ असर करती है। आत्मविश्वास के साथ
कुछ ग़लत बोलो तो कुछ ज़्यादा ही असर करती है। बोलचाल में जो
कुछ चूक हो जाती है उसे ये लोग अपने शरीर की भाषा (बाडी
लैन्गुयेज) से पूरा करते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के प्रयास
में कोई-कोई हीरोइने तो अपने पूरे शरीर को ही लैंग्वेज में
झोंक देती हैं। जिह्वा मूक रहती है¸ जिस्म बोलने लगता है।
अब हिंदी लाख वैज्ञानिक भाषा हो लेकिन इतनी सक्षम नहीं कि
ज़बान के बदले शरीर से निकलने लगे। तो यह अभिनेता हिंदी
बोलने से कतराते नहीं। उनके पास समुचित डायलाग का अभाव
होता है जिसके कारण वे चाहते हुए भी हिंदी में नहीं बोल
पाते हैं।
सवाल:- चलिए वालीवुड का तो समझ में आया कुछ मामला और
मजबूरी लेकिन अच्छी तरह हिंदी जानने वाले बीच-बीच में
अंग्रेज़ी के वाक्य क्यों बोलते रहते हैं?
जवाब:- आमतौर पर यह बेवकू.फ़ी लोग इसलिए करते हैं ताकि लोग
उनको मात्र हिंदी का जानकार समझकर बेवकूफ़समझने की बेवकूफ़ी न कर बैठे। हिंदी के बीच-बीच में
अंग्रेज़ी बोलने से व्यक्तित्व में उसी निखार आता है जिस
क्रीम पोतने से चेहरे पर चमक आ जाती है और जीवन साथी तुरंत
पट/फिदा हो जाता है। वास्तव में ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी
एक जैक की तरह काम करता है जिसके सहारे वे अपने विश्वास का
पहिया ऊपर उचकाकर व्यक्तित्व का पंचर बनाते हैं। लेकिन
देखा गया है ऐसे लोगों का हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान
अधिकार होता है यानी दोनों भाषाओं का ज्ञान चौपट होता है
उनका।
सवाल:- हिंदी दिवस पर आपके विचार?
जवाब:- हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश
लगती है। शिलाजीत खाकर मर्दानगी हासिल करने
का प्रयास। जो करना हो करो¸ नहीं तो किनारे हटो। अरण्यरोदन
मत करो। जी घबराता है।
सवाल:- हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव?
जवाब:- देखो भइया¸ जबर की बात सब सुनते है। मज़बूत बनो-हर
तरह से। देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे।
तुम्हारी बेवकूफ़ियों तक का तार्किक महिमामंडन होगा। पीछे
रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही। हिंदी दिवस की तरह। इसलिए
समर्थ बनो। वो क्या कहते हैं:- इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा
गगन है।
सवाल:- आप क्या ख़ास करने वाले हैं इस अवसर पर?
जवाब:- हम का करेंगे? विचार करेंगे। खा-पी के थोड़ा चिंता
करेंगे हिंदी के बारे में। चिट्ठा/लेख लिखेंगे। लिखके थक
जाएंगे। फिर सो जाएंगे। और कितना त्याग किया जा सकता है--
बताओ?
16 सितंबर 2006 |