हास्य व्यंग्य | |
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धूप का चश्मा
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मैं धूप के चश्मे के आविष्कारक का नाम तो नहीं जानता, पर उस महान व्यक्ति का हृदय
से आभारी हूँ, जिसने गॉगल जैसी अद्भुत वस्तु बनाकर मुझे वे तमाम सुविधाएँ प्रदान कर
दी हैं जो उसके अभाव में मैं प्राप्त न कर पाता। सामनेवाला समझता है कि मैं उसे देख रहा हूँ, जबकि मैं उसे नहीं देखता, बल्कि उसकी
ओर देख रहा होता हूँ जो यह समझता है कि मैं उसे नहीं देख रहा। चश्मा आदमी के व्यक्तित्व के साथ इस सीमा तक जुड़ गया है उसके जीवन में ऐसे मौके कम ही हैं, जब वह धूप का चश्मा न पहनता हो। सड़क पर, बाज़ार में, बसों, ट्रेनों, हवाई जहाज़ों में, दफ़्तर और पार्कों में लोग हर जगह धूप का चश्मा लगाते हैं, यह भी ज़रूरी नहीं है कि केवल धूप में ही धूप का चश्मा लगाया जाए। रात में भी कुछ लोग इसे लगाए रहते हैं। हर मौसम में इसका उपयोग होता है। यानि धूप का चश्मा समय, स्थान और काल आदि से परे की हर उम्र और सेक्स के लोगों की एक प्रिय वस्तु है। आँखों के दोषों को सिर्फ़ धूप का चश्मा छुपाता है या धूप का चश्मा आँखों में
पड़नेवाले धूल या धुएँ से आँखों की रक्षा करता है। इस तरह की बातें यदि मैं लिखूँगा
तो आप कहेंगे कि मैं चश्मे की विज्ञापन करने लगा। पर यह तो कहना ही चाहूँगा कि आप
बस, ट्रेन या मीटिंग में धूप का चश्मा लगाए मज़े से सोते रहिए और साथ के लोग
समझेंगे कि आप जाग रहे हैं। आप आराम के साथ किसी महिला को घूरते रहिए, कोई कुछ नहीं
कहेगा। धूप का चश्मा न होता तो क्या होता? यही होता कि धूप का चश्मा लगाने पर जो धूप कम
लगती है वह अधिक लगती और गहरे रंग के चश्मा लगानेवाले को वह और अधिक तेज़ लगती।
मित्रों के बीच बातें करते समय चश्मा उतारकर रुमाल से उसके काँच साफ़ कर या चेहरे पर
रुमाल रखकर और फिर स्टाइल से चश्मा लगाने के अवसर समाप्त हो जाते। लोग उन तमाम सुख
और सुविधाओं से वंचित रह जाते जो चश्मे के कारण उन्हें प्राप्त हैं। एक बात और, क्या कोई वैज्ञानिक ऐसे चश्मे का आविष्कार नहीं कर सकता कि सामनेवाले की मन की बात उसके चश्मे के काँच पर आ जाए - तब शायद लोग धूप के चश्मे लगाना बंद कर देंगे। 1 अगस्त 2006 |