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हास्य व्यंग्य

 

धूप का चश्मा
- संतोष खरे

 


मैं धूप के चश्मे के आविष्कारक का नाम तो नहीं जानता, पर उस महान व्यक्ति का हृदय से आभारी हूँ, जिसने गॉगल जैसी अद्भुत वस्तु बनाकर मुझे वे तमाम सुविधाएँ प्रदान कर दी हैं जो उसके अभाव में मैं प्राप्त न कर पाता।

अब देखिए न कि आदमी के मन में झाँकने का एकमात्र माध्यम उसकी आँखों में तैरनेवाले भाव ही तो हैं। आँखों से प्रेम, घृणा और क्रोध व्यक्त किया जा सकता है। नज़रें चार होती हैं तो प्रेम तक हो जाता है। प्राचीन कवियों के नायक-नायिका भरे भवन में आँखों-ही-आँखों में सभी बातें कर लेते थे। कहा जाता है कि यदि साहसी शिकारी बिना पलक झपकाए शेर की आँखों से अपनी आँखें मिलाए रहता है तो शेर को हमला करने का साहस नहीं होता। झूठ बोलनेवाले की आँखों में गहराई से देखा जाए तो उसका झूठ पकड़ में आ जाता है, पर मैं धूप का चश्मा पहनकर बड़ी आसानी से अपनी आँखों के भावों को छुपा लेता हूँ। मेरी बातें सुनते हुए सामनेवाला समझता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वही मेरे मन की बात है, पर मेरी आँखों पर चश्मा चढ़ा होने के कारण वह आँखों से सच्चाई का पता नहीं लगा पाता।

सामनेवाला समझता है कि मैं उसे देख रहा हूँ, जबकि मैं उसे नहीं देखता, बल्कि उसकी ओर देख रहा होता हूँ जो यह समझता है कि मैं उसे नहीं देख रहा।
जो धूप का चश्मा लगाते हैं वे जानते हैं कि चश्मा लगाने से चेहरे पर गरिमा तो आती ही है। साथ ही यदि काफ़ी बड़े फ्रेम वाले चश्मे हुए तो चेहरे का नक्शा भी बदला दिखाई देता है। अच्छे सूट के साथ अगर गॉगल न हो तो चेहरे पर वह 'इंप्रेशन' आ ही नहीं सकता जो चश्मा पहनने पर आ जाता है। साड़ी हो या स्कर्ट, बैल बॉटम हो या ढीली कमीज़, पैंट हो या गरारा, गॉगल सबके साथ लोकप्रिय है, इसकी लोकप्रियता का अनुमान तो इसी बात से लगता है कि फ़िल्म के अधिकांश अभिनेता या अभिनेत्रियों ने फ़िल्मों में गॉगल्स पहने हैं।

चश्मा आदमी के व्यक्तित्व के साथ इस सीमा तक जुड़ गया है उसके जीवन में ऐसे मौके कम ही हैं, जब वह धूप का चश्मा न पहनता हो। सड़क पर, बाज़ार में, बसों, ट्रेनों, हवाई जहाज़ों में, दफ़्तर और पार्कों में लोग हर जगह धूप का चश्मा लगाते हैं, यह भी ज़रूरी नहीं है कि केवल धूप में ही धूप का चश्मा लगाया जाए। रात में भी कुछ लोग इसे लगाए रहते हैं। हर मौसम में इसका उपयोग होता है। यानि धूप का चश्मा समय, स्थान और काल आदि से परे की हर उम्र और सेक्स के लोगों की एक प्रिय वस्तु है।

आँखों के दोषों को सिर्फ़ धूप का चश्मा छुपाता है या धूप का चश्मा आँखों में पड़नेवाले धूल या धुएँ से आँखों की रक्षा करता है। इस तरह की बातें यदि मैं लिखूँगा तो आप कहेंगे कि मैं चश्मे की विज्ञापन करने लगा। पर यह तो कहना ही चाहूँगा कि आप बस, ट्रेन या मीटिंग में धूप का चश्मा लगाए मज़े से सोते रहिए और साथ के लोग समझेंगे कि आप जाग रहे हैं। आप आराम के साथ किसी महिला को घूरते रहिए, कोई कुछ नहीं कहेगा।
यह कहने की भी आवश्यकता नहीं कि धूप के चश्मों के कारोबार में हज़ारों लोग लगे हैं और गॉगल्स की दुकानों ने बाज़ार की शोभा बढ़ाई है, पर यह ज़रूर कहूँगा कि चश्मा एक ऐसी अनिवार्य वस्तु बन चुका है कि जो एक बार लगाता है वह सदैव लगाता है। चश्मा तो चश्मा है, वह टूट सकता है, चोरी हो सकता है या खो भी सकता है। तब चश्मा लगानेवाले दूसरा चश्मा नहीं ख़रीदेंगे? मेरा अनुमान है कि औसतन हर व्यक्ति अपने जीवन में पच्चीस-तीस धूप के चश्मे ज़रूर ख़रीदता होगा, चश्मा व्यवसाय की सफलता का एक कारण यह भी हो सकता है।

धूप का चश्मा न होता तो क्या होता? यही होता कि धूप का चश्मा लगाने पर जो धूप कम लगती है वह अधिक लगती और गहरे रंग के चश्मा लगानेवाले को वह और अधिक तेज़ लगती। मित्रों के बीच बातें करते समय चश्मा उतारकर रुमाल से उसके काँच साफ़ कर या चेहरे पर रुमाल रखकर और फिर स्टाइल से चश्मा लगाने के अवसर समाप्त हो जाते। लोग उन तमाम सुख और सुविधाओं से वंचित रह जाते जो चश्मे के कारण उन्हें प्राप्त हैं।

धूप के चश्मे के बारे में और अधिक तो जानता नहीं, पर उस संदर्भ में इतना और कहना चाहूँगा, 'चश्मा' शब्द भी कम व्यापक, नहीं। 'चश्मा' झरने को भी कहते हैं। यह भी कहा जाता है कि हर आदमी हर बात को अपने 'चश्मे' से देखता है। चश्मदीद गवाह होते हैं। शायर ने चश्मे-बद-दूर भी लिखा है। चश्मा का अर्थ उर्दू में भले ही 'नज़र' हो, पर ऐनक को लोग ऐनक नहीं चश्मा कहना ही अधिक पसंद करते हैं।

एक बात और, क्या कोई वैज्ञानिक ऐसे चश्मे का आविष्कार नहीं कर सकता कि सामनेवाले की मन की बात उसके चश्मे के काँच पर आ जाए - तब शायद लोग धूप के चश्मे लगाना बंद कर देंगे।

1 अगस्त 2006

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