हास्य व्यंग्य | |
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देवलोक से दिव्य लोक
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इंद्र देवता का सिंहासन एक बार फिर डोलने लगा। कलियुग में सिंहासन डोलने का कारण उन्हें समझ नहीं आ रहा था। परेशान इंद्रदेव ने अपने सलाहकारों को बुलवा भेजा। आसन था कि बस डोले ही जा रहा था। आख़िर समस्या क्या है? क्यों डोले जा रहा है अहमकों की तरह यह आसन? यह आसन है या फिर भारत सरकार का शासन है जो डोले ही जा रहा है? कलियुग में बीन की तान पर मन डोल सकता है, तन डोल सकता है, लेकिन आसन. . . ! आख़िर ये हुआ तो हुआ कैसे? सभी दिमाग़ एक दूजे से मिल कर एक हो गए। सोच समुद्र से भी अधिक गहराने लगी। कौन, कहाँ और कैसी तपस्या कर रहा है, जो आसन का डोलना थमने में नहीं आ रहा है। लूट, खसोट, भ्रष्टाचार, काला बाज़ारी, ओवर टाईम, टयूशन आदि से किसे फुरसत मिल गई है जो कि तपस्या कर-कर के इंद्र का आसन डोलाए जा रहा है। राजा इंद्र ने अपने आसन की सारी चूलों की भी ठीक से जाँच करवा ली। कहीं ढीली चूलें ही तो इस डोलते आसन का कारण नहीं हैं। सोचते-सोचते सब के दिमाग़ की चूलें ढीली होने लग गईं, लेकिन आसन का डोलना था कि रुकने में ही नहीं आ रहा था। इंद्र देवता असहाय आँखों से इंद्राणी की ओर देखने लगे। शायद वही संकटमोचन बन कर सामने आ जाएँ। मगर वे अपनी गृहस्थी के चक्कर में इतनी व्यस्त थीं कि उन्हें आसन के डोलने के बारे में पता ही नहीं चला था। इंद्र ने एक बार फिर से अपनी सलाहकार परिषद पर एक निगाह डाली। सभी विभागों के सचिव मौजूद थे। फिर भी न जाने क्यों उन्हें महसूस हुआ कि कोई न कोई तो अवश्य ही अनुपस्थित है। निगाह एक बार फिर घूमी। सभी महत्वपूर्ण विभागों के नुमाइंदे दिखाई दे रहे थे। ऐसा कौन हो सकता है जो अनुपस्थित तो है लेकिन उसकी अनुपस्थिति की चुभन वे महसूस नहीं कर पा रहे। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है। इंद्र देवता के भीतर का अध्यापक जागृत हो उठा, उन्होंने उठाया रजिस्टर और लगे
हाज़री लेने। एक-एक करके सभी विभागों का नाम लेते जा रहे थे हाज़िर का जवाब आता जा
रहा था। अंतिम विभाग का नाम पढ़ते-पढ़ते उनके चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई। ओह तो
ये बात है। नया-नया विभाग बना है और सचिव ग़ायब इतने नख़रे! बुलाने पर भी ग़ायब।
इंद्र देवता ने अपने सचिव को इशारे से अपने करीब बुलाया, "ये राजभाषा वाले कहाँ
हैं?" "मामला ख़ासा गंभीर है। तभी मैं सोच रहा था कि यहाँ जो संस्कृत से हिंदी के अनुवाद
का काम उन्हें सौंप रखा था, वो काम आगे क्यों नहीं बढ़ रहा। वो काम केंचुआ बन गया
है। उन्हें शीघ्र फ़ैक्स किया जाया। नहीं देवदूत भेजा जाए और बुलवाया जाए।" आसन डोले जा रहा था, विमोचन होता जा रहा था। राजभाषा सचिव आत्माराम की तारीफ़ों के पुल बाँधे जा रहे थे। कवयित्री सोच रही थी कि मेरी पुस्तक का विमोचन है तो आत्माराम की तारीफ़ क्यों हो रही है। नादान बालिका फंडे नहीं समझती। यदि उसे भी साहित्य की मुख्य धारा में बने रहना है तो आत्माराम गुप्त की तारीफ़ करते रहनी होगी। साहित्य नैया पार हो जाएगी। उन्होंने कृष्णकांत एवं सतीचर जी को तो महान कवि स्थापित करवा ही दिया है। अब उसकी बारी है महादेवी बनने की। सचिव ने जो-जो कुछ इंद्र देव को लंदन के हिंदी परिदृश्य के बारे में बताया तो वे अचंभित से हो गए। यह फ़ंडे हैं या हथकंडे हैं। लेकिन कहीं उनके मन को प्रसन्नता भी महसूस हो रही थी कि चलो राजभाषा में काम तो हो रहा है। देवदूत ने जा कर राजभाषा सचिव को सीधे मंच पर ही जा पकड़ा। सचिव मंद-मंद मुस्कुराहट श्रोताओं की ओर फेंक रहे थे। "आत्माराम अपनी लघुकथानुमा कविताएँ सुना-सुना कर वाहवाही लूट रहे थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि लोग पद्य के लिए तालियाँ बजा रहे थे या फिर पद के लिए। सब गड़मड़ हुए जा रहा था। सचिव अपने भक्त के क्रियाकलापों पर गदगद हुए जा रहे थे। देवदूत केवल उन्हीं को दिखाई दे रहा था। जनता थी कि कवितामयी हुए जा रही थी। आत्माराम अंग्रेज़ी वाक्यों से भरी अपनी हिंदी कविता सुनाए जा रहे थे। उधर ग़ैर ज़मानती वारंट देख कर सचिव के छक्के छूट रहे थे। जनता ने विचित्र-सा नज़ारा देखा। आत्माराम ने आत्ममुग्धता से अपनी कविता की अगली पंक्ति सुनाते हुए अपनी पीठ थपथपवाने के लिए जो पीछे मुड़ कर देखा, तो कुर्सी खाली। ढूंढ मच गई, कविता की ऐसी तैसी, पहले सचिव जी को ढूंढा जाए। श्रोता कुर्सियों के नीचे, टॉयलेट में, भोजन कक्ष में और न जाने कहाँ-कहाँ ढूंढ रहे थे। आत्माराम की आत्मा यह सोच सोच कर काँप रही थी कि क्या उससे कोई ग़लती हो गई जो सचिव बिना कुछ कहे ग़ायब हो गए। बाहर रेडियो पर गीत बजने लगा, "छुप गया कोई रे, दूर से पुकार के. . . ।" यह रेडियो वाले भी ऐन टाइम पर न जाने कैसे सटीक से गीत बजाने लगते हैं। कुर्सियाँ भड़भड़ा कर गिर रही थीं। चिल्लपों मच गई थी। आत्माराम अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी खुजा रहे थे। यह क्या हुआ - उन्हें समझ नहीं आ रहा था। हवा में केवल एक ही प्रश्न तैर रहा था, "दिखे क्या मिले क्या न जाने कहाँ अंतर्ध्यान हो गए अरे यहाँ देखो, वहाँ देखो वगैरह-वगैरह। एक बड़े-से डील-डैल वाली महिला एक सिंगल हड्डी कवि पर जा गिरीं। उसका वही हाल हो रहा था कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। माइक पर घोषणाएँ हो रही थीं। सचिव पहुँच गए थे इंद्र के दरबार में। सचिव की पेशी हो गई। डोलता हुआ आसन देख कर वे भी परेशान हो गए। इंद्र देवता
टी.ए.डी.ए. वाउचरों के बारे में सवाल पूछने लगे। राज़ खुल गया। आत्माराम केवल
चित्रगुप्त के वंशज ही नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य के समान ही हैं। इंद्रदेव के सहायक ने एक उपाय सुझाया। प्रभु भारत
में टेलिविज़न सीरियल लेखकों के पास हर मर्ज़ की दवा रहती है। आप बालाजी के लेखकों को बुलवाइए। कुछ न कुछ उपाय वो
ही सुझा सकते हैं। वे किसी भी सीरियल को अंतहीन ढंग से खींचने की कुव्वत रखते हैं।
काँपता हुआ लेखक हाज़िर हो गया। इंद्रदेव ने सवाल फेंका। लेखक सोच में पड़ा। लेकिन
जल्दी ही हल निकाल लिया। इंद्र देव की तो बाँछें खिल आईं। एक विशेष किस्म
की वर्षा बनाई गई। उस वर्षा की यही विशेषता थी कि उसके प्रभाव से धरती का हर हिंदी
जानने वाला अदृश्य हो जाएगा। मेट्रिक्स फ़िल्म की तर्ज़ पर वे भी एक सस्पेंडिड एनीमेशन में चले जाएँगे।
वे सब इंद्रदेव द्वारा रचित नए ग्रह हाईड में बसने लगेंगे। लेकिन उनके जीवन में कोई अंतर
नहीं आएगा। उन्हें लगेगा कि उनका जीवन यथावत चल रहा है। बस वे आत्माराम को नहीं
दिखाई देंगे। आत्माराम ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में फ़ोन कंपनी से संपर्क किया उनको आत्माराम की बात समझ नहीं आ रही थी। आत्माराम की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उसका दाढ़ी को खुजाना बढ़ता जा रहा था। उसे सभी राजभाषा प्रेमियों को कठपुतली समझने का खेल बहुत भाने लगा था। आज जैसे खेल दिखाने वाले की सभी कठपुतलियाँ ग़ायब हो जाएँ। उसकी उँगलियाँ कठपुतलियों को नचाने के लिए बेचैन हो रही थीं। आत्माराम दफ़्तर पहुँचा। आज उसे किसी अफ़सर का फ़ोन तक नहीं आया। आज कोई भी अफ़सर उससे हिंदी में बात नहीं कर रहा था। और जो हिंदी बोल सकते थे, वे कमरे में थे ही नहीं। यहाँ तक कि कैंटीन में भी कोई नहीं दिखाई दे रहा था जो कि हिंदी बोलता हो। उसने अपना मुफ़्त फ़ोन उठाया और भारत में अपने मित्रों के फ़ोन मिलाने का प्रयास किया किंतु भारत में कोई फ़ोन नहीं उठा रहा था। आत्माराम की आत्मा छटपटा रही थी। लोगों का मसीहा बनने का उसका शौक उसे परेशान किए जा रहा था। इस दिव्यलोक में उसने जिस किसी को चाहा लेखक घोषित कर दिया, जिसे चाहा रद्दी का ढेर बना दिया। संपूर्ण सत्ता का सुख और कुर्सी का लाभ लेने में उसका कोई सानी नहीं था। आज कोई नहीं कह रहा कि आत्माराम के आने से दिव्यलोक में राजभाषा क्रांति आ गई है। यह वाक्य जैसे कानों में अमृतरस बरसाया करता था। यह तो समझ में आ रहा था कि कुछ गड़बड़ अवश्य है लेकिन वो है क्या, उसका निदान नहीं हो पा रहा था। आज दफ़्तर में कोई काग़ज़ अनुवाद के लिए भी नहीं आया। दफ़्तर का माहौल भी पूरी तरह दिव्यलोक की भाषामयी बना हुआ था। और तो और उसे न तो कोई पहचान रहा था न कोई कुछ कह रहा था। आत्माराम ने अवश्य ही कुछ लोगों को नमस्कार किया, लेकिन उनका एक कोण पर गर्दन हिला का अभिवादन स्वीकार करना साफ़ बता रहा था कि उन्होंने आत्माराम को पहचाना नहीं। क्या स्क्रिप्ट लिखा बालाजी के लेखक ने! राजभाषा नायक को शिखर से शून्य पर ला पटका। आत्माराम शाम को दफ़्तर से घर न जा कर सीधे मंदिर की ओर चल दिया। मंदिर जा कर और भी ज़ोर का झटका लगा। वहाँ सब काम दिव्यलोक की भाषा में हो रहा था। धुनें वही पुरानी लेकिन बोल दिव्यलोक के। "दर्शन दे भगवान आज मेरी अखियाँ प्यासी रे" के स्थान पर भजन चल रहा था "ओ गॉड शो अस युअर फेस, टुडे अवर आईज़ आर थर्सटी!" आत्माराम राजेश खन्ना हो कर गाने लगे, "ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ. . . " हैरानी यह कि इस समय उन्हें राष्ट्रकवि आनंद बख़्शी का गीत याद आया, किसी महान कवि की पंक्तियाँ नहीं। सच! ये कैसे हुआ? 16 फरवरी 2006 |