मेरे यार-दोस्त जानते ही हैं कि मेरे विचार हर चीज़ के बारे में नेक होते हैं।
क्रिकेट की तो बात ही और है। यह खेल संसार भर में खेला जाता है और हर आयु-वर्ग के
लोग इसके 'फेन' हैं। क्रिकेट के खिलाफ़ कोई बात कहने का मतलब है-दुनिया भर के
इसके प्रशंसकों से दुश्मनी मोल लेना और मैं परिवार नियोजन की तरह दुश्मनों की
संख्या को भी नियोजित करने के पक्ष में हूँ। इसलिए, मैं यहाँ इस लेख में क्रिकेट के
बारे में जो कुछ कहूँगा/लिखूँगा, अच्छा-अच्छा ही कहूँगा/लिखूँगा।
हमारे यहाँ क्रिकेट का सीज़न साल में लगभग छः महीने का होता है। इस अवसर पर हर चीज़
क्रिकेट-मयी हो जाती है। 'जिधर देखूँ, तेरी तस्वीर नज़र आती है'। यह पंक्तियाँ किसी
शायर ने क्रिकेट-मयी वातावरण देख कर ही शायद रची होंगी-ऐसा मेरा निजी विचार है।
मेरा यार वर्मा तो मेरे से भी अधिक खोजी प्रवृति का जीव है। उसका दावा है कि
क्रिकेट का खेल संत कबीर के समय में भी खेला जाता रहा होगा और शायद कबीर साहब ने
क्रिकेटी वातावरण देख कर ही लिखा था-
'लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल,
लाली देखन मैं गया, मैं भी हो गया लाल।'
वर्मा जी के अनुसार अध्यात्मवादियों और रहस्यवादियों ने इसके अर्थ को समझने में अब
तक भूल की है।
क्रिकेट का सीज़न आते ही क्रिकेट प्रेमी टी.वी.या रेडियो के पास बैठना शुरू कर
देते हैं और कई-कई घंटे एकाग्र-चित होकर क्रिकेट मैच देखते/सुनते हैं। ऐसी कठिन
तपस्या बड़े-बड़े सिद्ध-हस्त योगी भी नहीं करते। एक ही मुद्रा में, बिना हिले-ढुले,
बिना पलक झपके, बिना खाए-पीए रहना तो योगी-साधकों के बस की भी बात नहीं है।
क्रिकेट का सीज़न आते ही कुछ गृहिणियों को चैन की साँस लेना नसीब हो जाता है। जिनके
लाड़ले (पति या बेटे) घर मिलते ही न हों, वो भी इन दिनों घर में उपलब्ध होने लगते
हैं। (यह बात और है कि उनका घर होना, न होना एक समान होता है। क्यों कि मैच के समय
उनको किसी काम के लिए कहना तो दूर, उन्हें कुछ पूछना भी ख़तरनाक हो सकता है। अर्थात
आ बैल मुझे मार वाली बात हो सकती है।)
क्रिकेट का सीज़न शुरू होते ही दिल फेंक किस्म के आशिकों की तो चाँदी हो जाती है।
इन दिनों उनकी प्रेमिकाएँ भी कुछ नर्म प्रवृति की हो जाती हैं। आम स्थिति में तो
प्रेमी अपनी प्रेमिका के दीदार के लिए अथवा उनसे बात करने के लिए तरसते हैं। पर,
क्रिकेट का मैच शुरू होते ही स्थिति उलट हो जाती है। कुछ मूड़ी प्रेमिकाएँ तो अपने
प्रेमियों से स्कोर पूछ कर ही उन्हें 'क्लीन-बोल्ड' कर देती हैं। प्रेमियों को भी
इस क्रिकेट-मयी वातावरण में अपनी भावी प्रेमिका से बात करने का अच्छा-ख़ासा बहाना
मिल जाता है-स्कोर बताने वाली सुंदरी अपने 'दिल की गली' अथवा 'कवर' में ही स्थान दे
दे, क्या पता? कुछ प्रेमी अपना रेडियो या टी.वी.ख़राब करके अपनी पड़ौसिन प्रेमिका
के घर जाते देखे गए हैं। क्यों कि वहाँ क्रिकेट के साथ देवी के दर्शनों का सौभाग्य
भी प्राप्त हो जाता है।
क्रिकेट का सीज़न शुरू होते ही बिजली विभाग की कृपा-दृष्टि भी होने लगती है। शायद
वह भी इस मौसम में बिजली की कटौती करना भूल जाते हैं। जिन विभागों में अधिकारी
स्वयं क्रिकेट के शौकीन होते हैं, वहाँ की उपस्थिति तो पूरी रहती है पर, क्रिकेट के
बारे में अच्छी राय न रखने वाले अधिकारियों के कार्यालयों में इन दिनों अक्सर
मुलाज़िम बीमार रहने लगते हैं। ऐसे मुलाज़िमों को उनके डाक्टरों ने केवल
'बैड-रैस्ट' की ही सलाह दी होती है।
क्रिकेट का सीज़न आते ही लोग आपसी भेद-भाव और सांप्रदायिक तनाव भूल कर राष्ट्रीय
एकता के पवित्र सूत्र में बँध जाते हैं। सारा राष्ट्र खाना-पीना और सोना भूल कर
अपने देश की टीम को जितवाने में जुट जाते हैं। ऐसे में अपने देश के साथ खेलने वाली
हर टीम हमारी दुश्मन हो जाती है और जैसे-जैसे मैच निर्णायक मोड़ पर पहुँचता जाता
है, हमारी मुठ्ठियाँ भिंचती जाती हैं। अपने देश के खिलाड़ी द्वारा बनाए गए हर स्कोर
के साथ हमारा खून बढ़ता है और विरोधी खिलाड़ी के हर रन लेने पर सारे राष्ट्र का खून
सूखता/सड़ता है। अपने देश की टीम जीत जाए तो जश्न, वर्ना सोग मनाया जाता है।
क्रिकेट को कुछ लोग 'फनी-गेम' कहते हैं और कुछ
'मनी-गेम'। सारी दुनिया फ़िल्मी लोगों की दीवानी होती है जब कि, फ़िल्मी लोग
(हीरोइनें) क्रिकेट के खिलाड़ियों पर मरती हैं। क्रिकेट के खिलाड़ी सिर्फ़ गेंद ही 'कैच' नहीं करते, बल्कि लाखों-करोड़ों
के दिलों पर राज करने वाली हीरोइनों को भी 'कैच' कर लेते हैं।
जिन लोगों ने फ़िल्मी हीरोइनों को अपने दिल में बसा रखा हो उनको मेरी नेक सलाह यह
है कि वे शीघ्र-अति-शीघ्र क्रिकेट खेलना शुरू कर दें। नहीं तो, ऐसा भी हो सकता है
कि मौका हाथ से निकल जाए और उन्हें यह फ़िल्मी गीत गाना पड़े-
'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ?'
सरकार के आगे भी मेरा विनम्र निवेदन है कि वह अधिक से अधिक मैचों का आयोजन करवाती
रहे, ताकी सारा साल राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय एकता का संचार होता रहे।
कितना अच्छा हो यदि मैच देखने वालों और मैच सुनने वालों को 'स्कालरशिप' दिए जाएँ और
पूरा सीज़न मैच में डूबे रहने वालों को 'क्रिकेट-सम्राट', 'क्रिकेट-चक्रवर्ती',
'क्रिकेट-महाराजा' आदि पुरस्कार बाँटे जाएँ।
अंत में, मेरा निवेदन उन गृहणियों से भी है, जिनके लाड़ले क्रिकेट के सीज़न में कोई
काम नहीं करते। उन्हें चाहिए कि क्रिकेट के इन दीवानों को क्रिकेट के इस
'अध्यात्मिक' वातावरण में नाहक तंग न किया जाए और यथा संभव हो, मैच देखने/सुनने में
इन देश-भक्तों का सहयोग किया जाए- चाय और पकौड़े आदि परोस कर।
1 नवंबर 2006
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