अख़बार में छपी ख़बर को पढ़कर मैं बहुत टैंशन में हूँ कि बंदरों ने हिमाचल की एक
लाईब्रेरी में घुसकर किताबें फाड़ दीं और बहुत तोड़-फोड़ की। बंदरों ने अपना गुस्सा
बेचारी किताबों पर क्यों उतारा, यह बात मुझे अभी तक समझ नहीं आ रही। क्या बंदरों को
लगा कि ये किताबें पढ़ने लायक नहीं हो सकती या फिर बंदरों को इस बात का गुस्सा आ
गया कि अगर लाईब्रेरी में लोगों ने किताबें पढ़ने के लिए आना ही नहीं है तो फिर
लाईब्रेरियाँ बनाने का मतलब क्या है और लाईब्रेरियों में किताबें कैद करने का
औचित्य क्या है? क्या बंदरों को इस बात का गुस्सा है कि देश के प्रकाशक नए लेखकों
की कृतियाँ छापकर उन्हें वाजिब कीमत पर पाठकों तक पहुँचाने की बजाय सरकारी थोक
ख़रीद को अहमियत देते हैं और लाइब्रेरियों के सिर पर प्रकाशकों और चंद जुगाडू
अधिकारियों की रोज़ी-रोटी चल रही है? क्या बंदरों ने किताबें इसलिए फाड़ दी क्यों कि
वे समझते हैं कि देश के इतिहासकारों ने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर इन किताबों में
प्रस्तुत किया है? या फिर बंदरों ने ये किताबें इसलिए फाड़ीं क्यों कि उन्हें लगता
था कि इससे पहले कि दीमक लाईब्रेरियों में रखी गईं किताबें चट कर जाए, इन्हें
फाड़ना ज़्यादा बेहतर रहेगा क्यों कि इससे लाईब्रेरी के भवन का इस्तेमाल किसी दूसरे
काम के लिए भी किया जा सकता है।
इन तमाम सवालों के बीच फिर लाख टके का यही सवाल मुझे अपने सामने मुँह खोले दिखता है
कि बंदरों ने किताबों को निशाना क्यों बनाया? बंदर साहित्य से इतना खफ़ा क्यों हैं?
उन्हें किताबे फाड़ने के लिए किसने उकसाया है? क्या कुछ दिलजले लेखकों ने ही
उन्हें लाईब्रेरी में धावा बोलने के लिए उकसाया या फिर कोई विदेशी शक्ति इसके पीछे
काम कर रही है ? अगर बंदरों की इस कार्यवाही के पीछे कुछ ईर्ष्यालू लेखकों का दिमाग़
काम कर रहा है तो अपुन को भी सतर्क हो जाना चाहिए। अपुन ने भी पिछले बीस सालों में
कलम घिस-घिस कर घर में छोटी-मोटी लाईब्रेरी बना डाली है? किताबें भले ही मुटठी भर
लिखीं हैं लेकिन अख़बारों के वे बंडल हमने बड़े करीने से इस लाईब्रेरी में सजाकर
रखे हैं, जिसमें अपुन की रचनायें छपी हैं। कल को किसी विरोधी के उकसाने पर बंदर
मेरी पर्सनल लाईब्रेरी में भी धावा बोल सकते हैं। बैसे भी घर में सिवाय पत्नी के
दिन को कोई दूसरा नहीं होता। पत्नी बंदरों को समझाएगी भी तो कैसे? उसे तो बंदरों से
बहुत डर लगता है। बंदरों को सबक सिखाने का उसे वैसे भी कोई एक्सपीरियंस नहीं है
क्यों कि घर के अंदर कभी-कभार आते हैं और ज़्यादातर पेड़ पर रहते हैं। ख़ैर बंदर, और
पत्नी के प्रसंग को गोली मारते हैं और इस बात पर चर्चा को आगे बढ़ातें हैं कि बंदर
ने किताबें क्यों फाड़ीं?
मेरे ख़याल से इस बारे कोई आयोग बिठाया जाना चाहिए। आयोग बिठाने से दो फ़ायदे
होंगे। एक तो आयोग में कुछ ख़ास बंदे अडजैस्ट हो सकेंगे और दूसरा जनता में यह
क्लीयर मैसेज जाएगा कि सरकार इस मसले पर बहुत गंभीर है। आयोग जब बैठेगा तो नैचुरली
कई तथ्य सामने आएँगे। हो सकता है कि लाईब्रेरियन और साहित्य प्रेमियों के साथ-साथ
बंदरों के बयान भी दर्ज़ किए जाएँ। आख़िर आयोग बंदरों को नज़र-अंदाज़ कैसे कर सकता
है? आयोग के माननीय सदस्यों को अगर बंदरों की भाषा समझ नहीं आएगी तो वे मदारियों की
मदद भी ले सकते हैं। बंदरों और मदारियों के बीच काफ़ी अंडरस्टैंडिंग होती है।
मदारियों की भी अपने देश में कोई कमी नहीं है। देश में कई खानदानी तो कई शौकिया
मदारी हैं। अब यह आयोग पर निर्भर करता है कि वह किन मदारियों की सेवाएँ ले।
ज़ाहिर है आयोग जब चर्चा शुरू करेगा और गवाहों के बयान दर्ज़ करेगा तो मीडिया को भी
मसाला मिलेगा। मीडिया के पास इन दिनों मसाले का वैसे भी टोटा चल रहा है और जब उसे
मसाला मिलेगा तो चैनल और भी तेज़ गति से दौड़ेंगे। चैनल जब प्रमुखता से आयोग की
कार्रवाई को हाईलाइट करेंगे तो लोगों का ध्यान ग़रीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और
रिश्वतखोरी जैसे फ़ालतू के लफ़डों से हट जाएगा। भारतीय फौज में किस मज़हब के कितने
फौजी हैं, इस बारे में होने वाली बहस भी लोगों को निरर्थक लगने लगेगी।
बस एक ही मसला देशवासियों के सामने होगा कि बंदरों ने लाईब्रेरी में रखी किताबें
आखिर क्यों फाड़ीं। हो सकता है कि इस मसले पर वे लोग भी चिंता जताने लगें जिन्होंने
ज़िंदगी में कभी लाईब्रेरी का मुँह देखना तो दूर रहा, कभी बुक स्टाल या कबाड़ी से
दो रुपए की किताब ख़रीदकर उसे पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई। वे लोग भी बंदरों की इस
हरकत पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया कैमरे के सामने देकर नाम कमाने की कोशिश कर सकते हैं
जिन्हें यह भी नहीं मालूम होगा कि मुंशी प्रेमचंद कथा सम्राट थे या भारत की किसी
रियासत के सम्राट थे।
यह भी हो सकता है कि सरकार को आयोग का कार्यकाल बढ़ाना पड़े और फिर जब आयोग अपनी
रपट सरकार को प्रस्तुत करे तो उसमें यह अजीबोग़रीब खुलासा किया गया हो कि बंदरों ने
किताबें इसलिए फाड़ीं क्यों कि बंदर बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित करके यह संदेश
देना चाहते थे कि उनकी इच्छा के खिलाफ़ उनकी नसबंदी किए जाने का प्रस्ताव उन्हें कतई
मंजूर नहीं है और वे चाहते हैं कि अगर उनकी बढ़ती आबादी पर नकेल डालने के लिए कुछेक
शरारती बंदरों की नसबंदी अगर ज़रूरी करनी है तो ऐसे बंदरों का आप्रेशन देश के चोटी
के अस्पतालों में विदेशी चिकित्सकों की देखरेख में होना चाहिए। बंदर अपनी सेहत के
बारे में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।
कमेटी की रपट में यह सनसनीखेज खुलासा भी हो सकता है कि बंदर इस तथ्य से वाकिफ़ हो
गए हैं कि भारत में ऑप्रेशन के समय कोई छोटी-मोटी कैंची या दूसरा सामान अक्सर
मरीज़ों के जिस्म में ही बंद करके टाँके लगा दिए जाते हैं। आयोग की रपट में यह
हैरतअंगेज़ खुलासा हो भी हो सकता है कि कि जिन बंदरों ने किताबें फाड़ीं वे भारत के
रहने वाले नहीं थे अपितु उन्हें सीमा पार से ट्रेनिंग देकर भेजा गया था ताकि हमारी
बौद्धिक संपदा नष्ट की जा सके। आयोग सरकार को यह भी आगाह कर सकता है कि भविष्य में
सीमा पार से आए इन बंदरों के नापाक इरादों को देखते हुए देश भर में
अत्यंत चौकसी बरती जाए और सुरक्षा वालों को अलर्ट रहने के लिए कहा जाए। ख़ैर ऐसा जब
होगा तब देखा जाएगा लेकिन मेरी नज़र में इस बारे आपकी राय लेना भी ज़रूरी है कि
बंदरों ने आख़िर लाईब्रेरी में घुसकर किताबें क्यों फाड़ीं? आप अपनी राय बनाइए और
हमें बताइए।
24 अगस्त 2006
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