बाल्यावस्था जीवन की वह स्वर्णिम अवस्था है, जिसे बच्चों को छोड़कर सभी लोग पसंद
करते हैं। केवल बच्चे ही बच्चे नहीं रहना चाहते, शेष सब लोग बच्चे बन जाना चाहते
हैं। बच्चे जल्दी से जल्दी बड़े हो जाना चाहते हैं। उन्हें शिकायत रहती है कि हमको
हमारी मर्ज़ी से नहीं रहने दिया जाता। घर में रहें तो मम्मी हमेशा डाँट-डपट कर
फालतू होमवर्क करवाती हैं, और स्कूल जाएँ तो वहाँ शिक्षक दिन भर अनावश्यक बोर करते
हैं। वे सब वही करवाते हैं जो हम करना नहीं चाहते और जो हम करना चाहते हैं वह करने
नहीं देते।
कभी-कभार चुपचाप कर भी लिया तो दंडित किया जाता है। इसलिए वे जल्दी से बड़ा हो जाना
चाहते हैं। अब उन्हें क्या मालूम कि बड़े होने पर क्या-क्या समस्याएँ आती हैं? और
बड़े भी कितने परतंत्र होते हैं। उन्हें किन-किन धूर्तों से निपटना पड़ता है?
क्या-क्या होमवर्क करना पड़ता है? और किन-किन दुष्टों की डाँट खानी पड़ती है? बच्चे
नहीं जानते।
वे जानते हैं कि बड़े लोग पूर्ण स्वतंत्र होते हैं। इसीलिए वे बच्चे नहीं रहना
चाहते, तुरंत बड़े हो जाना चाहते हैं। उन्हें जल्दी बड़े हो जाने के लिए आजकल
कंप्यूटर और टी.वी.जैसे सूचना तंत्र मदद कर रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी की
क्रांति से बच्चे अब जल्दी बड़े होते जा रहे हैं। वे बच्चे से सीधे प्रौढावस्था में
प्रवेश कर रहे हैं। टी.वी.के सैंकड़ों चेनल इस कार्य में उन्हें पूरी मदद कर
रहे हैं। केवल वयस्कों के लिए बनाए जाने वाले कार्यक्रम आजकल केवल बच्चे ही देखते
हैं जिसके द्वारा उन्हें वे सारी जानकारियाँ प्राप्त हो चुकी होती हैं जो सामान्यत:
उन वयस्कों को भी नहीं होतीं, जो अपनी रोज़ी-रोटी के चक्कर में टी.वी. नहीं देख
पाते।
बच्चों की इन तथाकथित समझदारियों से विपन्नबुद्धि बहुत चिंतित है। वह कहता है कि
आजकल बच्चों को कुछ सिखाना बहुत ही मुश्किल हो गया है। हमारे सारे लेसनप्लान धरे के
धरे रह जाते हैं। बच्चे दो कदम आगे दिखाई देते हैं।
एक बार विपन्नबुद्धि घर में बच्चों के साथ टी.वी. देख रहा था। जैसा कि ज़रूरी
होता है कि अच्छे भले कार्यक्रम के बीच में ब्रेक लिया जाए और उस बीच कोई अश्लील
दृश्य दिखाया जाए। इन दृश्यों से उस कार्यक्रम का क्या संबंध है? आज तक
विपन्नबुद्धि की समझ में नहीं आ सका है। वह इस खोज में भी लगा है कि लोग इन दृश्यों
को देखने के लिए कार्यक्रम देखते हैं, या कार्यक्रम देखने के लिए ये देखना उनकी
मजबूरी है?
जैसे ही वे दृश्य आए विपन्नबुद्धि संकोच के कारण बाहर चला गया। बाद में बच्चे ने
आवाज लगाई - पापा! आ जाओ! वह सीन तो निकल गया।
बच्चों की इस अतिसमझदारी से सबसे ज़्यादा परेशान हैं शिक्षक। शिक्षक पढ़ाने के लिए
नित नूतन विधियों का आविष्कार करते हैं पर बच्चे हैं कि चार कदम आगे निकलकर सारी
विधियों का मुरब्बा बना डालते हैं।
विपन्नबुद्धि ने "कौन बनेगा करोड़पति" सीरियल की लोकप्रियता प्रेरणा लेकर स्कूल में
भी सही जबाब के लिए पुरस्कार रखा।
"जो छात्र सबसे पहले प्रश्न का सही जवाब देगा उसे पचास रुपए मिलेंगे"-- कहकर
टेबिल पर पचास रुपए का नोट रख दिया और बोला- बच्चों! मैं एक सवाल पूछता हूँ, जो भी
इसका सही जवाब सबसे पहले देगा उसे यह नोट दिया जावेगा। बच्चे भी उत्साहित होकर
तैयार हो गए। विपन्नबुद्धि ने प्रश्न पूछा- बच्चों! मान लो मैं तुम्हारे पिताजी को
''500 रुपए'' उधार दूँ और ''10 प्रतिशत'' वार्षिक ब्याज लूँ तो वे तीन साल बाद
कितने रुपए लौटाएँगे?
सभी बच्चे ब्याज का सूत्र लगाकर प्रश्न हल करने
लगे, तभी एक विद्यार्थी आया और पचास का नोट उठाकर अपनी जेब में रखने लगा।
विपन्नबुद्धि ने टोका, "क्यों जी? नोट क्यों उठाया?" "जी मैंने सही उत्तर लिख दिया
है।" बच्चे ने विश्वास पूर्वक गुरुजी को
समझाया। "क्या उत्तर आया?" विपन्नबुद्धि ने आश्चर्य से पूछा। "जी शून्य!" बच्चे ने
सहज भाव से उत्तर दिया। "अबे मूर्ख! इतना भी नहीं जानता? कि मूलधन में ब्याज
जोड़ेंगे तो मिश्रधन अधिक होगा।" विपन्नबुद्धि ने डाँटने के अंदाज़ में पूछा। बच्चा
बोला, "गुरुजी! आप गणित तो बहुत जानते हैं पर मेरे पिताजी को नहीं जानते। उन्हें
मैं जानता हूँ। उनने जब भी उधार लिया है कभी लौटाया ही नहीं। आप कहीं फँस मत जाना।
उत्तर बिल्कुल शून्य ही रहेगा।"
बेचारे गुरुजी शून्य की ओर ताकते रह गए। फिर अपनी विफलता से खीजते हुए दूसरा
प्रश्न किया। "बच्चो! बताओ! यदि एक कंपनी को एक किलो मीटर सड़क बनाने में तीन दिन
लगते हैं, तो पचास किलोमीटर सड़क कितने दिनों में बनेगी?"
फिर उसी विद्यार्थी ने प्रश्न की अपूर्णता की ओर इशारा करते हुए कहा, "गुरुजी!
आपका प्रश्न ही अधूरा है। आपने यह तो बताया ही नहीं कि सड़क बनना कहाँ है? क्यों कि
वही कंपनी यदि अमेरिका में सड़क बनाएगी तो पाँच महीने में बन जाएगी और यदि भारत में
बनाएगी तो पाँच साल में बनेगी और यदि कहीं पाकिस्तान में बनानी हो तो बनेगी ही
नहीं।"
बेचारा विपन्नबुद्धि अत्यंत तेज़ गति से समझदार
होते हुए बच्चों से तंग आकर अपने खोये हुए बचपन की याद करते हुए सोचने लगा- क्या थे
वे बचपन के दिन? जब गुरुजी ही
एकमात्र दृश्य और श्रव्य शिक्षा के साधन हुआ करते थे। कबड्डी और खो-खो का खेल!
निश्चिंतता का वातावरण! तनाव का कहीं नामोनिशान नहीं। कितना सुंदर था वह बचपन?
आज तो बच्चे बड़ों से ज़्यादा तनावग्रस्त नज़र आ रहे हैं। कहीं यह तनाव बच्चों को
सीधे बुढ़ापे की ओर न ढकेल दे। यही विपन्नबुद्धि की सबसे बड़ी चिंता है। बालदिवस पर
हमें विचार करना चाहिए।
16 नवंबर 2006
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