हम आजकल बहुत नाराज़ हैं। किस-किस से नाराज़ हैं और क्यों नाराज़ हैं, यह जानने के
लिए आपको बहुत ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। हम उन लोगों में से नहीं हैं जो
पूरे पाँच साल तक आपके सब्र का इम्तहान लें और फिर अपना दिल उधेड़कर आपको जख्म़
दिखाते फिरें। हम उन लोगों में से भी नहीं हैं जो प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से
अपनी बात कहें और आपके पल्ले कुछ न पड़े। हम तो निहायत सीधे-साधे आदमी हैं जो दिल
के किसी कोने में नाराज़गी का विष रखकर हँसते-हँसते डँसने में कतई यकीन नहीं रखते।
हम नाराज़ हैं तो भई नाराज़ हैं हम अपनी नाराज़गी क्यों छिपाएँ? सबको पता चलना
चाहिए कि अपुन नाराज़ हैं। मुल्क में सूचना का अधिकार लागू हो चुका है। अब बाकी के
लफ़ड़े लोगों को पता चलें न चलें लेकिन यह तो मालूम रहना ही चाहिए न कि अपुन आजकल
बहुत नाराज़ चल रहे हैं। आख़िर लोकतंत्र है भई। कोई फौजी शासन थोड़े ही है जो बूटों
के भार तले किसी की नाराज़गी रौंद दी जाए।
हम अक्सर चुप रहते हैं। बयान नहीं देते। जैसा-जैसा हमें हुक्म होता है, वैसा-वैसा
हम कर देते हैं। हम रियैक्ट नहीं करते लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही है कि हम नाराज़
नहीं हैं। नाराज़ तो हम हैं ही। अब देखो न, मुझसे पूछे बिना मेरे बेटे ने पी. एम.
टी. की परीक्षा के लिए फ़ार्म भरकर भेज दिया। उसे प्लस-टू में पास कैसे करवाया, यह
या तो मैं जानता हूँ, या मेरा खुदा या फिर वह प्रिंसीपल, जिसने उसका सारा
प्रश्नपत्र हल कर दिया था। लेकिन पी.एम. टी. का एग्ज़ाम मेरे किसी दोस्त के निजी
स्कूल में तो होगा नहीं जो बेटा बिन पढ़े पास हो जाए। क्या मेरी नाराज़गी अपनी जगह
सही नहीं है? पारदर्शिता का दौर है। इस नाराज़गी की वजह आपको मालूम होनी चाहिए न!
एक और वजह भी है हमारे नाराज़ होने की। किसी भी कार्यक्रम में हमें कोई भाव नहीं
दिया जाता। हम मंच संचालक को चिटें भिजवाते ही रह जाते हैं कि भई हम भी किनारे पर
खड़े हैं, अपने संबोधन में हमारा भी नाम ले दो। लेकिन इन चिटों पर ग़ौर फ़रमाने की
बजाए मंच संचालक महोदय इसे अपनी मुट्ठी में यों मसल देते हैं जैसे नाराज़ प्रेमिका
फूल को मसल कर रख देती है। मंच संचालक की इस बेरुख़ी से पब्लिक को पता ही नहीं
चलता कि हम भी वहाँ पर थे। क्या हमारी कोई बुक्कत नहीं है? क्या हमने बेकार में नया
पैंट-कोट सिलवाया? ऐसे-ऐसे लोग समारोह और अख़बार में जगह पा जाते हैं जिनकी कोई
कांट्रीब्यूशन ही नहीं होती। ऐसे में हम नाराज़ भला क्यों न हों? आख़िर कोई
आचार-संहिता, कोई पैमाना, कोई प्रोटोकॉल होना चाहिए।
दो साल पहले मोहल्ले में एक कोर कमेटी बनी। एक
सज्जन ने मुझे सपरिवार खाने पर बुलाया। दीवाली पर ड्राई फ्रूट का गिफ्ट पैक भी
भिजवाया। हमने कई लोगों को नाराज़ करके कोर कमेटी के चुनाव में उस सज्जन को प्रधान
की कुर्सी पर बिठवाया, इसके बाद वह सज्जन एक हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष भी बनें
लेकिन हमारी तरफ़ से उन्होंने आँखें
फेर ली। जिन लोगों ने कोर कमेटी के चुनाव में उनकी मुखालफ़त की थी, वे अब उनकी लाल
बत्ती वाली कार में सैर फ़रमाते हैं। हम वहीं पैदल के पैदल। पिछली दीवाली पर भी
उन्होंने हमें गिफ्ट नही भिजवाया और यह दीवाली भी ड्राई फ्रूट की बाट जोहती रही।
ऐसे में पत्नी के सामने हमारी क्या इमेज रही और क्या-क्या नहीं हमें सुनना पड़ा, यह
हम ही जानते हैं। ऐसे में हम नाराज़ क्यों न हों?
हमारी नाराज़गी की एक निहायत व्यक्तिगत वजह भी है। सम्मान और आवार्ड थोक में बँट
रहे हैं। जहाँ देखो, वहाँ अलंकरण समारोह हो रहे हैं। जिसे देखो, वही सम्मानित हुआ
जा रहा है। हमें कोई पूछ ही नहीं रहा। हमारा मूल्यांकन करने की किसी के पास फ़ुरसत
ही नहीं है। इतनी संस्थाओं को इस उम्मीद में चंदा दे चुका हूँ कि कभी न कभी तो अपुन
का ध्यान रखेंगी लेकिन हमारे चंदे से दूसरे लोग शालें, स्मृति चिन्ह बटोर रहे हैं।
क्या घोर कलयुग आ गया है। क्या बनेगा इस मुल्क की मेरे जैसी होनहार प्रतिभाओं
का।
इसके अलावा भी कई वजहें हैं हमारी नाराज़गी की। लेकिन हम अनुशासन की परिधि में बँधे
हैं। बाकी की वजहें बताकर क्या अपनी खाट खड़ी करवानी है या फिर अपना तंबू उखड़वाना
है! हमने तो सिर्फ़ आपको यही बताना था कि हम आजकल बहुत नाराज़ चल रहें हैं।
9 नवंबर 2006
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