|
अकादमी, अनुदान और नया लेखक
|
|
आज से कोई ''5 या 10 या 15 या 20 साल'' पहले (5 से 10, 15 या 20 तक मैं इसलिए पहुँच रहा हूँ कि पता नहीं मुझ जुगाड़हीन का यह व्यंग्य कितने साल बाद छपे, सो कम-अज़-कम इस अर्थ में तो इसकी प्रासंगिकता बनी रहे) होता यह था कि फ़िल्म इंडस्ट्री में नई-नई आई हीरोइन कहती थी कि न-न अंग प्रदर्शन तो मैं हरगिज़ नहीं करूँगी। घाघ, अनुभवी और दूरदर्शी निर्माता-निर्देशक तड़ से समझ जाते थे कि ज़रूर करेगी और भरपूर करेगी। कुछ दिन बाद जब फ़िल्में मिलना कम होने लगता या मीडिया में चर्चा बंद होने लगती तो हीरोइन ठंडी पड़ने लगती। उसूलों के बोझ को कपड़ों की तरह उतार फेंकती और कहती, 'कहानी या दृश्य की माँग पर ऐसा करने में मैं कोई हर्ज़ नहीं समझती।' (अब यह बात अलग है कि धर्मेंद्र और सलमान सरीखे हीरो लोग को कपड़े उतारने के लिए ऐसे बहानों की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि मर्दाना मीडिया और मर्दाना समाज दोनों ही उनके अनुकूल पड़ते रहे हैं।) धीरे-धीरे उसके तर्कों का जुलूस ज़ोर-शोर से आगे बढ़ने लगता, 'भई, अब स्विमिंग-पूल में नहाने का दृश्य है तो स्विमिंग-कॉस्टयूम नहीं पहनूँगी तो क्या सलवार-सूट पहनूँगी' या 'कैबरे-डांसर' का रोल क्या साड़ी लपेट कर करूँगी' वगैरह। मैं भी कई साल तक भीष्म-प्रतिज्ञा जैसा कुछ किए बैठा रहा कि अपने पैसों से अपनी
किताबहरगिज़ नहीं छपवाऊँगा। साथ ही यह भी रटता रहा कि अख़बार में व्यंग्य का कॉलम
तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं लिखूँगा (और तब तक रटता रहूँगा जब तक किसी अच्छे अख़बार से
ऑफ़र नहीं आ जाती)। मुद्दतों इंतज़ार करता रहा कि कोई प्रतिभा का पारखी प्रकाशक आएगा,
कहेगा, 'अजी कहाँ छुपे बैठे हैं आप। अपना भी नुकसान कर रहे हैं और हमारा भी। आइए,
हम दिलाएँगे आपको आपकी सही जगह।' पर ऐसा कुछ न होना था न हुआ। मैं फैज़ की
पंक्तियाँ पढ़-पढ़ कर दिल को तसल्ली देता व सोग मनाता : दुख की इस बेला में एक दिन किसी अख़बार में अकादमी
का विज्ञापन देखा। नए लेखकों(नए लेखक भी कम-अज़-कम दो तरह के होते हैं-एक तो वे जो पाँच-पाँच
बार अनुदान लेकर भी नए बने रहते हैं। दूसरे मेरे जैसे जो 'अपरिहार्य' कारणों से
ताउम्र नए
बने रहते हैं।) को दिए जाने वाले अनुदान की सुगंध उसमें से फूटी पड़ रही थी। मैं
आदतन उस खुशबू की गहराई में घुस पड़ा और मेरा विकृत मस्तिष्क अपनी औक़ात पर उतर आया। अकादमी तो लेखक की मदद कर रही है क्योंकि वो तो घोषित तौर पर बनी ही इसलिए है। प्रकाशक लेखक की मदद क्यों कर रहा है? क्योंकि उसे अमुक राशि का चैक मिलेगा। जब अकादमी ने लेखक पर अपना ठप्पा लगा ही दिया है और प्रकाशक ने अपनी बुद्धि की सीमाओं को स्वीकार करते हुए अकादमी के निर्णय के आगे घुटने टेक ही दिए हैं तो फिर प्रकाशक को चैक क्यों चाहिए? क्या प्रकाशक यह मानता है कि उक्त नए लेखक को छापने पर उसे उक्त राशि का घाटा होगा। घाटा होने के निहितार्थ यही तो हुए कि पुस्तक न तो बिकेगी, न सरकारी ख़रीद में जाएगी। अर्थात कोई भी इसे नहीं पढ़ेगा। फिर इससे लेखक को क्या फ़ायदा होगा? फ़ायदा न लेखक को होगा न प्रकाशक को तो इस अनुदान का अर्थ क्या हुआ? क्या लेखक पर तरस खाया जा रहा है? तमाम तरस के बाद भी अनुदान अगर अपमान सिद्ध होता हो तो कोई स्वाभिमानी लेखक इसे क्यों लेगा? कुछ समझे आप? उक्त सारी बौद्धिक कवायद क्यों की मैंने! नहीं समझे तो समझ लीजिए कि
आख़िरकार मैंने अपनी किताब अपने पैसों से छपा डाली। मगर उससे क्या होता है? चलो अपने पैसे से छपा ली लेखक ने किताब। पर किसी पत्र-पत्रिका में उसका कोई दोस्त तो है ही नहीं। तो फिर करे फ़ोन पर फ़ोन। 'वो भाई साहब वो दो साल पहले अपनी एक किताबभेजी थी समीक्षा के लिए उसका कुछ हुआ। ज़रा देख लीजिए एक बार 'आवाज़ में रिरियाहट भी हो तो पत्र/पत्रिका के दफ़्तर में राजगद्दी के बगल में बैठे ओहदेदार साहित्यकार(नुमा) के अहंकार को अनोखा सुख मिलता है। जवाब में वे उनींदे से कुछ धकियाते हैं, "अब भाई, इतनी जल्दी तो समीक्षाएँ छपती नहीं। अमुक जी की ही किताब साढ़े तीन साल से रखी है जबकि उनके भाई अख़बार मालिक के साले के ख़ास जीजा हैं। खुद अमुक जी मेरे मित्र के छोटे भाई के मित्र के बड़े भाई हैं।" लीजिए। अब अपना-सा मुँह लेकर रह जाने के अलावा क्या चारा है आपके पास! ज़्यादा हुआ तो यही बुदबुदा कर रह जाएँगे आप, 'लो भई, अब तो अख़बारी दफ़्तर और सरकारी दफ़्तर में कोई फ़र्क ही नहीं रह गया।' तत्पश्चात, प्रकाशक की छत्रछाया के बिना और अपने 'अव्यवहारिक' स्वभाव के चलते
लोकार्पण या विमोचन के बारे में तो सोचते भी आपको झुरझुरी आने लगेगी। एक तरीका और भी है कि आप तस्लीमा नसरीन या ओशो रजनीश जितने विवादास्पद हो जाइए बशर्ते कि आपमें उतनी बौद्धिक व मौलिक ऊर्जा व साहस हो। मगर 'भाई' लोगों से बच के। जी हाँ, भाई लोग साहित्य में भी होते हैं मगर बड़े ही 'सोफिस्टीकेटेड' किस्म के। आप ज़िंदगी भर हाथ-पाँव मारते रहिए मगर न तो ये कभी सीधे-सीधे सामने आएँगे न ही कभी आप इन पर सीधे-सीधे ऊँगली उठा पाएँगे। 'भाई' लोगों को पता चला गया तो वे आपको छपने ही नहीं देंगे। बिना छपे विवादास्पद कैसे होंगे आप? बताइए! 'भाई' लोग आपको विवादास्पद तो होने देंगे नहीं साथ ही साहित्य-समाज में संदेहास्पद और अछूत भी बना देंगे। आप देखें कि हिंदी साहित्य में कभी कोई तस्लीमा, रशदी या मंटो नहीं होते। बेचारे राजेंद्र यादव कोशिश कर-कर के हार गए पर उखाड़ कुछ नहीं पाए। बहरहाल, हीरोइन अगर स्थापित हो गई हो या आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो तो वह अपने पसंदीदा विषय पर ऐसी फ़िल्म का निर्माण या निर्देशन कर सकती है जिसमें उसे किसी स्तर पर कोई समझौता न करना पड़े। अब यह उसके बौद्धिक स्तर और साहस पर निर्भर करता है कि वो अपने पैसे से 'घर एक मंदिर' व 'स्वर्ग से सुंदर' बनाती है या 'फायर','वाटर' और 'द बैंडिट क्वीन'। 24 मार्च 2006 |