बेकार चीज़ों को भी लोग कभी-कभी बड़ा महत्व देते हैं। घी को भूल जाते हैं, मगर बहू
की खिचड़ी की सराहना करते नहीं अघाते। राम के पुरुषार्थ की तो बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा
की जाती है, लेकिन शूर्पनखा की बेचारी नाक को कोई नहीं पूछता। हम पूछते हैं कि यदि
शूर्पनखा के नाक न होती और होने से ही क्या होता है, होकर के भी कटी न होती, तो राम
के पुरुषार्थ को कौन पूछता?
यह बात ग़लत है कि राम ने रावण को मारने के लिए या
'भक्त-भूमि-भूसर-सुरभि' और देवताओं के कल्याण के लिए जन्म धारण किया था। हमारा विचार है, विचार क्या है
पूरा-पूरा विश्वास है कि राम का जन्म शूर्पनखा की नाक कटवाने के लिए ही हुआ था।
जैसे, ताड़का नहीं होती तो विश्वामित्र राम को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देते?
कैकेयी न होती तो दशरथ राम को वन भेजते? उसी प्रकार शूर्पनखा की नाक न कटी होती तो
राम-रावण युद्ध होता? वाल्मीकि रामायण लिखते? तुलसी के मानस में मानस उतरता?
गुप्त जी साकेत के सोपान पर चढ़ते? यह सब राम के पुरुषार्थ और महान चरित्र के कारण
नहीं, शूर्पनखा की नाक के कारण हुआ है।
शूर्पनखा की नाक को आज के कवि, कलाकार, इतिहास-लेखक, धर्मशास्त्री, पौराणिक भले ही
भूल जाएँ, लेकिन हम ऐसी ग़लती नही कर सकते। हमारे विचार से 'नाना पुराण निगमागत' का
सार तुलसी की रामायण नहीं, रावण की बहन की नाक है। वाल्मीकि ने हमें आदि-काव्य नहीं
दिया। 'मरा-मरा' कहकर भला कोई महाकवि बन सकता है। क्रौंच पक्षी के वध की जो कहानी
प्रचलित है, वह कपोल-कल्पित है। असली बात यह है कि आदि-कवि क्रौंच-वध को देखकर
नहीं, शूर्पनखा की कटी नाक को देखकर बिलबिला उठे थे और उनके मुख से 'मा निषाद'
नहीं, पूरी रामायण निकल पड़ी थी। वाल्मीकि ने 'मा निषाद' वाला श्लोक गढ़ा इसका क्या
प्रमाण है? क्या यह बात किसी शिलालेख पर, ताम्र या भोजपत्र पर अंकित पाई गई है?
किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय के अनुसंधान पर किसी को डॉक्टरेट की उपाधि दी है?
लेकिन, शूर्पनखा के नाक कटने की बात का उदाहरण स्पष्ट रूप से वाल्मीकि ने अपने
ग्रंथ में स्वयं दिया है और जिले-जिले तथा महल्ले-महल्ले हर साल वह नाक आज भी
धूमधाम के साथ काटी जाती है।
ऐसी सप्रमाण घटना को महत्व न देकर लोग अहेलियों-बहेलियों की कहानियों की गप्पों पर
कब तक विश्वास करते रहेंगे? ख़ैर, हमें चाहे इस विषय पर डॉक्टर की उपाधि मिले या न
मिले, लेकिन हम संसार को यह बता देना चाहते हैं कि अगर शूर्पनखा की नाक न कटी होती
तो न आदि-काव्य लिखा जाता न तुलसीकृत रामायण के घर-घर खंड और अखंड पाठ होते और न घर
बैठे मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि बन गए होते। इतना ही क्यों? भारत की जिस संस्कृति
पर हम गर्व से गुब्बारे हो उठते हैं, विधर्मी और विदेशियों से समझे बिना-समझे टकरा
जाते हैं, उस संस्कृति के मूल में 'एकछत्र एक मुकुटमणि' अक्षरोंवाले राम नहीं,
अपितु शूर्पनखा की तीन इंच लंबी आगे की ओर तोते के समान झुकी हुई पतली, चंपे की
कली-सी वह नाक जिसे संस्कृत में स्वर्ग कहते हैं, वर्तमान है।
शूर्पनखा की नाक न कटी होती तो सीता-हरण होता? राम जैसे नर-पुगंव ने वानरों से
'शेकहैंड' किया होता? पानी में पत्थर तैरे होते। हनुमान संजीवनी की जगह पूरा पहाड़
उठा लाए होते? लक्ष्मण ने अबला की नाक के अलावा मेघनाद को भी मार डाला होता? रावण
के एक नहीं, दस सिर थे, दो नहीं, बीस भुजाएँ थी, उसके मुँह में नहीं, नाभि में अमृत
था। उसने विभीषण को लात मारकर घर से न निकाल दिया होता तो इसका पता चलता? राम अकारण
रावण को क्यों मारते? रावण का सिर फिरा था, जो बैठे-ठाले राम से टक्कर लेता? वह
शूर्पनखा की नाक ही थी, जो उसे दंडकारण्य में खींच ले गई, जिसने उसे सीता-हरण के
लिए विवश किया। यह कहना ग़लत है कि राक्षस लोग रावण के लिए जूझ मरे। नहीं, उन्होंने
अपनी सकुटुंब आहुति शूर्पनखा की नाक के लिए दी थी।
हे शूर्पनखे की नाक! तुम कट गई, तो क्या हुआ, पर तुमने भारत के डूबते हुए धर्म,
मिटती हुई संस्कृति और अस्त होते हुए युग-सत्य के सूर्य की नाक को बचा लिया। लोग
कृतघ्न हैं, जो तुम्हारे महत्व को नहीं मानते। राम और हनुमान के तो मंदिर बने हैं,
मगर शूर्पनखा के मंदिर नहीं। हनुमान के डंडे की पूजा होती है, मगर शूर्पनखा की नाक
की नहीं। परंतु हमें विश्वास है कि सत्य का सूर्य फिर प्रकट होगा, वास्तविकता पर
फिर प्रकाश पड़ेगा। कविजन रावण और विभीषण पर ही कविता लिखकर नहीं रह जाएँगे, वे एक
न एक दिन शूर्पनखा पर भी महाकाव्य अवश्य लिखेंगे।
कैसी थी वह नाक
अहा, कैसी होगी वह शूर्पनखा की नाक, जिसे कसाई लक्ष्मण ने बिना आगा-पीछा देखे काट
दिया। निश्चय ही वह नरगिस की नाक से नुकीली रही होगी। क्लियोपेट्रा की नाक, जिस पर
जूलियस सीज़र कुरबान हो गया था, कि कहानी आपने सुनी होगी।
वाल्मीकि ने शूर्पनखा की नाक के कटने का ज़िक्र तो किया, मगर वह नाक कैसी थी, कितनी
लंबी थी, कितनी ऊँची थी, वह कैसे उच्छवास और प्राणवायु ग्रहण किया करती थी, उसे
कौन-सी खुशबुएँ प्यारी थीं - इसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया। अब सिर्फ़ कल्पना
करके ही इस विषय में कुछ संतोष धारण किया जा सकता है।
हे शूर्पनखे! तेरे मुख पर नाक ही सर्वोत्तम होगी। निश्चय ही अपने सौंदर्य में उसने
आँख को उठाकर नाक पर रख दिया होगा। हे रूपसी! अब तुम्हीं किसी दिन सपने में आकर
मुझसे कहो कि तुम नाक में नथ पहनती थीं या लोंग? तुम्हारा क्रोध होठों से व्यक्त
होता था या नाक के नथुनों से? मुसकराते समय तुम्हारी नाक कितनी सिकुड़ती थी और आवेश
में कितनी फैलती थी? इसे मैं किस फीते से नापूँ? हे वन-विहरणशीले! जैसे-जैसे मैं
तेरी नाक के बारे में सोचता हूँ, मेरे हाथ-पैर ढीले होने लगते हैं और रह-रहकर ख़याल
आता है कि सुमित्रानंदन (पंत ने नहीं) ने उचित नहीं किया। अरे, काटने को नाक ही रह
गई थी?
नारियों ख़बरदार!
आप ज़रा सोचिए, शूर्पनखा ने अपनी नाक की बलि देकर संसार की
नारियों को कितनी बड़ी शिक्षा दी है। उसकी कटी नाक विश्व की नारियों से कह रही हैं
कि मैं नकटी बनी, सो बनी मगर तुम अपनी-अपनी नाक बचा लेना। ख़बरदार! जो कभी किसी
पुरुष से भूलकर भी
प्रणय-निवेदन किया। मन की बात को कभी मुँह पर न लाना। अपनी चाह को होंठों से बाहर न
करना। अगर किया तो नाक कट जाएगी।
उसी दिन से, यानी शूर्पनखा की नाक को खोकर औरतों
ने यह तय कर लिया है कि वे प्रणय और परिणय का प्रस्ताव पुरुषों की तरफ़ से आने देंगी, खुद पहल नहीं करेंगी। वे
शिकार को जाल में फाँसेगी तो सही, लेकिन हमेशा अपने जुल्म से इनकार करती रहेंगी। मन
ही मन जान तो देती रहेंगी, मगर मुँह से उफ न करेंगी। ज़रा सोचिए, अगर शूर्पनखा की
नाक न कटी होती और नारियाँ पुरुषों के घर जाकर यह कहतीं कि 'हाय, हम तुम पर मरती
हैं?' तो सृष्टि नहीं चलती, मानें या न मानें प्रलय हो जाती। इस प्रलय को रोका
किसने? शूर्पनखा की नाक ने!
शूर्पनखा की नाक केवल प्रलय को रोकनेवाली ही नहीं,
वह लोक और वेद की सीमा है। रामायण या राम के वचन लोक की मर्यादा को उतने स्थिर नहीं
रखते, जितनी शूर्पनखा की नाक। शूर्पनखा की नाक कहती है कि अगर कुल को राम की
कोपाग्नि से बचाना है तो शूर्पनखाओं पर काबू रखो। धर्म, विज्ञान, संस्कृति और वैभव
की रक्षा करनी है, तो शूर्पनखा की नाक न कटने दो, और यह भी कि अगर कोई पर-पुरुष तुम्हारी बहन की नाक
बरबस काट लेता है तो उसके सामान की रक्षा के लिए सब कुछ स्वाहा कर दो। आप पूछेंगे
कि हमने शूर्पनखा की नाक पर यह लेख क्यों लिखा? तो हम अत्यंत विनम्रता से आपको
उत्तर देंगे कि हमने शूर्पनखा की नाक पर कलम चलाकर उन सबकी नाक काट ली है, जो अब तक
इस महान वर्ण्य-विषय को भूले हुए थे। साहित्य की उपेक्षिता उर्मिला और यशोधरा नहीं,
शूर्पनखा की नाक भी है।
१६ अक्तूबर २००५
|