अख़बार में छपी इस ख़बर से मैं चकित भी हूँ और
परेशान भी। ख़बर टोक्यो से छपी है और इसका सारांश यह है कि वह दिन दूर नहीं जब बंदर
इंसान की भाषा समझने लगेंगे। जापानी विज्ञानी आत्सुशी इरिकी अपनी प्रयोगशाला में
बंदरों को प्रशिक्षित करने में जुटे हैं और उनके अध्ययनों में बंदरों के न्यूरल
सिस्टम यानि तंत्रिका तंत्र को भी शामिल किया गया है। आत्सुशी इरिकी का प्रयोग अपनी
जगह सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंताएँ भी अपनी जगह वाजिब हैं।
अब आत्सुशी इरिकी तो बंदरों को आदमी की भाषा
सिखाकर नोबल हासिल करने की कतार में लग जाएँगे लेकिन भारत जैसे उन मुल्कों का क्या
होगा जहाँ बंदर को अभी भी बंदर समझकर कोई ज़्यादा भाव नहीं दिया जाता। मेरे विचार
से अगर बंदर इंसान की भाषा सीख गए तो यहाँ का पूरा सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा ही
गड़बड़ा जाएगा। बंदर इंसान की भाषा समझने के साथ-साथ इंसान की मंशा भी समझेंगे और
इंसान की खोपड़ी के भीतर कई बार कैसी-कैसी खिचड़ी पकती है, ज़ाहिर है बंदरों को
उसकी महक भी पता चल जाएगी। बंदर वैसे भी आदमी के पूर्वज ठहरे और भले ही सदियों पहले
हमारी तत्कालीन पीढ़ियों ने अपने पूर्वजों की आँखों में धूल झोंकने के लिए नई भाषा,
नए मुहावरे गढ़ लिए हों और चेहरों पर नकाब ओढ़ लिए हों लेकिन जापानी विज्ञानी के
अनुसंधान अगर रंग ले आए तो सब किए कराए पर पानी फिर जाएगा। सब गुड़ गोबर हो जाएगा।
हमारे पूर्वज तब हमारे बारे में क्या सोचेंगे?
आत्सुशी इरिकी जी, ज़रा इस बात पर विचार करो कि
अगर बंदरों को यह मालूम पड़ गया कि हमारे रहनुमाँ कहते कुछ हैं और करते कुछ तो
बंदरों का यकीन हमारी व्यवस्था से उठ जाएगा। हम तो वस्तुस्थिति समझते हुए भी इसलिए
आँख मूँद लेते हैं या फिर तालियाँ पीटते हैं ताकि रहनुमाओं की हम पर नज़र-ए-इनायत
रहे लेकिन बंदर भला क्यों आँखें मूदेंगे या तालियाँ बजाएँगे? बंदर इस देश के वोटर
थोड़े ही हैं जो 'रियेक्ट' नहीं करेंगे और न ही बंदर कोई नौकरीपेशा प्राणी है जो
तबादले के चाबुक से रिरियाने लगेंगे। बंदरों को तो हम उनकी किसी खुराक पर सबसिडी
देकर भी उनसे यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे ज़िदांबाद के नारे लगाएँ और हमें 'अकॉमोडेट'
करें। बंदरों के लिए तो आत्म-सम्मान सर्वोपरि होता है और इसीलिए मैं आत्सुशी इरिकी
के प्रयोगों से चिंतित हूँ।
बंदर अगर आदमी की भाषा सीख गए तो राह चलते बंदे को उसी की भाषा में तमीज़ सिखाते
फिरेंगे। अगर बंदा गुस्से में रियेक्ट भी करेगा तो एक की बजाए चार गालियाँ सुनने को
मिलेंगी। कैसा अजीब नज़ारा होगा। बंदा नीचे से 'देख लेने' की धमकी दे रहा होगा तो
बंदर पेड़ पर बैठा 'गाली पुराण' बाँच रहा होगा। हो जाएगा न हमारे सामाजिक ढाँचे का
कबाड़ा। बात जब बढ़ जाएगी तो समाज शास्त्री बंदरों से 'डॉयलॉग' करते फिरेंगे। दुहाई
दी जाएगी कि औलाद तो ग़लतियाँ करती ही है, आप ठहरे पूर्वज। इसलिए औलाद को बख़्श दो।
बंदर इंसान की भाषा समझेंगे तो ज़ाहिर है कि इंसान
की मंशा भी समझेंगे। अब दूसरे लोग चाहे हमारे कुटिल इरादे जान पाएँ या न जान पाएँ
लेकिन बंदरों से कुछ भी छिपा नहीं रहेगा। बंदर बीच चौराहे में बंदे को नंगा करेंगे
और दुनिया वालों को चीख-चीख कर बताएँगे कि हुँ ने दलाली खाई है, फ़लाँ ने रिश्वत
दी और ली है, फ़लाँ ने जन-सेवा के नाम पर इकठ्ठा किया पैसा अपने कुनबे के कल्याण
में लगा दिया है, फ़लाँ बंदा अपने ही दल में भीतरघात कर रहा है और फ़लाँ बंदा दूसरी
नाव में छलाँग लगाने की फ़िराक़ में हैं।
बंदरों से आप क्या-क्या छिपाएँगे। उन मर्दों की
हालत तो सबसे खस्ता हो जाएगी जो घर से बाहर इश्क फ़रमाते हैं और बीबी के सामने दुम
हिलाते हैं। बंदर ऐसे मर्दों की पोल उनके घर जा-जा कर खोलते नज़र आएँगे। जंगलों में
जाकर प्रेम लीलाएँ करने वालों का चैन भी छिन जाएगा। पिया के साथ प्रकृति की गोद में
हनीमून मनाने निकली दुल्हन शरमा कर पिया से कहेगी 'हाय, पेड़ पर बैठे बंदर ने हमें
देख लिया। अब वह क्या सोचेगा?'
बंदर शहरों की बातें जंगलों में बताएँगे और जंगलों
के किस्से शहरों तक पहुँचेंगे। जंगलों में अपराधियों और पुलिस के बीच क्या-क्या
खिचड़ी पकती है, बंदरों को सब मालूम हो जाएगा। और अगर कहीं बंदरों ने हमें ब्लैकमेल
करने की अदा सीख ली तो नंगे लोगों की तादाद बढ़ जाएगी और हमाम भी बड़े-बड़े साइज़
में बनाने पड़ेंगे। आत्सुशी इरिकी जी, मैं तो यह कल्पना करके ही शर्मसार हो रहा हूँ
कि बड़े-बड़े हमाम भी छोटे पड़ जाएँगे और हमाम में तिल भर जगह पाने के लिए हमें
सिर-धड़ की बाजी लगानी पड़ेगी। बंदर हमारी इस हालत पर हँसेंगे या तरस खाएँगे,
फिलहाल मैं इस बारे में 'ऑन द रिकॉर्ड' या 'ऑफ द रिकार्ड' कुछ भी कह पाने की स्थिति
में नहीं हूँ। लेकिन एक बात ज़रूर कहूँगा कि 'पब्लिक है, सब जानती है. . .' गीत की
तर्ज़ पर अगर भविष्य में दुनिया वालों को ये पैरोड़ी सुनने को मिले तो किसी को अचरज
नहीं होना चाहिए कि 'बंदर हैं. . . सब जानते हैं।'
24 नवंबर 2005
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