हास्य व्यंग्य

  सांस्कृतिक विरासत 
—अगस्त्य कोहली


"भई, अपनी कल्चर और लैंग्वेज बहुत इंपोर्टेंट होती है।"
"होती तो है," मैं बोला। "अपनी संस्कृति और भाषा छूट जाए, तो अपना बचा ही क्या?"
"सही बात है।" रमेश बाबू ने सिर हिलाया। "इसीलिए तो हम अपने बच्चों को हिंदी सिखा रहे हैं।"
"अच्छा?" मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। "आप घर पर नियमित रूप से बच्चों को हिंदी पढ़ाते हैं?"
"नहीं, नहीं, घर पर नहीं। वो एक हिंदी स्कूल है न? हर संडे को दोपहर को क्लासेज़ लगती हैं। वहाँ अपने दोनों नन्हें मुन्नों को दाखिल करा रखा है। बड़ा अच्छा काम कर रहे हैं वो लोग। बड़ी मेहनत करते हैं।"

मुझे अमरीका में रहते कई वर्ष हो गए हैं। कोई हिंदुस्तानी दोस्त न मिले, तो हिंदी बोले बिना कितने ही दिन निकल जाते हैं। पढ़ना–लिखना, सीखना–सिखाना तो बहुत दूर की बात है। यह जान कर कि शहर में एक संस्था ऐसी भी है जो कि विदेश में बसे भारतीय परिवारों के बच्चों को हिंदी सिखाती है, मुझे बहुत हर्ष हुआ। सोचा इनके बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

"अच्छा! यह तो बहुत बढ़िया बात बताई आपने, रमेश बाबू। क्या सिखाते हैं यह लोग इस हिंदी स्कूल में? हिंदी सिखाते हैं, तो बच्चे कुछ न कुछ भारतीयता भी अपने आप ही ग्रहण करते होंगे?" भाषा तो समाज की आत्मा के समान है– यदि कोई व्यक्ति एक नई भाषा सीखे, तो उस समाज की संस्कृति से अछूता कैसे रह सकता है?"
"अरे नहीं, सिर्फ़ हिंदी थोड़े न सिखाते हैं। कल्चर भी सिखाते हैं।"
"कल्चर माने?" भारतीय संस्कृति जैसा व्यापक विषय पढ़ाना आसान तो है नहीं। मुझसे पूछे बिना नहीं रह गया।
"कल्चर के नाम पर सिखाते क्या हैं? हमारे धर्म? दर्शन शास्त्र? नृत्य और संगीत. . .? पारंपारिक कलाएँ?"
"अरे भई सब कुछ! कह तो रहा हूँ– बड़ी मेहनत का काम है। रिलिजन्स भी सिखाते हैं, म्यूज़िक भी, डान्स भी। अपने देश की रिवर्स, नैशनल सिंबल, नैशनल ऐनिमल्स, स्पोट्‌र्स– सब कुछ।"

रमेश बाबू की अपनी हिंदी चाहे कितनी ही भ्रष्ट क्यों न हो, उन्हें इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि अपने बच्चों को देश की संस्कृति से जोड़े रखने का उन्होंने एक उत्तम रास्ता खोज निकाला था। इस संस्था और वहाँ पढ़ाई जाने वाली हिंदी का स्तर क्या है, यह कहना तो कठिन है। पर स्तर कितना भी ख़राब क्यों न हो, अपने रमेश बाबू की हिंदी से बुरा क्या होगा। और ये तो दिल्ली से हिंदी सीख कर आए हैं!

"बस हमें तो एक ही शिकायत है इस हिंदी स्कूल से. . ." रमेश बाबू की सूरत पर उदासी झलकी।
"वह क्या?"
"वो लोग स्क्रिप्ट और राइटिंग पर बहुत स्ट्रेस डालते हैं। बच्चों से ज़्यादा, हम माँ बाप की मुसीबत हो जाती है। हम तो बार–बार उनसे यही कहते हैं, कि वो ग़लत चीज़ पर स्ट्रेस दे रहे हैं। हमारा तो हर बार यही फ़ीडबैक होता है। स्क्रिप्ट सीखने की क्या ज़रूरत है? बस बच्चों को हिंदी बोलना सिखा दो। हिंदी पढ़ने–लिखने की उन्हें कब ज़रूरत पड़ेगी? हिंदुस्तान में भी इंग्लिश से सारा काम चल जाता है।"
"रमेश बाबू, अभी तो आप कह रहे थे कि अपनी देश की संस्कृति के संपर्क में रहना बहुत आवश्यक है। अब आप कह रहे हैं कि हिंदी सीखने की क्या ज़रूरत है– अंग्रेज़ी से सारा काम चल जाता है। में समझा नहीं।"
"अरे भई– हिंदी सिखाने से मना कौन करता है। हम तो कहते हैं हिंदी ज़रूर सिखाओ। पर बच्चों को कोई पंडित तो बनाना नहीं है हमें. . .बस बोल–चाल के लायक आ जाए, बहुत है। ये स्क्रिप्ट में टाइम वेस्ट करने की क्या ज़रूरत है?"
"रमेश बाबू, अगर आप हिंदी सीखेंगे तो देवनागरी तो सीखनी ही पड़ेगी। बिना लिपि सीखे कोई बच्चा हिंदी कैसे सीख सकता है? वह किताबें कैसे पढ़ेगा? अभ्यास कैसे करेगा?"
"क्यों? हिंदुस्तान में इतने लोग हिंदी बोलते हैं– अनपढ़ गँवार लोग, जिन्होंने कभी पढ़ना–लिखना नहीं सीखा. . .वो हिंदी बोलना सीख सकते हैं, तो हमारे बच्चे नहीं सीख सकते?"
"हाँ, पर वे अनपढ़ लोग तो हिंदी भाषियों के बीच पलते हैं, इसलिए पुस्तकों की सहायता के बिना भी हिंदी सीख जाते हैं। आपके बच्चों को वह परिवेश कहाँ मिलेगा? आप अपने बच्चों के साथ घर पर हिंदी में बातचीत भी करते हैं क्या?"
"क्यों? अपने बच्चों को डिसअडवांटेज में क्यों रखें? उनकी इंग्लिश का स्ट्रांग होना बहुत ज़रूरी है। हम घर पर बच्चों के साथ हिंदी बिलकुल नहीं बोलते।"
"तो घर पर आप हिंदी में बातचीत नहीं करते, हिंदी पढ़ना–लिखना आप उनको सिखाना नहीं चाहते, तो फिर बच्चे हिंदी बोलना कैसे सीख जाएँगे?"

अचानक मुझे लगने लगा, कि मैं ऐसे ही रमेश बाबू की दूरदर्शिता को श्रेय दे बैठा, पर वे अपने बच्चों को हिंदी सिखाने में लगे हैं, या उस संस्था की नाक में दम किए बैठे हैं जो सचमुच बच्चों को हिंदी सिखाने की कोशिश कर रही है।

अगर बच्चा हिंदी पढ़ना नहीं सीखेगा, तो किताबें और अख़बार कैसे पढ़ेगा? और अगर बच्चों के लिए लिखी गई कहानियाँ नहीं पढ़ेगा, तो हिंदी में उसकी रुचि कैसे बढ़ेगी? जब आस–पास हिंदी बोलने वाले नहीं हैं, तो पुस्तकें ही तो हैं जो उसे हिंदी के नए शब्द सिखाएँगी, व्याकरण के नियमों के नए उदाहरण देंगी। किंतु अगर वह पढ़ ही नहीं पाएगा, तो यह सब उसके लिए बेकार है। न जातक कथाएँ, न कथाएँ, न पंचतंत्र, न बीरबल की कहानियाँ, और न तेनालीराम के चुटकुले।

बच्चों की बात छोड़िए, अपनी बात करते हैं। मैं अगर अपने विषय में सोचूँ, तो मुझे लगता है कि हिंदी जानने का सबसे बड़ा लाभ मुझे यह है कि सैंकड़ों वर्षों से हिंदी और उसकी सहयोगी बोलियों में जो साहित्य रचा गया है, मैं उसे पढ़ सकता हूँ, समझ सकता हूँ, और उसमें रचे बसे गहरे चिंतन से अपना जीवन सुधार सकता हूँ। कितना ही बार जब किसी इच्छा या लोभ के कारण मन व्याकुल होता है, तो कबीर की दो पंक्तियाँ मन ही मन दोहरा लेता हूँ–

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए, फल होय।।

या फिर सुबह के नाश्ते में ब्रेड पर मक्खन लगाते–लगाते, भगवान श्री कृष्ण यों ही याद आ जाते हैं–
मैंया मोही, मैं नहीं माखन खायो. . .

और ऐसी कौन सी गांधी जयंती बीतती है जब मैं 'रघुपति राघव राजा राम' नहीं गुनगुनाता?
अपने देश, अपने धर्म, और अपने आपसे जुड़े रहने का इससे सरल तरीका और क्या हो सकता है? और मैं यह सब कर सकता हूँ क्योंकि मुझे हिंदी पढ़नी–लिखनी आती है।

और यदि हिंदी हमें पिछली कुछ शताब्दियों के साहित्य से जोड़ती है, तो देवनागरी तो देवों की लिपि है। भारत से देवनागरी का संबंध तो हज़ारों वर्षों का है। संस्कृत में रचा गया सारा साहित्य देवनागरी के माध्यम से ही तो पाया जा सकता है। गीता का कर्म सिद्धांत हो या आयुर्वेद का स्वास्थ्य और चिकित्सा संबंधी ज्ञान। जो बच्चा देवनागरी पढ़ना नहीं सीखेगा, वह कालिदास के नाटकों की ओर कैसे आकृष्ट हो पाएगा? रमेश बाबू मानते तो हैं कि अपनी संस्कृति से जुड़े रहना आवश्यक है, पर गीता, आयुर्वेद और कालिदास को हटा दें, तो संस्कृति के नाम पर बचा ही क्या?

रमेश बाबू अपने बच्चों को इस सुख से दूर क्यों रखना चाहते हैं? पर लेक्चर पिलाने से कुछ नहीं होता। रमेश बाबू जब तक स्वयं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचेंगे, तब तक मेरे कुछ भी कहने–सुनने से कुछ नहीं होगा। तो प्रवचन की जगह, मैंने उनके सामने एक छोटा-सा प्रश्न रखा।

"रमेश बाबू, आप अपने बच्चों को हिंदी क्यों सिखाना चाहते हैं?"
"कैसी बातें करते हो भाई! तुम्हें बताया तो, लैंग्वेज और कल्चर से जुड़े रहना बहुत ज़रूरी है। बच्चे हिंदी नहीं सीखेंगे तो फिर देसी फिल्में कैसे देख पाएँगे? सब–टाइटल लगा कर कोशिश तो करते हैं, पर डायलौग समझ ही ना आए तो फ़िल्म का आधा तो मज़ा ही चला जाता है। उन्हें हिंदी न आई तो वे फ़िल्में देखनी छोड़ देंगे।"

मेरा लंबा-चौड़ा भाषण धरा का धरा रह गया। मैं नासमझ, अकारण ही कालिदास और कबीर की चिंता करता रहा– यहाँ तो गोविंदा और शाहरुख खान की रोज़ी रोटी ख़तरे में हैं. . .

24 मई 2005