हास्य व्यंग्य | |
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सांस्कृतिक विरासत |
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"भई, अपनी कल्चर और लैंग्वेज बहुत इंपोर्टेंट होती है।" मुझे अमरीका में रहते कई वर्ष हो गए हैं। कोई हिंदुस्तानी दोस्त न मिले, तो हिंदी बोले बिना कितने ही दिन निकल जाते हैं। पढ़ना–लिखना, सीखना–सिखाना तो बहुत दूर की बात है। यह जान कर कि शहर में एक संस्था ऐसी भी है जो कि विदेश में बसे भारतीय परिवारों के बच्चों को हिंदी सिखाती है, मुझे बहुत हर्ष हुआ। सोचा इनके बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। "अच्छा! यह तो बहुत बढ़िया बात बताई आपने,
रमेश बाबू। क्या सिखाते हैं यह लोग इस हिंदी स्कूल में? हिंदी सिखाते हैं, तो बच्चे
कुछ न कुछ भारतीयता भी अपने आप ही ग्रहण करते होंगे?" भाषा तो समाज की आत्मा के
समान है– यदि कोई व्यक्ति एक नई भाषा सीखे, तो उस समाज की संस्कृति से अछूता कैसे
रह सकता है?" रमेश बाबू की अपनी हिंदी चाहे कितनी ही भ्रष्ट क्यों न हो, उन्हें इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि अपने बच्चों को देश की संस्कृति से जोड़े रखने का उन्होंने एक उत्तम रास्ता खोज निकाला था। इस संस्था और वहाँ पढ़ाई जाने वाली हिंदी का स्तर क्या है, यह कहना तो कठिन है। पर स्तर कितना भी ख़राब क्यों न हो, अपने रमेश बाबू की हिंदी से बुरा क्या होगा। और ये तो दिल्ली से हिंदी सीख कर आए हैं! "बस हमें तो एक ही शिकायत है इस हिंदी
स्कूल से. . ." रमेश बाबू की सूरत पर उदासी झलकी। अचानक मुझे लगने लगा, कि मैं ऐसे ही रमेश बाबू की दूरदर्शिता को श्रेय दे बैठा, पर वे अपने बच्चों को हिंदी सिखाने में लगे हैं, या उस संस्था की नाक में दम किए बैठे हैं जो सचमुच बच्चों को हिंदी सिखाने की कोशिश कर रही है। अगर बच्चा हिंदी पढ़ना नहीं सीखेगा, तो किताबें और अख़बार कैसे पढ़ेगा? और अगर बच्चों के लिए लिखी गई कहानियाँ नहीं पढ़ेगा, तो हिंदी में उसकी रुचि कैसे बढ़ेगी? जब आस–पास हिंदी बोलने वाले नहीं हैं, तो पुस्तकें ही तो हैं जो उसे हिंदी के नए शब्द सिखाएँगी, व्याकरण के नियमों के नए उदाहरण देंगी। किंतु अगर वह पढ़ ही नहीं पाएगा, तो यह सब उसके लिए बेकार है। न जातक कथाएँ, न कथाएँ, न पंचतंत्र, न बीरबल की कहानियाँ, और न तेनालीराम के चुटकुले। बच्चों की बात छोड़िए, अपनी बात करते हैं। मैं अगर अपने विषय में सोचूँ, तो मुझे लगता है कि हिंदी जानने का सबसे बड़ा लाभ मुझे यह है कि सैंकड़ों वर्षों से हिंदी और उसकी सहयोगी बोलियों में जो साहित्य रचा गया है, मैं उसे पढ़ सकता हूँ, समझ सकता हूँ, और उसमें रचे बसे गहरे चिंतन से अपना जीवन सुधार सकता हूँ। कितना ही बार जब किसी इच्छा या लोभ के कारण मन व्याकुल होता है, तो कबीर की दो पंक्तियाँ मन ही मन दोहरा लेता हूँ– धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। या फिर सुबह के नाश्ते में ब्रेड पर मक्खन
लगाते–लगाते, भगवान श्री कृष्ण यों ही याद आ जाते हैं– और ऐसी कौन सी गांधी जयंती बीतती है जब मैं
'रघुपति राघव राजा राम' नहीं गुनगुनाता? और यदि हिंदी हमें पिछली कुछ शताब्दियों के साहित्य से जोड़ती है, तो देवनागरी तो देवों की लिपि है। भारत से देवनागरी का संबंध तो हज़ारों वर्षों का है। संस्कृत में रचा गया सारा साहित्य देवनागरी के माध्यम से ही तो पाया जा सकता है। गीता का कर्म सिद्धांत हो या आयुर्वेद का स्वास्थ्य और चिकित्सा संबंधी ज्ञान। जो बच्चा देवनागरी पढ़ना नहीं सीखेगा, वह कालिदास के नाटकों की ओर कैसे आकृष्ट हो पाएगा? रमेश बाबू मानते तो हैं कि अपनी संस्कृति से जुड़े रहना आवश्यक है, पर गीता, आयुर्वेद और कालिदास को हटा दें, तो संस्कृति के नाम पर बचा ही क्या? रमेश बाबू अपने बच्चों को इस सुख से दूर क्यों रखना चाहते हैं? पर लेक्चर पिलाने से कुछ नहीं होता। रमेश बाबू जब तक स्वयं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचेंगे, तब तक मेरे कुछ भी कहने–सुनने से कुछ नहीं होगा। तो प्रवचन की जगह, मैंने उनके सामने एक छोटा-सा प्रश्न रखा। "रमेश बाबू, आप अपने बच्चों को हिंदी क्यों
सिखाना चाहते हैं?" मेरा लंबा-चौड़ा भाषण धरा का धरा रह गया। मैं नासमझ, अकारण ही कालिदास और कबीर की चिंता करता रहा– यहाँ तो गोविंदा और शाहरुख खान की रोज़ी रोटी ख़तरे में हैं. . . 24 मई 2005 |