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हास्य व्यंग्य

न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी
—महेशचंद्र द्विवेदी


आज १४ सितंबर है- हिंदी दिवस। अर्थात हिंदी की दुर्दशा -उच्चस्तरीय शिक्षा, प्रशासन एवं न्यायपालिका में हिंदी की अनुपस्थिति, हिंदी पुस्तकों और पत्रिकाओं के पाठकों में लगातार बढ़ती हुई कमी, हिंदी लेखकों की आर्थिक एवं प्रकाशनिक दुर्दशा, और प्रबंधन के व्यवसाय में हिंदी से परहेज़- पर शोक-लेख लिखने, शोक-भाषण देने और हिंदी-दिवस को शोक-दिवस बना देने का न चूकने लायक अवसर।

इसके अतिरिक्त इस अवसर पर कुछ कवि सम्मेलन भी आयोजित किए जाएँगे जिनमें ऐसे कविगण, जो अपने बच्चों को हज़ारों रुपए की घूस देकर किसी मांटेसरी स्कूल में भर्ती करा चुके होंगे, बड़े जोश के साथ उछल-उछल कर हिंदी का गुणगान करेंगे और हिंदी के लिए पर्याप्त प्रयत्न न करने हेतु प्रबुद्ध वर्ग की ऐसी-तैसी करेंगे और इस भावात्मक उछल-कूद पर श्रोतागण अपने नेत्रों को अश्रुसिंचित करते हुए तालियाँ बजाएँगे। एक और वर्ग है जिसको यह दिवस अपने को हिंदी का सबसे बड़ा पुजारी साबित करने और जनता को बहकाकर चुनाव में अपना उल्लू सीधा करने का अचूक अवसर उपलब्ध कराएगा।

वे नेता जी जो अपनी कूढ़मगज़ संतानों को दून या सनावर स्कूल और आस्ट्रेलिया या अमेरिका में शिक्षा दिलाने हेतु अपनी काली कमाई का सदुपयोग कर चुके होंगे, मंचासीन होकर अपनी हिंदी-भक्ति के न केवल चौपाई-दोहे गाएँगे वरन अपने समस्त विपक्षियों को अंग्रेज़ी-परस्त देशद्रोही साबित कर देने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखेंगे। ऐसे नेता जी के कुछ चमचे भी मंच पर चिंघाड़ेंगे जिसमें हिंदी की आवश्यकता अथवा उपयोगिता के विषय में चाहे कुछ न कहा जावे परंतु उन नेता जी के हिंदी प्रेम का भरपूर बखान कर अपने नेता-प्रेम को प्रदर्शित करने में कोई कमी नहीं रखी जाएगी।

पता नहीं जनता-जनार्दन इन लेखों, व्याख्यानों, कविताओं और भाषणों के मर्म को समझेगी अथवा नहीं, पर इतना निश्चित है कि अगले वर्ष के हिंदी-दिवस पर हिंदी के पाठकों की कमी, हिंदी लेखकों की दुर्दशा, हिंदी प्रकाशकों की कठिनाई और नई पीढ़ी में हिंदी के प्रति अरुचि में बढ़ोत्तरी ही दृष्टिगोचर होगी। सच बात यह है कि मैं भी अपने घर के बच्चों को हिंदी माध्यम के विद्यालयों को नमस्कारम करने की ही सलाह दूँगा। हिंदी के प्रति इस अरुचि का केवल एक कारण महत्व का है - अन्य सभी कारण गौण हैं। यदि इस एक कारण को मिटा दिया जावे तो हिंदी-दिवस पर मर्सिया गाने के बजाए हम सभी स्वाभिमानपूर्वक कह सकें कि हम उस देश के वासी हैं जहाँ हिंदी बोली जाती है।

यह कारण है हमारे नेताओं द्वारा हिंदी माध्यम के सरकारी विद्यालयों को शिक्षा, अनुशासन और सदगुण सिखाने के मंदिर बनाने के बजाय अनुशासनहीनता, नकल, अपराध और राजनीति का अड्डा बना देना। जब नेताजी अपने भाषणों मे विद्यार्थियों को यूनियन बनाने, राजनीति करने, और नकल कर परीक्षा में पास होने का खुलकर आवाहन करते हैं और यूनियन न बनाने पर कुलपतियों ओर प्रधानाचार्यों को अनुदान रोक देने की धमकी देते हैं, पच्चीस साल के ऊपर की आयु के छात्रों/अर्थात अपराधियों/ पर यूनियन का चुनाव लड़ने पर लगी रोक को हर हालत में समाप्त करने की शपथ खाते हैं, और परीक्षा के लिए हर विद्यालय मे स्वकेंद्र बनाकर नकल को सहज बनाने का 'समाजसेवी' कार्य करते हैं, तो भई ऐसे हिंदी के विद्यालयों से निकले हुए छात्र को कितनी हिंदी आएगी जो वह हिंदी के पत्र, पत्रिकाओं और पुस्तकों को पढ़ेगा? किसी भाषा में रुचि पैदा होने के लिए उसमें निपुणता आवश्यक होती है और हिंदी स्कूलों में यह निपुणता प्राप्त करने का माहौल हमारे देश के कर्णधार बड़े प्रयत्नपूर्वक समाप्त कर रहे हैं। अत: हिंदी का पाठक ही पैदा नहीं हो रहा है फिर हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों को कौन पूछे?

मै समझता हूँ कि 'समाजहितैषी' नेताओं की हमारे हिंदी माध्यम के विद्यालयों पर ऐसी ही 'कृपा' रही तो आने वाले वर्षों मे हिंदी को पढ़ने और समझने वालों की संख्या इतनी कम हो जाएगी कि पाठकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए हिंदी-दिवस को अंग्रेज़ी में मनाना पड़ेगा। अभी भी अगर आप हिंदी-दिवस पर हिंदी के पक्ष में कोई बात अधिक प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि हिंदी-दिवस को अंग्रेज़ी में मनाइए और भाषणों को अंग्रेज़ी में छपवाइए।

पर एक बड़ा ख़तरा और हमारे सिर पर मंडरा रहा है- आजकल ये नेतागण प्रायवेट उद्योगों में दखलंदाज़ी कर वहाँ आरक्षण लागू करवाने में जुटे हुए हैं, जिससे आशंका है कि वह दिन दूर नहीं जब ये नेतागण अंग्रेज़ी माध्यम के प्रायवेट स्कूलों में भी अपनी खिचड़ी पकाना शुरू कर देंगे। फिर चाहे हिंदी में मनाओ हिंदी-दिवस या अंग्रेज़ी में, कोई पढ़ने वाला ही न रहेगा- न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

16 सितंबर 2005

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