अगर दिल घुटने में होता तो और कुछ होता या ना होता घुटने का भाव अवश्य बढ़ जाता।
उसकी गिनती शरीर के प्रमुख अंगों में की जाती। बहुत दिनों के बाद मिलने पर लोग
एक-दूसरे से पूछते कहो भई, आजकल तुम्हारे घुटने का क्या हालचाल हैं और दोनों
रोमैंटिक हो जाते! फिर घुटने में कुछ-कुछ होने लगता। घुटने की धड़कनें बढ़ जातीं और
उसका सीधा प्रभाव कोमल कपोलों पर भी साफ़ नज़र आता।
आजकल जब लोगों का दिल मिलता है तो परिणामस्वरूप उनके हाथ मिलते हैं, वे गले मिलते
हैं पर आप ही बताइए यह दिल का मिलना हुआ? सच्चाई तो यह है कि आप फ़िज़िकली दिल मिला
ही नहीं सकते। ऑपरेशन करके भी नहीं। तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि अगर आप
दिल के मिलने में विश्वास करते हैं तो इसे हमारे शरीर का एक अंग नहीं बल्कि एक
विचार या भाव होना चाहिए जो अंतत: मिल सकता है। तो फिर प्रेम या घृणा जैसे विचार या
भाव जहाँ रहते हैं उसे क्या कहा जाएगा? य़ह सोचना ज़रूरी हो जाएगा। मुझे लगता है कि
अब आप उलझते जा रहे हैं। इसलिए जो मैं कहना चाह रहा था उसे सीधे साफ़ कह दूँ कि जब
दिल घुटने में होता और मिले बग़ैर नहीं रह सकता तो हाथ मिलाने या गले मिलने के बदले
लोग घुटने ही मिला लेते। और घुटने के मिलने में अन्य सब कुछ अपनेआप ही मिल जाता। यह
एक एक्सट्रा फ़ायदा होता।
इसी जगह से घुटनों के मिलाने के तरीकों का भी विकास होता। कुछ लोग राह चलते-चलते
घुटने मिला लेते। यदि कोई मनचला व्यक्ति अपने घनिष्ठ मित्र के साथ किसी पार्क में
बैठा होता तो आप उनके घुटने मिले हुए पाते या उनके घुटने थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद
हौले-हौले सटते और हटते। किसी होटल या रेस्ट्रां में खाने की टेबल पर बैठे-बैठे
नीचे कब घुटने मिल जाते और ब्रेड पर छुरी से मक्खन लगाते हुए कब होंठों पर ब्लेड की
धार-सी मुस्कान फैलकर विदा हो जाती; यह कहना कठिन होता। इस जगह पर मुस्कान के आने
और जाने का अनुपात घुटने के सटने और हटने पर निर्भर करता।
आपने कुछ लोगों को ऐसा कहते हुए सुना होगा कि दिल घुटता है। आपको यह बात कुछ
अटपटी-सी नहीं लगती? 'दिल घुटता है' इस स्टेटमेंट में आपको कुछ रिदम नज़र आता है? पर
यदि कोई ऐसा कहे कि घुटना घुटता है आ़प सुनते ही पुलकित हो उठेंगे। कहेंगे वाह!
क्या बात कही! 'घुटना घुटता है' इस वाक्य में ज़रा अलंकार की छटा देखिए। संज्ञा और
क्रिया की निकटता और सामंजस्य देखिए, लगता है जैसे एकदूसरे के लिए ही बने हों। फिर
जो ऐसे लोग होते जिनका भाषा पर अधिकार होता वे क्रिया का भी उपयोग नहीं करते। इतना
ही नहीं वे एक ही शब्द से अनेक भावों का प्रदर्शन करने में समर्थ होते। सकारात्मक
भाव के लिए कहते 'घुट ना' और नकारात्मक भाव के लिए कहते 'घुट ना'। इस तरह भावों का
प्रकटन भी अति सरल हो जाता।
भावों का प्रकटन तो सरल हो जाता पर कुछ बातें कठिन हो जातीं। घुटने के बराबर घुटते
रहने से 'नी अटैक' या 'नी अरेस्ट' की संभावना बढ़ जाती। घुटने की बाईपास सर्जरी
किसी महानगर या महादेश में होती। और तब वे सबको यह कहते फिरते कि इस पर उन्होंने
कितना ख़र्च किया और इसलिए वे कितने बड़े आदमी हैं। लोग आँखें फाड़कर उन्हें देखते
कि सचमुच यह कितना बड़ा आदमी है। घुटने का रोग राजरोग हो जाता।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि यदि दिल घुटने में होता तो उसका आकार कैसा होता? हो सकता
है ऐसा ही होता जैसा आजकल लोग चित्रित करते हैं डंठलहीन पान के पत्ते या पीपल के
पत्ते जैसा या फिर लोग दूसरी तरह से भी सोच लेते। पर एक बात तो तय है कि दिल, दिल
की इस वर्तमान जगह पर जितना बड़ा है उतना बड़ा नहीं होता। कारण स्पष्ट है : वहाँ
जगह कम है। लेकिन क्या दिल का बड़ा होना सचमुच दिल के आकार पर निर्भर करता है? फिर
तो लंबे-चौड़े लोगों का ही दिल बड़ा होता। आकार में छोटे लोग ईश्वर को गालियां ही
बकते रह जाते। मदद करने वाले बौने की कहानी तब कैसे पैदा होती?
ग़ौर कीजिए कि यदि किसी को कसम खाना होता तो कैसे खाता? कहता 'मैं घुटने पर हाथ
रखकर कहता हूँ कि मैंने यह काम नहीं किया।' कभी एक सहेली दूसरे से पूछती 'ए, बता न!
तेरे घुटने में कौन रहता है?' और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़तीं।
फ़िल्मों के नाम तब कुछ इस प्रकार होते 'घुटना', 'घुटना एक मंदिर', 'घुटना ही तो
है', 'घुटनलगी', 'घुटना देके देखो', 'हम आपके घुटने में रहते हैं', 'घुटना है कि
मानता नहीं' आदि-आदि। सड़कों पर लोग इसी तरह के गीत भी गाते आपको मिल जाते 'मेरा
घुटना खो गया कहीं मैं क्या करूँ' या फिर 'तुम नहीं समझोगे मेरे घुटने की पुकार'
आदि। लोग आपको अलग-अलग तरह के डायलॉग मारते मिलते 'तुम्हारा घुटना नहीं पत्थर है'
या 'अरे यह क्या किसी के लिए सोचेगा इसके तो घुटने ही नहीं' या 'तुम चाहे कुछ भी कर
लो उसका घुटना पिघलने वाला नहीं' इत्यादि।
आज तो दिल के पास दिल है और वह एक ही है, अकेला
है। पर जब दिल घुटने में होता तो आवश्यक रूप से वह कम से कम दो होता : घुटनें जो दो
हैं। तब यहाँ कई तरह की मुश्किलें खड़ी हो जातीं। दोनों घुटनों के भाव अलग-अलग
होते। उनकी चाहतें भिन्न-भिन्न होतीं। तब किसी एक को चाहना शायद कठिन हो जाता।
तकलीफ़ दूनी हो जाती। ज़िंदगी दूभर हो जाती। किसी पर पूर्ण रूप से विश्वास करना
कठिन हो जाता क्योंकि कोई नहीं जान रहा होता कि व्यक्ति के द्वारा लिया गया निर्णय
उसके किस घुटने का निर्णय है या इस निर्णय में उसके दोनों घुटने की सहमति है अथवा
नहीं या फिर कौनसा घुटना कब किस पर प्रभावी हो जाए और कब व्यक्ति अपने द्वारा लिए
गए निर्णय से पलट जाए। यह पूरा मामला तब और दुस्तर हो जाता जब दोनों घुटने आपस में
ईर्ष्याग्रस्त होते। अक्सर एक के द्वारा लिए गए निर्णय को दूसरा काट देता और स्वयं
वही व्यक्ति शायद अपने पूरे जीवन में कोई निर्णय ले ही नहीं पाता। तब आपको केवल
लैला-मजनुओं की ही नहीं बल्कि
सही-सही विवाहितों की संख्या भी बहुत ही कम नज़र आती। जनसंख्या का विस्फोट भी नहीं
होता। हमारे देश की स्थिति ही कुछ और होती!
24 दिसंबर 2005
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