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हास्य व्यंग्य

हे निंदनीय व्यक्तित्व
—अशोक स्वतंत्र


हे निंदनीय व्यक्तित्व,

तुमने लेखक संघ में जो मेरी शिकायत की है कि मैंने तुम्हारी पुस्तक को अपने नाम से प्रकाशित करवाया है उसी संदर्भ में मैं ये पत्र लिख रहा हूँ।

तुम्हें याद होगा जब दो महीने पहले तुमने मुझे अपनी पुस्तक के बारे में बताया था। मुझे अभी तक तुम्हारे चेहरे के वे भाव याद है जो विकट अभाव में ही किसी की शक्ल पर आते हैं। तुमने कहा था कि तुम्हारी वह पुस्तक देश के बारे में कुछ ऐसी दुर्लभ जानकारी समेटे है जिसके प्रकाशन से पूरे देश को लाभ होगा। तुमने बताया था कि इस लेख के लिए तुमने इतनी शोध की थी कि उसके प्रकाशित न होने से क्रोध का बोध होने लगा था।

तुम्हारी शिकायत थी कि तुम्हारे इस दुर्लभ ग्रंथ को सब प्रकाशक दुर्लभ ही रहने देना चाहते थे। देश भर के प्रकाशक षडयंत्र करके बैठ गए थे कि तहलका मचा देने की क्षमता रखने वाला तुम्हारा यह लेख जनता तक न पहुँचे। तुम्हारे अनुसार, तुम्हारे तहलके से वैसा ही प्रभाव हो सकता था जैसा तहलका डॉट कॉम की करतूत से बीजेपी का हुआ था। तुम्हारे अंग प्रत्यंग से, हावभाव से, रोम–रोम से, हर शब्द और मौन से, दिल से दिमाग़ से, आँखों की आग से, कपड़ों से, चप्पल से, शरीर से, अक्कल से, कुर्ते की सलवटों से, माथों की लटों से, हाथ के थैले से और मुँह में दबाए हुए पान कसैले से, यानि हर चीज़ से ऐसी झलक मिल रही थी जैसे किसी महिला को नियत तिथि के एक महीने बाद भी प्रसव न हो रहा हो, क्योंकि तुम्हारी वह महान दुर्लभ पुस्तक प्रकाशित नहीं हो रही थी।

तुम्हारा दावा था कि वह पुस्तक प्रकाशित होने के बाद देश में क्रांति होगी और दुनिया में भारत का एक नया ही रूप निकलकर आएगा। भारत को पूरी दुनिया के लोग अलग ही नज़रिए से देखने लगेंगे हालाँकि तुम उसे उस साप्ताहिक अख़बार में भी धारावाहिक रूप से छपवाने को तैयार थे, जिसकी वेस्टेज समेत दो सौ प्रतियाँ ही छपती थी, और तीन गलियों को भी पार नहीं कर पाती थीं।

फिर तुमने मुझसे अनुरोध किया था कि मैं तुम्हारी इस कृति को देखकर उस पर कुछ टिप्पणी करूँ (टिप्पणी माने कहाँ से और कैसे छपवाने का जुगाड़ किया जाए)। और जब तुमने मुझे इस महान पुस्तक की कौरवलिपि सौंपी तो इसे छपवाने का दायित्व भी मुझ पर ही लाद दिया। तुम्हारे चेहरे के भावों से ऐसा लग रहा था जैसे महाराज दशरथ राज्य का भार राम को सौंप कर निश्चिंत हो रहे हो। मैंने भी उसी भक्ति भाव से यह दायित्व ग्रहण किया। मुझे क्या मालूम था कि तुम्हारे कारण मेरी प्रतिष्ठा पर ग्रहण लग जाएगा।

तुम्हारी उस पुस्तक को मैंने पढ़ा नहीं। मैं डर गया था कि उसे पढ़कर मैं अपने घर में ही क्रांति न कर बैठूँ। उसकी सुंदर टाइपिंग और मज़बूत जिल्द देखकर कोई भी अंदाज़ा लगा सकता था कि इसका लेखक कोई टाइपिस्ट ही हो सकता है जिसका कोई नज़दीकी मित्र जिल्द चढ़ाने का काम करता हो। मैं भारत के विकास में अपने योगदान के स्वर्णिम अवसर को जानकर उस महान कृति को छपवाने के लिए ऐसे निकल पड़ा जैसे ननिहाल से लौटकर भरत अपने भाई राम के प्रति भक्ति दिखाने के लिए वन में निकला था।

मुझे मालूम था कि लेखक के रूप में तुम्हारा 'निर्दोष सहाय' नाम देखकर प्रकाशकों को इसमें निरे दोष ही दिखाई देंगे। फिर सहाय भी असहाय हो जाएगा। मेरा निश्चय इसे किसी भी कीमत पर पाठकों तक पहुँचाने का था। एक नेक विचार अचानक मेरे दिमाग़ में गूँज गया। पुराने ज़माने में गुप्तचर वेश बदल कर दुश्मन की सेना में घुस जाते थे। वेश महत्वपूर्ण नहीं था, देश था। सबसे महत्वपूर्ण था कि संदेश उन तक पहुँचा कि नहीं जहाँ पहुँचना था। मैंने भी कुछ ऐसा ही करने की ठान ली। मैंने उन सब प्रकाशकों से तुम्हारी ओर से बदला लेने का भी दृढ़ निश्चय कर लिया, जो तुम्हारे क्रांतिकारी विचार जनता तक पहुँचने से रोक रहे थे।

उस पुस्तक को मैंने अपने नाम से उनके पास भेज दिया। अब वह पुस्तक सहाय नाम के कारण असहाय नहीं थी। मैंने उस पुस्तक की जिल्द, जिस पर तुम्हारा नाम लिखा था, अपने खर्च पर बदलवा दी। नई जिल्द पर जहाँ मैंने अपना नाम लिखा वहाँ तुम्हारी चप्पलों की छोटी-सी ड्राइंग बना दी। जैसे भरत भाई ने रामचंदर की खडाऊँ को उनका टोकन मान लिया, वैसे ही मुझे उन चप्पलों में तुम्हारा ही रूप नज़र आया। साहित्य की इस सेवा के लिए मेरा यह कारनामा सोने के अक्षरों में लिखा जाना चाहिए पर तुम जानते हो मुझे नाम की चाह नहीं है।

प्रकाशक ने स्पष्ट कर दिया कि वह मुझे इस पुस्तक के लिए नकद कुछ नहीं दे पाएगा। मुझे उसके दफ़्तर में रखी एक स्टील की पुरानी मेज़ पसंद आ गई, जो उसने मुझे रायल्टी के तौर पर दे दी। तुम इसे साहित्यिक भाषा में ऐसे भी कह सकते हो कि तुम्हारे विचार जनता तक पहुँचाने के लिए मैंने प्रकाशक से लोहा लिया।

पुस्तक छप गई, कुछ सौ प्रतियाँ बिक भी गईं। तुम्हारे विचार जनता तक पहुँच गए, तुम्हारा प्रयास सफल हो गया। तुम्हारे प्रयास में भागीदार बनकर मेरा जीवन भी धन्य हो गया, भले ही उसके लिए मुझे अपना नाम तक दाँव पर लगाना पड़ा।

अब जब मैं चैन की साँस लेते हुए क्रांति के होने का इंतज़ार कर रहा हूँ, मालूम पड़ा है कि तुमने मेरे ख़िलाफ़ शिकायत की है लेखक संघ में। मेरे बलिदान का ये सिला दिया है तुमने मुझे? कोई और होता तो दो चार कुर्ते सिला देता। जब तुम्हारी पुस्तक छप नहीं रही थी तो उसके अंदर के विचार तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण थे। लगता था जीवन में तुम्हारा एक ही ध्येय था कि किसी तरह से एक बार यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ आम पाठक तक पहुँच जाए, जैसे शत्रु सैनिकों से पीछा किए जाते समय घायल गुप्तचर यही सोचता है कि किसी तरह मरने से पहले उसके द्वारा इकठ्ठी की गई जानकारी राजा तक पहुँच जाए।

अब लगता है तुम्हारे विचार बदल गए हैं। पुस्तक के छपने के बाद सोच जनता की नहीं बदली बल्कि तुम्हारी बदल गई है। वैसे भी अपनी रचना मुझे सौंपते समय तुमने मुझे सिर्फ़ यही कहा था कि इसे छपवाना है, यह नहीं कहा था कि तुम्हारे ही नाम से छपवाना है। जनता शरीफ़ है, उसके विचार वैसे के वैसे है, तुम्हीं मायावी दुनिया के फेर में पड़ गए। और माया भी क्या, सिर्फ़ एक स्टील की मेज़।

मैं तुम्हें ये मेज़ दे भी सकता था। मुझे मेज़ से ज़्यादा अपनी इमेज की चिंता है, परंतु एक समस्या है। जिस लेखक संघ में तुमने मेरी शिकायत की है, उसके अध्यक्ष तीन दिन पहले मेरे घर आए थे, उन्हें वह मेज़ पसंद आई और मैंने वह उन्हें ही भेंट कर दी। अब तुम्हें सीधे उनसे ही इस मामले में निपटना पड़ेगा। मेरा एक सुझाव है, जिस दिन पुस्तक के क्रांतिकारी विचार अपनी करामात दिखाना शुरु करें, जिस दिन शहर में बलवा हो, धरने प्रदर्शन हो रहे हों, कर्फ्यू लगा हो या लगने वाला हो, मामला पुलिस के काबू से बाहर हो जाए और प्रशासन की सहायता के लिए फौज के आने में अभी देरी हो, उस समय पांच दस लोगों के साथ अध्यक्ष के घर से वह मेज़ लूट लो।

लेकिन वह कयामत का दिन आने तक क्या करोगे? आराम से नींद लो। इसीलिए मैंने पत्र के प्रारंभ में ही लिखा – हे निंदनीय व्यक्ति. . .

24 जून 2005

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