आज हस्पताल कुछ अजीब-सा लग रहा था। चारों ओर सफ़ाई चल रही
थी। हर तरफ़ गर्द का
गुबार था। आज एक साल में आस पास पहली बार झाड़ू लगते हुए देखी थी। एक बार लगा कि
कोई सफ़ाई अभियान होगा। कभी-कभी कोई स्वयंसेवा संस्थान यह बीड़ा उठा लेता था लेकिन
आधे घंटे में हालत वहीं की वहीं।
हस्पताल का गलियारा भी कुछ खुला-खुला-सा लगा। एक रात में इसे चौड़ा कैसे कर दिया
गया? जैसे कि फुटपाथ पर से बग़ैर लाईसेंस फेरीवाले के हटा देने से हो जाता है।
कहीं दीवारों पर से पान तंबाकू की पीक के निशान तो कहीं उन असफल प्रेम कहानियों के
पात्रों के नाम मिटाए जा रहे थे जिन्होंने इस इमारत की दीवारों को अपनी बेनाम और
हारी हुई मुहब्बत का ताजमहल बना लिया था।
इन सब को देखकर एक बार तो मैं चौंका। इतने साफ़ हस्पताल में अगर कोई मरीज़ आ गया तो
उसका क्या होगा। ठीक होने की बजाए वह तो और बीमार हो जाएगा न। अजीब लगता है, क्यों
भई, गंदगी भी एक आदत है। वह शख्स़ जो ज़िंदगी में एक-आध बार ही नहाया है अगर आप उसे
रोज़ नहलाने लगे तो वो तो ठंड से ही मर जाएगा।
ख़ैर मैं मुद्दे से भटक रहा हूँ। परेशानी की बात यह थी कि मुझे इस माहोल में काम करने
की आदत पड़ चुकी थी। रात में बेशक रौशनी न हो आते जाते रास्ते में गोबर सड़ांध
मूत्र की दुर्गंध न हो तो या तो आपका रास्ता गल़त है या फिर दिन के समय एक ही वजह
हो सकती है- जुकाम की वजह से नाक का बंद होना।
यह सही मायने में एक सरकारी हस्पताल था- दवाइयों का अभाव,
अन्य डाक्टरों का अभाव, ज़रूरी सुविधाओं का नदारद होना। काग़ज़ों मे तो बहुत सुविधाएँ दे रखी हैं सरकार ने
लेकिन बीमार और बिमारियों की कोई कमी नहीं थी। इसी असाधारण नज़ारे और पशोपश में मैं
अपने वार्ड तक पहुँचा। वहाँ का नज़ारा देखा तो खून खौल उठा। सिस्टर एक आदमी को डाँट
रही थीं। हुआ यह था कि उसके पाँच साल के बेटे को किसी ने पत्थर मार दिया था। उसके
सिर से बहते हुए खून से सारा फ़र्श लाल हो गया था। सिस्टर का कहना था कि अभी साफ़
किए हुए फ़र्श का यह हाल। उस आदमी को कुछ ख़याल रखना चाहिए था।
अजीब विडंबना थी। 'सिस्टर' जिस शब्द का ही इतना आदर है उसे एक बच्चे के बहते हुए
खून की परवाह न थी और हो भी क्यों? आज कल खून का भाव ही क्या है? पैसे मिले तो
जितना मर्ज़ी बहा दो। अपना हो या पराया क्या फ़र्क पड़ता है। वैसे भी तो खून आजकल
पानी से ज़्यादा ही बहता है।
उस आदमी की हालत कौई कैसे बयान कर सकता था। ऐसा लग रहा था मानो मंदिर का पुजारी
किसी शूद्र को लताड़ रहा हो।
इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता सिस्टर का वार मुझ पर ही चालू हो गया,
"देखिए न डाक्टर अभी-अभी सफ़ाई कराई थी। इन लोगों को ज़रा भी अक्ल नहीं है। सारा
फ़र्श गंदा कर दिया। स्वास्थ्य मंत्री आएँगे तो क्या कहेंगे।''
मेरा माथा ठनका, स्वास्थ्य मंत्री? कल शाम को सुपरिंटेंडेंट की तरफ़ से कोई चिठ्ठी
तो आई थी। मैं एक मरीज़ में इतना व्यस्त था कि पहले उसे पढ़ने का समय नहीं मिला और
बाद में दिमाग़ से उतर गया। सारा मसला साफ़ था। वाह मंत्री जी! आपकी वजह से हस्पताल
की सफ़ाई तो हुई। इस देश में जनता के लिए कोई काम हुआ है भला।
सड़कें रातों रात बन जाती हैं क्यों कि प्रधानमंत्री का दौरा है। गाँव में जहाँ
सालों से बिजली पानी नहीं हैं, एक महीने में बिजली और पानी पहुँच जाते हैं क्यों कि
राष्ट्रपति को वहाँ के सर्किट हाउस में एक रात ठहरना है और बिजली भी पूरे गाँव में
कहाँ पहुँचती है जनाब सर्किट हाउस के आस पास रौशनी हो जाए काफ़ी है। इसी तरह सरकारी
हस्पताल में पूरी हाज़िरी देखनी है तो किसी मंत्री का दौरा करवाइए। यह बात अलग है
कि उनके जाते ही हालात ज्यों के त्यों हो जाते हैं। वाह रे प्रजातंत्र! वाह रे
हिंदुस्तान! यहाँ की सरकार लोगों द्वारा लोगों की और लोगों के लिए है, दुनिया में
इकलौती। मैंने सिस्टर से ड्रैसिंग रूम खोलने के लिए कहा।
"डाक्टर थोड़ी देर उसे बाहर ही बैठा कर रखिए। मंत्री जी कभी भी आ सकते हैं। अभी सारी
सफ़ाई कराई है। आप टाँके लगाएँगे तो फिर सब गंदा हो जाएगा।"
मुझ से अब रहा नहीं गया। मैं वहीं चिल्लाया।
"भाड़ में गया स्वास्थ्य मंत्री। वो जो इस बच्चे के सिर से बह रहा है खून है पानी
नहीं। अब आप मुझे चाबी दीजिए नहीं तो मैं ताला तोड़ रहा हूँ। आपको मेरी शिकायत
जिससे करनी है कर दीजिए।"
यह सुनकर सिस्टर का जोश थोड़ा ठंडा हुआ। चुपचाप चाबी लाकर मेरे हाथ में दे दी। उस
बच्चे के सिर पर क़रीब दस टाँके लगे। जब वह आदमी उसे लेकर जा रहा था धीरे से बोला,
"धन्यवाद साहब आपकी वजह से बच्चे की जान बच गई। गुस्से में अगर कुछ कह दिया हो तो
माफ़ कर दीजिए। सिस्टर से भी कह दीजिएगा।"
"माफ़ी आपको नहीं हमें माँगनी चाहिए। हस्पताल मरीज़ों के लिए ही तो है। सरकारी दौरे
तो होते रहते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि यह मुआयना करने आते हैं या काम में खलल
डालने।"
दोपहर तक का समय वार्ड में निकल गया। मंत्री जी का कहीं नामोनिशान नहीं था। सुना तो
था कि वो पधार चुके हैं लेकिन हमें दर्शन नहीं दिए। खाना खाने जब मैं कैंटीन पहुँचा
तो एक परिचित मिल गए। उन्हें थोड़ा गंभीर और चिंतित देख मैं उनके साथ ही बैठ गया।
"क्या बात है भई। बड़े दिनों बाद मिले। क्या हाल चाल हैं। कुशल मंगल। यहाँ कैसे?"
"कुशल मंगल होता तो क्या मैं यहाँ हस्पताल में होता। बाजू में कोटला में भारत
पाकिस्तान वन डे मैच न देख रहा होता। वैसे वहाँ भी कहाँ कुशल मंगल, साले फिर
बेज़्ज़ती कराएँगे।" वो तुनक कर बोले।
मुझे समझ में नहीं आया कि उनका मिज़ाज़ गर्म क्यों है। उनका कोई प्रिय बीमार है या
फिर तेंदुलकर फिर डक बना गया। मैंने बीमारी के बारे में ही पूछने में भलाई समझी।
"ऐसी क्या बात हो गई। कौन बीमार है। मैं कुछ सहायता कर सकता हूँ क्या।"
"यार कुछ ख़ास बात नहीं है। माताजी को कल खड़े-खड़े चक्कर आ गया था। उन्हीं को
दिखाने लाया था। और यहाँ के चक्कर काट-काट कर मुझे चक्कर आ रहे हैं। सुबह से इधर
उधर घूम रहा हूँ। कोई डाक्टर जगह पर नहीं मिल रहा है। सुना है कि स्वास्थ्य मंत्री
का दौरा है। यह स्वास्थ्य मंत्री दौरा कर लोगों के स्वास्थ्य से क्यों खेलता है।"
"वह इसलिए ताकि सरकार स्वास्थ्य नियम बना सके। किस बीमारी पर कितनी रकम खर्च करनी
है उसका हिसाब कर सके।"
"कौनसा हिसाब। फुल एंड फ़ाइनल। एक तो सरकार वैसे ही निकम्मी है। जो थोड़े बहुत
सरकारी महकमों में काम होते हैं वो ये दौरे ख़त्म कर देते हैं। जिसे देखो मंत्री जी
की आव-भगत में लगा है। जनता जिए या मरे क्या फ़र्क पड़ता है। अगर ये जनसंख्या कम
करने का कोई नया तरीका है तो कहे देता हूँ बड़ा ही वाहियात है।"
इस बहस का सियासी रंग होता देख मैंने उसे यहीं ख़त्म करना का फ़ैसला किया, वार्ड
में काम का बहाना कर उनसे विदा ली और औपचारिकता के नाते फ़ोन नंबर व पता। आम जनता
का तो मालूम नहीं किंतु मेरा बाकी का दिन अच्छा गुज़रा। आदरणीय मंत्री जी के दर्शन
नहीं हुए इसलिए सारे काम आराम से हो गए।
वक्त गुज़रा। हालात ज्यों के त्यों हो गए। गंदगी और बदबू वापस आ गए थे। दीवारें फिर
लाल हो गईं। नए लैला मजनुओं ने पुरानों की जगह ले ली थी। एक दिन की चाँदनी और
फिर अंधेरी रात।
एक दिन वही परिचित मुझसे फिर टकरा गए। यहाँ वहाँ की बातों के बाद मैंने उनसे उनकी
माताजी का हाल चाल पूछा तो पता चला कि अगले ही दिन उनका देहांत हो गया था। अफ़सोस
ज़ाहिर करने के बाद वजह पूछी। थोड़ी चुप्पी के बाद बोले,
"दौरा पड़ा था।"
"दौरा। लेकिन जहाँ तक मुझे याद है उन्हें ऐसी तो कोई बीमारी नहीं थी। दौरा मिरगी का
था या दिल का।"
दाँत किटकिटाते हुए बोले,
"वह दौरा होता तो शायद बच भी जाती। यह तो स्वास्थ्य मंत्री का दौरा था।"
24 फरवरी 2005
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