आजकल चुनावी माहौल में जिसको देखो वही वोटर लिस्ट में अपना नाम न होने का रोना रो
रहा है, और अख़बारों में अपने नाम व पता मयफ़ोटो दर्ज करवा रहा है। पर मेरी समझ में
नहीं आता है कि वोटर लिस्ट में नाम न होने से ऐसा कौन-सा आसमान सर पर गिर पड़ा है
कि लोगबाग़ दिन रात हमारे चुस्त-दुरुस्त चुनाव-प्रशासन की धज्जी उड़ाने में जुटे हुए
हैं - हाँ, अगर अख़बार वालों से ये शिकायतें करने का निहित उद्देश्य मुफ़्त में अख़बार
में अपना नाम व फ़ोटो छपवाना है तब मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
संदिग्ध निष्ठा वाले वोटरों के नाम वोटर लिस्ट में न आने देना एवं पहले से उपलब्ध
ऐसे नामों को वोटर लिस्ट के संशोधन के दौरान कटवा देना सत्ताधारी दल का 'राजनैतिक
कर्तव्य' होता है, कतिपय दल इस कर्तव्य को बड़ी महारत के साथ निभाते हैं। अब अगर आप
की जाति के कारण प्रदेश शासन को यह संदेह हो कि आप अपना वोट प्रदेश की सत्ताधारी
पार्टी के अतिरिक्त किसी और को डाल सकते हैं, तो प्रदेश शासन ने आप का नाम वोटर
लिस्ट से कटवाकर क्या अनुचित किया है? मुझको ही देखो कि मैं डाइरेक्टर जनरल, पुलिस
के पद से दो वर्ष पूर्व रिटायर हुआ हूँ और पूर्णत: इग्नोर करने लायक नागरिक नहीं
हूँ, क्यों कि कहावत है कि 'हाथी कितना भी दुबला हो जाए, पर बिटहा जैसा तो रह ही
जाता है', पर जब मैंने 5 मई को एक आदमी भेजकर अपने मुहल्ले के विवेकखंड, गोमतीनगर
के पोलिंग बूथ पर वोटर लिस्ट में अपना नाम ढूँढ़वाया तो मेरा व मेरी पत्नी का नाम
नदारद था - स्पष्टत: मेरा जातिनाम देखकर शासन ने अपना 'राजनैतिक कर्तव्य' पूरी
मुस्तैदी से निभाया था। वैसे वोटर लिस्ट में नाम न होने की बात जानकर मेरी पत्नी
बड़े इत्मीनान से बोलीं थी, "चलो अच्छा हुआ, मैंने आम का हींगवाला अचार डालने को
मुलायम-मुलायम आम मँगा रखे थे, जिनका अचार आज न डाल पाती तो ख़राब हो जाते।" सच तो
यह है कि मेरे दिल को भी राहत ही मिली थी कि धूप में लंबी कतार में खड़ा नहीं होना
पड़ा और पढ़ा-लिखा नागरिक होने के बावजूद वोट न डालने की आत्म-ग्लानि से भी अनायास
मुक्ति मिल गई। और जहाँ तक कहीं शिकायत करने का सवाल है मैं कसमिया कह सकता हूँ जो
मैंने किसी अख़बार या टी.वी. वाले से इसकी शिकायत की हो।
दूसरे दिन टहलते हुए मेरी मुलाकात अपने पड़ोसी से हो गई - वह भी
ऐसी जाति के हैं जिनकी पार्टी-भक्ति पर सत्ताधारी दल को संदेह होना स्वाभाविक है।
उन्होंने बताया कि वह वोट देने गए थे पर वहाँ वोटर लिस्ट में उनका वोट नहीं था
यद्यपि उनकी पत्नी का वोट था, परंतु वह वोट देने नहीं गई थीं। उन्होंने यह भी बताया कि गत चुनाव के
समय वे दोनों इसी पते पर रहते थे और उन दोनों ने वोट दिया था। उन्होंने आगे कहा कि
उन्हें पता चला कि वोटर लिस्ट के संशोधन की प्रक्रिया में जहाँ तक संभव हुआ
सत्ताधारी दल के स्वामिभक्त कर्मचारियों को ही लगाया गया था और उन्हें मौखिक
निर्देश थे कि संदिग्ध निष्ठा वाली जातियों के वोटरों के नाम वोटर लिस्ट से
यथासंभव काटना है।
मैंने जब शासन की इस नीयत पर गंभीरतापूर्वक विचार किया तो पाया कि शासन ने 'जनहित'
का ध्यान रखकर ही ऐसी नीति अपनाई होगी। असलियत में हमारे वोटर तीन कैटेगरी के होते
हैं -
पोलिंग-वोटर, जो चुचुआते पसीने में नहाते हुए भी चुपचाप कतार में घंटों खड़े होकर
अपने नेता/अथवा बहिन जी/ को वोट देते हैं, दूसरे बाहुबलि वोटर, जिनके नेता कोई
भूतपूर्व पहलवान एवं वर्तमान अखाड़ेबाज़ होते हैं, ये बाहुबलि वोटर ताल ठोंक कर
अपने अलावा दूसरे वोटरों के वोट भी अपने उम्मीदवार के पक्ष मे डाल लेते हैं और
तीसरे ड्राइंग रूम वोटर, जो वोटों की बात सबसे अधिक करते हैं परंतु वोट डालने को
सबसे कम निकलते हैं। मैं समझता हूँ कि हमारे समाजसेवी शासन ने तीसरी कैटेगरी के
वोटरों की इस सुखाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए ही उनके नाम संशोधित वोटर लिस्ट
में न आने देने के गुप्त निर्देश दिए होंगे।
उत्तर प्रदेश में लंबे प्रशासनिक अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अगर
आप किसी बाहुबलि उम्मीदवार के चमचे नहीं हैं और फिर भी वोट डाले बिना आप को नींद
नहीं आती है, तो आप को बिना देर किए अपने दिमाग़ का चेक-अप पागलों के डॉक्टर से
कराना चाहिए, क्यों कि यदि आज आप वोट डालने को बेचैन हैं तो अंदेशा है कि कल
आत्महत्या के लिए बेचैन हो जाएँ। आज के माहौल में वोट डालने की बेचैनी दिमाग़ की उसी
प्रकार की कमज़ोरी की और संकेत करती है जिस प्रकार की कमज़ोरी किसी व्यक्ति को
आत्महत्या हेतु प्रेरित करती है। इस हक़ीक़त से लखनऊ के बाशिंदे अच्छी तरह वाकिफ़
हैं। गत लोक सभा चुनाव में शासन द्वारा इस बात को ज़ोर-शोर से प्रचार किया गया था
कि वोट डालना हमारा संवैधानिक कर्तव्य है और वोट डालने को हमें प्रेरित करने हेतु
न केवल अख़बारों और टी.वी. में विज्ञापन छपते रहे थे वरन मोबाइल पर संदेश भी आते थे
और कुछ भाग्यशाली मोबाइल धारकों को तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के
स्वर में भी संदेश प्राप्त हुए थे, परंतु लखनऊ की जनता इस सबका गूढ़ अर्थ भली-भाँति
समझती है, अत: केवल ''35 प्रतिशत'' वोटरों ने ही अपना वोट डालकर शासन को उपकृत किया था।
और कम से कम मैं तो वोटर के वोट डालने का प्रयत्न करने के बजाय घर के अंदर बैठकर
टी.वी. पर तमाशा देखने को उसकी अक्लमंदी ही समझता हूँ क्यों कि हमारा
ओवरलोयल-एडमिनिस्ट्रेटिव-सिस्टम सत्ताधारी दल के अथवा बाहुबली उम्मीदवार के
अतिरिक्त किसी और के पक्ष में वोट डालने के प्रयत्न को प्राय:
सेल्फइन्वायटेड-मिज़री बना देता है। मान लीजिए कि आप एक रेस्टलेस-कौन्शस वाले इंसान
हैं और चुनाव में वोट डाले बिना आप को आपकी आत्मा चैन से नहीं बैठने देती है, और आप
गर्मी से बचने हेतु कानों पर अंगौछा लपेटकर पोलिंग बूथ पर पहुँच जाते हैं, तो आप को
वोट डालने का मौका मिले इससे पहले काफ़ी संभावना रहेगी कि घंटों धूप में खड़े होकर
पसीना पोंछते रहने के बाद आप को बताया जावे कि आप का नाम इस बार की संशोधित वोटर
लिस्ट में हैं ही नहीं, और आप के यह कहकर विरोध जताने पर कि 'गत विधानसबा चुनाव में
तो मैं वोट डाल चुका हूँ।'
आप की कमअक्ली पर तरस खाते हुए आपसे प्रतिप्रश्न कर दिया जावे कि वोटर-लिस्ट में
संशोधन होता किसलिए है? यदि आप का नाम वोटर लिस्ट में है भी, तो कोई शोहदा आप की
वोट डालने हेतु आने की नादानी पर तंज करता हुआ आप से कह सकता है, "अंकल! क्यों
खामख़्वाह लू खा रहे हैं। घर जाइए आप का वोट तो सबेरे ही पड़ चुका है।" फिर भी अगर
आपका अपने मताधिकार के प्रयोग का जुनून अपनी ग़ैरत की हद से आगे निकल गया है, तो आप
पीठासीन अधिकारी से अपनी शिकायत दर्ज़ कराने हेतु मिलना चाहेंगे, जिसे उस शोहदे के
साथी धांधलीपूर्वक रोक देंगे और उनके इस सत्कार्य में वहाँ ड्यूटी पर लगाई गई
'दलगत' पुलिस उनकी भरपूर सहायता करेगी। अब अगर आप की संतुष्टि गरियाये जाने,
झपड़ियाये जाने और ठंडा खाए बिना नहीं होती है तो आप पोलिंग बूथ पर हंगामा खड़ा
करने के अपने मूलाधिकार का बेहिचक प्रयोग कर सकते हैं।
व्यक्तिगत रूप से मुझे उपलिखित किसी प्रकार की फ्रूटलेस-मिज़री को इन्वाइट करने का
शौक नहीं है, अत: अपना नाम वोटर लिस्ट में न होने की बात ज्ञात होने पर मैंने
शासन-प्रशासन को मन ही मन धन्यवाद दिया था और कूलर खोलकर सुख की नींद सो गया था।
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