वह ज्योतिषी है। आजकल सच्चा ज्योतिषी उसे कहते है जिसका जब अपना वर्तमान नष्ट हो
जाता है और भविष्य बिगड़ैल नज़र आने लगता है तो वह दूसरों के बिगड़े भविष्य को
सँवारने का धंधा करता है। यह वैसे ही है जैसे कुछ सुजान देश का भविष्य सँवारने का
धंधा कर रहे हैं।
जब-जब वोटों की हानि होती है तो प्रभु अवतार लेते हैं और जब-जब धन की हानि होती है
तब-तब हमारे ज्योतिषी भैया जी हमारे घर अवतरित होते हैं। अपने इसी संकटमोचन रूप के
कारण उन्हें किसी बैंक या संस्था से कभी उधार नहीं लेना पड़ा। उनके अवतरित होते ही
मेरी पत्नी की बाँछे खिल जाती हैं और मेरी मुझे चुभने लगती है। ज्योतिषी भैया हमें
सुंदर भविष्य के सपने दिखाते हैं और हमारा वर्तमान बिगाड़ तथा अपना सँवार कर चल
देते हैं। उस दिन पत्नी मेरी फील गुड करने के लिए, थाने में सदाचार की तरह घर से
ग़ायब थी।
ज्योतिषी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया। मुझे सामने देख बोला, "भाभी जी कहाँ है?"
मैंने कहा, "आज तो घर में केवल भैया जी हैं, इसलिए आज तुम्हारी दाल गलने वाली नहीं
है।"
"दाल गलाकर मुझे क्या करना है। घर आए मेहमान को चाय तो पिला सकते हो, ज़रूरत पड़ने
पर मित्र को उधार देकर सहायता तो कर सकते हो तथा एक ज्योतिषी से यह तो सुन सकते हो
कि तुम्हारा बढ़िया समय आने वाला है।"
"पर प्यारे तुम्हारा बढ़िया समय जाने वाला है। यहाँ खाली हाथ आए हो और यहाँ से
खाली हाथ ही जाओगे।"
यह सुनते ही वह ज्योतिषी से दुर्वासा हो गया। जैसे पुलिसवाले को उसके हक का रिश्वत
धन न दो तो वह आप पर उल्टा मुकदमा ठोक देता है वैसे ज्योतिषी भैया ने मुझपर श्राप
ठोकते हुए कहा, "बच्चा तुम्हारा अनिष्ट होने वाला है, शीघ्र ही तुम्हें धन की हानि
होगी।"
"पर महाज्ञानी अभी तो आपको हो रही है, आप कहीं और जाकर अपना भविष्य सँवारने की
चिंता कीजिए।" यह कहकर मैं मुस्कराया पर मेरी मुस्कान उसको वित्त मंत्री के कर
जैसी चुभी और वह आम आदमी की तरह भुनभुनाता हुआ चल दिया।
इधर ज्योतिषी भैया गए, उधर मेरी पत्नी ने खुली अर्थव्यवस्था-सा घर में प्रवेश किया।
मुझसे सारा किस्सा सुनकर पहले तो उसने अपना माथा ठोका, अपने नसीब को कोसा और फिर
बोली, "तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता, तुम्हारा अनिष्ट तय है। अब तो घर में कलयुग आ ही
गया।"
कलयुग तो नहीं, द्वार पार डाकिया आया। बिना कुछ लिए उसने एक खूबसूरत लिफ़ाफ़ा थमाया।
लिफ़ाफ़ा फाड़कर मैंने मजमून पढ़ा, लिखा था - प्रिय भाई, बधाई हो, आप मूँगवती,
चूँगावती, सेवावती स्मृति सम्मान के लिए चुने गए हैं। स्वीकार कर हमें कृतार्थ
करें तथा लौटती डाक से अपनी स्वीकृति भेजें।
मैंने सोचा, "तीन-तीन देवियों की स्मृति में सम्मान! अवश्य ही मोटी रकम वाला होगा।"
मैं न तो सम्मान करने वाले को जानता था, न यह जानता था कि ये तीन देवियाँ कौन हैं
और न ही ये जानता था कि मुझे सम्मान क्यों दिया जा रहा है, पर यह ज़रूर जान गया कि
यह सम्मान है और मोटा सम्मान है।
मेरी पत्नी को पुकारा, उसे सम्मान का समाचार दिया तो वह सौतिया डाह से जल मरी।
मैंने और जलाते हुए कहा, "देखा, तुम्हारे ज्योतिषी भैया धन की हानि करवा रहे थे और
यहाँ धन तथा यश दोनों का ही लाभ हो रहा है।"
"मैं भी सुनूँ कितने का लाभ हो रहा है?" पत्नी का स्वर जिज्ञासु कम व्यंग्यात्मक
अधिक था।
"यह तो नहीं लिखा पर सम्मान चाहे एक रुपए का हो, सम्मान सम्मान ही होता है,
समझीं!"
"अपमान भी चाहे एक रुपए का हो, अपमान अपमान ही होता है, समझे!"
पत्नी ने ठीक ही कहा था, अनेक बार अपमानित लोगों से सम्मानित होने का दंड भुगतना
पड़ता है। पर मेरे सर तो सम्मान का जादू सर चढ़कर बोल रहा था और जादू चाहे सम्मान
का हो या अपमान का, जब सर चढ़कर बोलता है तो व्यक्ति सावन का अंधा हो जाता है।
यह मेरा पहला-पहला सम्मान था अत: मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। मैं गुरुदेव की शरण में
गया।
"गुरुदेव मुझे सम्मान मिल रहा है।"
"सम्मान तुम ले रहे हो या कोई दे रहा है।"
"इससे क्या फ़र्क पड़ता है। वैसे भी कोई सम्मान देगा तभी तो हम लेंगे!"
"फ़र्क पड़ता है नवोढ़े, आजकल के सम्मान दिए कम जाते हैं और लिए अधिक जाते
हैं। सम्मान लेने के लिए अनेक अतिरिक्त योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है। यह बताओ वत्स
कि यह तयशुदा सम्मान है, व्ययशुदा सम्मान है या फिर इस हाथ ले उस हाथ दे
वाणिज्यशुदा सम्मान।"
"गुरुदेव पहले तो यह बताएँ कि ये सम्मान होते क्या हैं?"
"बालक, मुक्तिबोध ने कहा है कि पहले तय करो किस ओर हो तुम क्यों कि समिति में जब-जब
आपका तयशुदा आदमी तय करने की स्थिति में होगा तो वह तय आदमियों के लिए ही पुरस्कार
तय करेगा। व्ययशुदा में सम्मान-समिति के सम्मान में व्यय करना होता है। ऐसे मे
अक्सर व्यय राशि सम्मान राशि से अधिक ही होती है। वाणिज्यशुदा सम्मान में जब आप
समिति में होते हैं तो देते हैं और लेना हो तो समिति से बाहर होते हैं। इस प्रकार
के सम्मान में आप अपनी संस्था से सम्मान दिलवाते हैं और दूसरे की संस्था से सम्मान
ग्रहण करते हैं। यह वैसे ही जैसे लिफ़ाफ़ेबाज़ कवि का नीति वाक्य है - तू मुझे बुला,
मैं तुझे बुलाउँ। लिफ़ाफ़ा तू कमा, लिफ़ाफ़ा मैं कमाउँ।"
"गुरुदेव, आपने तो मुझे चुनाव के समय मतदाता-सा उलझन में डाल दिया है। मैं आप जैसा
घिसा हुआ साहित्यकार कहा हूँ। कृपा कर मुझसे सरल हिंदी में बात करें।"
"अच्छा बताओ क्या सम्मान देने वालों को तुम जानते हो?"
"नहीं।"
"सम्मान समिति में तुम्हारा मेरे जैसा कोई 'त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव' है?"
"नहीं।"
"क्या संस्था सरकारी है और सरकार में तुम्हारे आदमी हैं?"
"नहीं।"
"क्या तुम सम्मान देयी संस्था के अध्यक्ष हो?"
"नहीं।"
"क्या तुम संस्था को कोई लाभ पहुँचा सकते हो?"
"नहीं।"
"अगर इतने सारे 'नहीं' हैं तो वत्स सम्मान-मार्ग पर फूँक-फूँक कर कदम रखना। सम्मान
को ध्यान से ग्रहण करना, ज़रा भी शक हो तो न ग्रहण करना, अब जाओ।"
मुझे लग गया कि पत्नी की तरह गुरुदेव को भी मेरे सम्मान से जलन हो रही है। जलती है
दुनिया तो जलने दे और जो नहीं जला उसे जलाने चल दे। मैंने पूरे मोहल्ले और अपने
कस्बे के साहित्यकारों को जलाने की योजना बना डाली। प्रचारकों को दारू की दो-दो
दावतें दे डालीं। इतना व्यय तो सम्मान देने वाली संस्था का प्रचार में नहीं हुआ
होगा जितना मैंने कर डाला। पहलौठे पर हर आदमी करता है, जी!
सम्मान-राशि पर बातचीत करने के लिए संस्था का दो सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल मेरे कस्बे
में पधारा। वो दो थे और मैंने पूरा मोहल्ला बुला लिया। मुझे 'हार' पहनाया गया।
संस्था का एक सदस्य मोहल्ले वालों और वालियों के समक्ष संस्था का विशालकाय परिचय
देने में लग गया और दूसरा मेरे कान के पास फुसफुसाने में लग गया।
"पक्का है न, आप सम्मान ग्रहण करेंगे?"
"पक्का है न, आप सम्मान देंगे?"
"हम तो देने के लिए ही बने हैं।"
"हम भी लेने के लिए ही बने हैं।"
"मुकरेंगे तो नहीं?"
"हम तो आपको भी मुकरने नहीं देंगे।"
"कितने का सम्मान ग्रहण करेंगे?"
"आप कितने का देंगे?"
"आपकी मरज़ी।"
मुझे वह सम्मानदाता कम हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन का पिता अधिक लग रहा था जिसने
हस्ताक्षर युक्त ब्लैंक चेक बुक मेरे सामने रखी हुई है और कह रहा है - जो रकम चाहिए भर ले, पर मेरी बेटी का ख़्याल छोड़ दे।" मुझे चिंता हुई कि सम्मान देकर यह
दुष्ट मुझे किसी को छोड़ने को न कह दे। वैसे सम्मानित होते ही सच्चा साहित्यकार
लेखन छोड़ ही देता है।
मैंने पहली बार रिश्वत लेते माँगते रिश्वती-सा शरमा कर कहा, "हें हें आप सम्मान दे
रहे हैं, आप ही अपनी मरज़ी बताएँ।"
"आप सम्माननीय है, महान हैं, आप सम्मान ले रहे हैं, आप ही बताइए।"
मुझे पहली बार अनुभव हुआ कि देने वालों से लेने वाला महान होता है।
"आप तो सोच में पड़ गए। बताइए कितने की घोषणा करूँ?"
मैंने सकुचाते हुए भी अपने सम्मान की अधिक से अधिक कीमत लगाते हुए धड़कते दिल से कह
दिया - ''इक्कीस हज़ार''।
"बस, आप तो कम से कम पचास हज़ार के हकदार हैं। राशि बढ़ाइए।"
जैसे शरीफ़ इंसान पुलिस वाले का प्यार नहीं पचा पाता है, मैं उनके सम्मान की राशि
नहीं पचा पा रहा था।
"इक्कतीस ठीक है।"
"चलिए आपकी ही रही।" उन्होंने सबके सामने मुझे अप्रतिम साहित्यकार सिद्ध करते हुए
सगर्व घोषणा कर दी। मोहल्ले में मेरा मूल्य सूचकांक छलाँगे मारने लगा। परिवार और
मोहल्ले के लिए यकायक मैं विश्व-बैंक हो गया। कुछ मित्रों के चेहरे पर यकायक ग़रीबी
की अनेक रेखायें खेलने लगीं।
चलते हुए संयोजक-प्रतिनिधि ने कहा, "फर्स्ट ए.सी. से न आ सके तो सेकेंड ए.सी. से तो
आइएगा ही, यह हमारे सम्मान का प्रश्न हैं।"
"आपका सम्मान अब तो मेरा सम्मान है, आप इतना कर रहे हैं।" मैंने ब्याही जाने वाली
लड़की के पिता-सा हाथ जोड़कर कहा।
"हम क्या कर रहे हैं! जो कुछ होगा, आप ही तो करेंगे।"
"मुझे क्या करना होगा, सम्मान ग्रहण करने के इलावा!"
"सम्मान-राशि, शाल-राशि, हाल-राशि, आवास-राशि आदि का कम से कम पचास हज़ार का
ड्राफ्ट आपको ही तो करना होगा वरना. . .।"
"वरना, क्या?"
"वरना सम्मान के स्थान पर अपमान सहने का दंड आपको भुगतना होगा। सारा शहर जानता है
कि आप सम्मानित होने वाले हैं, नहीं होंगे तो क्या होगा। आपके पास पंद्रह दिन का
समय है, समय से ड्राफ्ट भेज देंगे तो आपके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा
होगा।"
"आप सम्मान राशि कम नहीं कर सकते?"
"आपने ज़्यादा गड़बड़ की तो हम बढ़ा ज़रूर सकते हैं।"
लोग सम्मान राशि बढ़ता देख प्रसन्न होते हैं, मैं उसके बढ़ने की चिंता में दुबला
रहा था। मेरे आगे कुआँ था पीछे खाई। सामने पुलिस था, पीछे कसाई। या कहूँ मुझ इराक
के आगे बुश था और पीछे ब्लेयर भाई। सम्मान नहीं लेता हूँ तो जगहँसाई होती है और
लेता हूँ तो मेरी ग़रीबी मुझपर हँसती है। दारू की दो-दो पार्टियाँ देकर और कुछ का
वायदा करके साहित्य में जो इज्ज़त कमाई है, उसका क्या होगा देशिया!
मुझे दुर्वासा ज्योतिषी की भविष्यवाणी और श्राप, एक साथ याद आ गए। सिद्ध हुआ कि
ज्योतिषी को उधार न दो तो वह सच बोलता है और आपको उधार लेना पड़ जाता है। मेरे
सामने सच कुंडली मारे बैठा था और उधर मेरा सम्मान खाए बैठा था।
वर्तमान बाज़ार-व्यवस्था का स्वर्णिम वाक्य है - 'जब जेब में न हो दाने, बैंक चला जा
कर्ज़ लाने।'
आजकल उधार देने वाले जैसे उधार खाए बैठे हैं। एक के लिए उधार माँगों तो चार के लिए देते हैं। आप मकान के लिये माँगते
हैं, वह टी.वी., ए.सी., माइक्रोओवन आदि के लिए आपको ललचाते हैं।
मैं भी पहुँच गया बैंक, सम्मान पाने के लिए सम्मान गँवाने।
बोला, "उधार लेना है।"
कर्ज़ देने वाले का चेहरा खिल गया जैसे किसी ठग को कोई बना बनाया मूर्ख मिल गया हो।
उसने ठंडा मँगाया, कुर्सी पर बिठाया और मुझे हलाल करने के लिए पेन उठाया।
"कितना चाहिए?"
"सब मिलाकर पच्चास हज़ार।"
"क्या ख़रीदना है?"
"सम्मान, मुझे सम्मान ख़रीदना है।"
"सम्मान ख़रीदना है या देना है!"
"देना नहीं लेना है। मुझे सम्मान मिल रहा है, उसके लिए ऋण चाहिए।"
"सम्मान कितने का है?"
"इक्कतीस हज़ार का।"
"तब तो आप बैंक को लोन दे सकते हैं।" वह अपने मज़ाक पर स्वयं ही हँसा। "आप तो फिक्सड
डिपाजिट वाले काउंटर पर जाइए।"
"पर मुझे तो ऋण ही चाहिए।"
उसकी दृष्टि में किसी पागल को देखने का भाव था। उसने मेरा माथा छुआ और कहा, "पहले
अपना मेडिकल ले आइए।"
मैंने स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव किया, पर इस अपमान में सम्मान पाने की राह पा
ली।
उन दिनों हमारे मोहल्ले में वॉयरल बुखार फैला हुआ था। मैं समाजसेवी हो गया और हर
वायरल पीड़ित से तपाक से मिलने लगा। वायरल पीड़ितों के साथ मेरे प्यार के चर्चे
होने लगे। अंतत: प्रभु कृपा से सम्मान-समारोह से चार दिन पहले मुझे ज्वर हो ही गया।
मेरी प्रसन्नता का अंत नहीं था। मैंने फ़ोन किया, "मैं वायरल ज्वर से पीड़ित
हूँ,
सम्मान नहीं ग्रहण कर सकूँगा।"
उधर से स्वर आया, "हमें पूरी संभावना थी कि आप जैसा सम्मान-भीरू ऐसा ही घृणित कार्य
करेगा। हमने इंतज़ाम कर लिया है, हमें इक्यावन हज़ार ग्रहण करने वाला सम्मान-वीर
मिल गया है। आप हमारे पुराने ग्राहक हैं, अगली बार आपको बढ़िया डिस्काउंट देंगे।
प्रमाण-पत्र भेज रहे हैं। भविष्य में सेवा का मौका देकर कृतार्थ करें। संपर्क बनाए
रखें तथा सम्मान/पुरस्कार इच्छुकों को हमारी संस्था से जोड़ें, आपको पूरा कमीशन
मिलेगा।"
मित्रों आपके सम्मान-सेवा के लिए आपका यह सेवक हाज़िर है। खोया हुआ सम्मान पुन:
प्राप्त करें।
|