हास्य व्यंग्य | |
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मरा हुआ लेखक सवा लाख का |
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यह बैठे ठाले क्या हो जाता है लोगों को। और फिर उत्पल मुखर्जी तो बस कुछ क़िताबें ही चुरा रहे थे एक पुस्तकालय से। किताबें जिन्हें कभी न कभी रद्दी बन कर बिक जाना होता है। वो भी साहित्यिक किस्म की क़िताबें जो बेचारी समाज से कट कर रह रहे ईमानदार आदमी की तरह अकेली सी पुस्तकालय के किसी कोने में पड़ी धूल फाँकती रहती हैं। पड़ी-पड़ी वो जितनी पतली होती हैं, उन्हें चाटने वाली दीमकें उसी अनुपात में मोटी होती जाती हैं। दरअसल मेरे हाथ एक पुरानी अख़बारी कतरन लग गई है जिसे पढ़कर मुझे गढ़े मुर्दे उखाड़े
बग़ैर नहीं रहा जा रहा। इस कतरन में निहित ख़बर के अनुसार उत्पल मुखर्जी को अच्छी
क़िताबें पढ़ने और जमा करने का बहुत शौक था। और यह शौक उन्हें जुनून की इस हद तक ले
गया कि उन्होंने पिछले कई सालों से बड़े पुस्तकालयों से चोरी करके अच्छा ख़ासा
पुस्तक संग्रह तैयार कर लिया था। पिछले दिनों वे कलकत्ता की नेशनल लाइब्रेरी से एक
दुर्लभ ग्रंथ चुरा कर अपनी कमर में खोंसकर जैसे ही बाहर निकलने लगे उन्हें पकड़
लिया गया। शरीर को ज़िंदा रखकर भी तो मरा जा सकता है। शायद यही पहली और आवश्यक शर्त है एक
पॉपुलर, सफल व संपन्न साहित्यकार बनने के लिए। जिस अनुपात में आप मरते जाएँगे उसी
अनुपात में आपकी शोहरत, दौलत और वाक़फ़ियत में वृद्धि होती चली जाएगी। कुछ लेखक एक ही बार में सारा मर जाते हैं तो कुछ रोज़ाना थोड़ा-थोड़ा मरते हैं। कुछ लेखक साप्ताहिक या मासिक किश्तों में मरते हैं। कुछ अख़बारों में तो कुछ पत्रिकाओं में मरते हैं। आजकल धड़ाधड़ बिक रहे सामाजिक और जासूसी उपन्यासों में तो मरने का मज़ा ही कुछ और है। पर इससे कहीं बड़ा मज़ा पाठकों को मनोहर कहानियों का मीठा ज़हर पिला कर मरने का है। इसके अलावा कई लेखक धर्म के नाम पर मर जाते हैं तो कई वादों और धाराओं की आड़ में मारे जाते हैं। बहुत से लेखकर प्रतिष्ठा और पुरस्कारों से पटे पलंग पर पड़े-पड़े मरना पसंद करते हैं। सैकडों साहित्यकार संबंधों की सतह पर सदा के लिए सुहानी नींद सो जाते हैं। बाज कवि लेखक विद्युत शवदाह गृह की अघोषित शाखा दूरदर्शन पर अपने-अपने लिए दो-दो बूँद जगह घेरने में लगे हैं। मगर शायद मरने का सबसे बढ़िया और प्रचलित तरीका यही है कि आप गोपिकाओं में कृष्ण की तरह क़िताबों से घिरे रहिए। मरने की शुरुआत आप किसी पुराने लेखक की रचनाएँ अपनाने (कुछ नासमझ इसे चुराना कहते हैं) से कीजिए। उसके बाद जब आप किसी ऐसे समकालीन लेखक को चुराने लगेंगे जो किन्हीं 'अपरिहार्य कारणों' से पाठकों तक नहीं पहुँच पाया है, तब आपके मरने की मध्यावधि होगी। आपके मरने की इंतिहा तो तभी मानी जाएगी जब आप किसी उभरते या संघर्ष करते लेखक तक की रचनाएँ चुराने लग पड़ेंगे। ऐसा करते समय डर को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए। जो डर गया समझो मर गया। हालाँकि ज़्यादातर लेखक पहले ही इतने मर गए होते हैं कि डरने के बाद मरने की गुँजाइश ही नहीं रहती। वैसे डरना इसलिए भी नहीं चाहिए कि उभरता हुआ या पाठकों तक न पहुँचने वाला लेखक तो आपका आभार ही मानेगा कि चलिए, अपने नाम से ही सही, आपने उसे ज़्यादा पाठकों तक तो पहुँचाया। और ना भी माने तो ना ही माने, मगर आप ऐसा ही मान कर चलिए। इधर भगवान की 'कृपा' से पुराने लेखक सिर्फ़ इसलिए तो इस दुनिया में वापस आने से रहे कि अपनी दो-चार रचनाओं के पीछे आपसे झगड़ा-टंटा करें, जबकि उन्हें 'मरने' तक की फ़ुरसत नहीं। बड़े नासमझ हैं वे लोग जो कहते हैं कि यहाँ साहित्यकारों को सुविधाएँ नहीं मिलती। अरे, मिलें भी क्यों? यहाँ तो सुविधाओं को ही इतने साहित्यकार मिल जाते हैं कि उन्हें अपनी तरफ़ से तो किसी को मिलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। फिर यहाँ तो हर पी-एच.डी. धारी को साहित्यकार होने की सुविधा है। और पी-एच.डी. करने के लिए जो सुविधाएँ हैं उन्हें जानने-आजमाने की सुविधा किसको नहीं है। बस जैसी तरक़ीबों से आप सरकारी दफ़्तर में काम निकलवा लेते हैं तक़रीबन वैसी ही तरक़ीबें पी-एच.डी. की डिग्री लेने में काम आ जाती हैं। फ़र्क बस इतना है कि सरकारी काम फिर भी कभी-कभी समुचित साधन से हो जाता है या उसमें कई बार देर भी लग जाती है। अब रही पुरस्कारों की बात। तो इसके लिए तो जगह-जगह बाज़ार और दुकानें खुल गई हैं।
आप अपनी 'सवारी' लेकर निकलिए और जहाँ सौदा पट जाए वहाँ पुरस्कार ले लीजिए। सो
सिंपल। याद रखिए कि मरा हुआ हाथी ज़रूर सवा लाख का होता है मगर मरे हुए लेखक की कीमत तो आज
तक कोई आँक ही नहीं पाया। |