कल एक फ़िल्म देखी - 'लक्ष्य'। एक गीत था - मैं ऐसा क्यों हूँ? सुनने में आया कि कहानी
किसी हालीवुड की फ़िल्म से हूबहू मेल खा गई। पता चला है कि बाईचांस ऐसा हो गया।
कंबंख़्त देखिए न, इस बाईचांस ने अपने यहाँ अकल के शेर तो मार डाले अलबत्ता नकल के
लंगूर डाल-डाल पर लटके हैं। आप ज़्यादा खोजबीन करेंगे तो हो सकता है कि पता चले कि
सिर्फ़ आदमी ही अपने हैं, बाकी तो गठरी में सारा माल चुराया हुआ ही है। इधर इरफ़ान
अख्तर भाई छप रहे सारे इंटरव्यू में 'नहीं-नहीं' कर रहे हैं।
इंडिया मोरे, मैं नहीं माखन खायो।
बाईचांस ही उस पिक्चर से, इतना मेल ये खायो।
ऐसी कितनी ही चोरियाँ होती हैं। बैंक का क्लर्क, चोरी-चोरी चुपके-चुपके कैश मेमो के
बंडल घर ले जाता है। ऑफ़ि के गेट पर यदि गेटकीपर पकड़ ले, तो कह देता है कि घर पर
सत्यनारायण की कथा करवानी है, प्रसाद बाँटने के लिए ले जा रहा हूँ। एक मित्र हैं पी.
डब्ल्यू. डी. विभाग में छोटे से अफ़सर हैं। तनख़्वाह मामूली-सी है पर चार शहरों में
बड़े-बड़े मकान हैं और पत्नी स्वर्णाभूषणों की चलती-फिरती दुकान हैं। इसी वर्ष
विदेश यात्रा पर आए तो मेरे यहाँ ही जमे। जम और यम की समानता मुझे उन्हीं दिनों
अनुभव हुई। देश में देशी के कायल थे तो विदेश के ही आचमन से गला ठीक से खुला। एक
दिन थोड़ी ज़्यादा हो गई तो अपना कीर्ति गीत खुद ही गाने लगे। अरे यार, मेरठ के पुल
को बनवाने में देहरादून का बंगला निकल आया तो फ़लां सड़क में दस लाख पीट लिए। थोड़ी
देर बाद दार्शनिक हो गए। तो क्या हुआ? समुद्र-मंथन में घपला नहीं हुआ क्या? किशन
कन्हैया भी चुराते थे माखन, गोपियों के वस्त्र इत्यादि। सतयुगी परंपराओं का
निर्वाह अब हम अकिंचनों पर ही तो है।
पता नहीं, पर डायरी के पन्ने पलटता हूँ तो देखता हूँ कि इस तरह की बातें जीवन में
बहुत घुस गई हैं। वही कल भी हुआ। गाना देखा, डान्स देखा, मज़ा आया, शाम तक
गुनगुनाया - मैं ऐसा क्यों हूँ औ़र फिर अब लिखने बैठा हूँ तो देखिए मस्तिष्क में
फैली समस्त बातों ने किस तरह गीत के शीर्षक को दबोच लिया है। अब इसको तोड़ा-मरोड़ा
जाएगा। कुछ नया चाहिए। चाहे शीर्षक ही सही। और देखिए मिल भी गया। "हम ऐसे क्यों
हैं" और ठीक है माना कि पीने को तो वही पुरानी है साहब, पर ज़रा लेबल तो नया लगा
लूँ।
मेरे कई परिचित आश्चर्य में हैं। मुझे 'खिसक गया' समझने की तैयारी में हैं। मैं
लिखता भी हूँ, यह जानकर उन्हें बड़ा अजीब-सा लगा है। एक मित्र कह रहे थे - यार, मैं
तो उसे ख़ासा समझदार समझता था, वो इस चक्करों में कैसे पड़ गया। सही भी है हमारे देश
और समाज में लेखक की जो तस्वीर है झोलाछाप, फटेहाल टाइप, उस फ्रेम में अपने आप को
देखना, भयावह सपना-सा ही है। गली-सड़क के कुत्ते भी किसी भिखारी और झोला टंगी
लेखकीय वेशभूषा दोनों पर समान तीव्रता से भौंकते चिल्लाते हैं। आप देखिए न, कुत्ते
का भी समाजशास्त्र और सभ्यता ज्ञान कितना परिष्कृत हो गया है। फाटक से, घुस रहे
बंदे की वेशभूषा और हाथ में ब्रीफकेस है कि भीख का कटोरा, देखकर उसकी भी
ज्ञानेंदियाँ, 'अटैक' किया जाए या 'कूँ-कूँ' करके चरणों में लोटा जाए, का निर्धारण
करती है।
पिछले वर्ष भारत गया था। एक दिन सुबह-सुबह कुर्ते-पाजामे में ही एक मित्र के यहाँ
जा पहुँचा तो उसके कुत्ते ने भौंक-भौंक कर आसमान सर पे उठा लिया। मैंने कहा- यार
बड़ा ख़तरनाक कुत्ता पाल रखा है। मित्र बोला - नहीं यार ये तो साला कुर्ते-पाजामे की
वजह से भौंक रहा हैं। वैसे तो इसकी आवाज़ भी नहीं निकलती। अगली बार जब मैं उसी
मित्र के यहाँ गया तो डर की वजह से कार से गया और वो भी सूट-बूट में। मैं ये देखकर
दंग रह गया कि वही कुत्ता इस बार मेरी चरणों में लोट गया और कूँ-कूँ करता जूता
चाटने लगा। मैंने मन में सोचा - सब मनुष्य जाति कि संगत का असर है। कई ऐसे
बंगलों-फाटकों से मैं परिचित हूँ जिनपर तख़्ती लटकी होती है, 'कुत्तों से सावधान'।
अंदर कुत्ते पामेरियन निकलते हैं और मनुष्य जंगली। भ्रमित हो जाता हूँ कि बाहर गेट
पर की तख़्ती किससे सावधान रहने के लिए है और कुत्ते का पर्यायवाची कौन है।
मैं परिचितों को सफ़ाई देता फिर रहा हूँ कि नहीं बस यों ही थोड़ा हिंदी से प्रेम
है, भाषा का सम्मान करता हूँ तो बस उसे उठाने के लिए ही कुछ प्रयास करना चाहता हूँ।
इस पर भारत से एक मित्र ने लिखा कि यहाँ साला किसी को देश-प्रेम का पता नहीं और तुम
भाषा प्रेम की बात करते हो? सच ही कहा उसने। आज़ादी मिलते ही हमने सबसे पहला काम ये
किया कि देशप्रेम को ताक पे रखा। फिर अपनी भाषा को मरने के लिए छोड़ दिया। उसे न तो
खाना दिया न पीने को पानी और आज वो मरणासन्न है। ये तो भला हो पुराने लोगों का कि
बेचारी को कविता, कहानी की अच्छी खुराक दी तो अभी तक साँसे शेष है। इसके बाद अपने
देश में सभ्यता परिवर्तन का आंदोलन चल रहा है। इटस द टाईम फ़ॉर डिस्को। प्रॅक्टिस
फॉर द बिग ब्रेक। और मज़ा यह कि भारतीय टी. वी. चैनल को देखा जा सकता है। अख़बार या
फिर कोई समाचार पत्रिका भी पढ़ी जा सकती है।
परिवर्तन के इस दौर में जैसे-जैसे नारी की हिम्मत खुल रही है, वो और ज़ोर-ज़ोर से
डिस्को गीत नाचने लग गई है। तोड़ के बंधन बाँधी पायल, मैं तो आज नाचूँगी। सदियों से
वह बंधनों में रही है। और अब इस दौर में इन बंधनों से मुक्त होना है। सो इस मुक्ति
आंदोलन में पहला बंधन जो उसे दिखा है वह है वस्त्र-बंधन। तो फिलहाल आजकल तन को
वस्त्रों से मुक्त करने की ठानी है। तन दिखता है तो पैसा मिलता है। जितना अच्छा
दिखता है, उतना ज़्यादा मिलता है। एक से एक कंपनियाँ स्पांसर करती है। अभी कल ही
एक मैकेनिकल पंप का विज्ञापन देखा एक वरिष्ठ पत्रिका में। आलोस्कर पंप। विज्ञापन
में एक लड़की बारिश में भीग रही है। तालमेल क्या है बहुत समझने की कोशिश की। शायद
ऊपर ईश्वर को भी अब बारिश करने के लिए पंप की ज़रूरत पड़ रही होगी। अपना देश
देवभूमि है। जब देश में पानी नहीं तो देवों के पास क्या होगा? सोचता हूँ कि अब तन
की देवियाँ हैं और भूख के पुजारी, तो मन की सुंदरता का क्या होगा? पर मन के देखने
दिखाने का क्या? कुछ मिलता है क्या?
हमारे समाज में काम की एक नई परिभाषा बन गई हैं। काम वो जिससे पैसा पैदा हो। और जो
बग़ैर काम लिए ही पैसा पैदा कर ले वो तो असली गुरु। उसके तो चरणों में गृहस्थी ही
बसा लो। चापलूसी में मक्खन की गुरुदक्षिणा दो और हेराफेरी में पूर्ण दक्षता लो।
कर्म का अब यही आधार है। ऐसे में लिखना कैसे किसी को रास आ सकता है? अरे लिखना ही
है तो हैरी पोटर लिखो। प्रेमकथा लिखो जिस पर कोई फ़िल्म बन सकें। कुछ चटपटी ख़बर
लिखो जो बिक सके। कुछ नहीं तो गीत ही लिखो, जिस पर चश्मे लगे बुढ़ऊ सेंसर बोर्ड से
पास किया कोई - काँटा लगा हाय लगा टाइप बिकाऊ वीडियो बन सके। काम के बाकी सारे
अर्थ समाप्त हो चुके। बस बिकना ही अर्थ है जो बचा है।
''दुनिया में सबसे श्रेष्ठ कौन?''
''हम''
''सबसे महान कौन?''
''हम''
''दुनिया को किसने सिखाया?''
''हमने''
''हमको कोई कुछ सिखा सकता है?''
''नहीं हम सब पहले से ही सीखे हुए हैं।''
''सबसे बड़ा कौन?''
''हम नहीं मैं''
''और बेवकूफ़ कौन?''
''बाकी सारी दुनिया
इतिहास गवाह है कि सबने हमको हमारे घर में घुसकर लूटा! क्यों?''
''अतिथि देवो भव:''
''कभी सोचा है दोस्तों कि अख़िर हम ऐसे क्यों हैं?''
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