मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


हास्य व्यंग्य

 

ग्रेहाउंड से ऐटलांटा-लुइविल-सिन्सिनाटी की यात्रा
- महेश चंद्र द्विवेदी   

 


ग्रेहाउंड से यहाँ मेरा अर्थ इस नाम की कुत्तों की प्रजाति से नहीं है, वरन इस नाम से पूरे अमेरिका में चलने वाली बसों से हैं जो यथा नाम तथा गुण हैं। बसों को ख़तरनाक किस्म के कुत्तों का नाम देना भारतीयों को अजीब लगना स्वाभाविक है क्यों कि हमारे यहाँ बिचारे कुत्ते की न केवल दुर्दशा है वरन उसे हेय दृष्टि से भी देखा जाता है - मेरे हाईस्कूल के हिंदी के प्रश्न पत्र में जहाँ "बिचारा कुत्ते की मौत मारा गया" पर वाक्य बनाने को कहा गया था, तो इंटरमीडिएट के प्रश्न पत्र में "काटे चाटे स्वान के दोउ भाँति विपरीत" का अर्थ पूछा गया था।

परंतु अमरीका में मनुष्यों की कुत्तों से इतनी प्रगाढ़ मित्रता है कि अमरीकन लोग चाहे बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने का झंझट मोल लेने से कतराते हैं, परंतु कुत्ते को पालकर साथ लिटाने, उससे अपना मुँह चटवाने तथा उसे टहलाते हुए उसकी बिष्ठा पोलिथीन के बैग में बटोरते रहने और घर पहुँचकर उसे अपने हाथ से सौंचाने में आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं। वे चाहे अपनी पत्नी और प्रेमिका को हर छठे-छमाहे बदलते रहें, लेकिन अपने कुत्ते से आजीवन प्रेम करते हैं, अपनी वसीयत मे अपनी पत्नी के नाम कुछ छोड़ें या न छोड़ें, परंतु अपने कुत्ते या कुतिया के नाम अपनी संपत्ति का अच्छा-ख़ासा अंश अवश्य लिख जाते हैं, जिससे उनकी मृत्यु के उपरांत कोई ट्रस्ट या क्लब उनके कुत्ते की देखभाल भली-भाँति करता रहे। स्पष्ट है कि बसों का नाम 'ग्रेहाउंड' अमरीकनों के इस कुत्ता प्रेम के कारण ही रखा गया होगा, न कि उसकी काटने हेतु दौड़ने की प्रवृत्ति के कारण, और न ही इसलिए रखा गया होगा कि सब कोई इन बसों को खजुहे कुत्ते की तरह दुरदुराता रहे।

मुझे एक कवि सम्मेलन में भाग लेने अपनी धर्मपत्नी के साथ ऐटलांटा से सिन्सिनाटी जाना था और जेब में कड़की के कारण हवाई जहाज़ का किराया खर्च करने की सामर्थ्य नहीं थी। एक भले भारतीय मित्र ने ग्रेहाउंड बस से सस्ते में सफ़र संभव होने की जानकारी दी। मैंने उन्हें हार्दिक धन्यवाद दिया और एक सप्ताह पूर्व क्रय करने पर आधी दर पर मिलने वाला टिकट अविलंब ख़रीद लिया। बस पौने दस बजे रात ऐटलांटा से चलनी थी और सुबह पाँच बजे लुईविल पहुँचने के बाद वहाँ से छ: बजे दूसरी बस पकड़कर साढ़े आठ बजे सिन्सिनाटी पहुँचना था। अमेरीकन भाषा में 'औल सेट' था और केवल ''39 डॉलर'' प्रति टिकट में पाँच सौ मील की एयरकंडीशंड यात्रा के सुख की प्राप्ति की आशा में हम दोनों प्रसन्न थे।

दूसरे दिन ऐटलांटा के एक धनी मित्र के समक्ष हमारी बस द्वारा यात्रा का ज़िक्र आया तो उन्होंने ऐसा मुँह बनाया जैसे हम लोग आत्महत्या करने जा रहे हों और वह भी टिकट ख़रीदकर। वह गंभीर मुख मुद्रा बनाकर बोले,
"मैं तो आप को रात में इतना बड़ा ख़तरा उठाने की राय कभी नहीं दूँगा। ग्रेहाउंड से यात्रा न केवल अत्यंत 'लो-लेविल' यात्रा है वरन बड़ी ज़ोखिम भरी हुई भी है, क्यों कि ऐटलांटा का बस स्टेंड डाउनटाउन - सिटी सेंटर में स्थित है और वहाँ मुख्यत: ब्लैक लोग ही रहते हैं जिनके लड़कों के विषय में एक सर्वे में पाया गया कि उनमें से ''50 प्रतिशत'' ''18 वर्ष'' की आयु प्राप्त करने से पहले ही या तो जेल में बंद हो जाते हैं, नहीं तो हिंसक घटनाओं में मारे जाते हैं। फिर अगर आप डाउनटाउन में बच भी गए तो बसों में भी अधिकतर ब्लैक लोग ही चलते हैं - पता नहीं कब किस यात्री अथवा ड्राइवर पर हमला कर दें।"

यह सुनकर अपनी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई - अनजाने देश में रात के अंधेरे में अगर किसी भीमकाय बाक्सर ने एक घूँसा भी जमा दिया तो डाक्टर के पास पहुँचाए जाने से पहले ही अल्लाह को प्यारे हो जाएँगे। रात भर ऐसे ख़यालों के कारण अपने को नींद नहीं आई। दूसरे दिन और पूछतमाछ करने पर ज्ञात हुआ कि शराब के नशे में ड्राइवर पर हमला कर देने की दो घटनाएँ तो हाल में ही हो चुकीं हैं, जिनमें से एक में ड्राइवर का गला काट दिए जाने से वह तो मर ही गया था, साथ में बस के एक्सीडेंट हो जाने के फलस्वरूप तीन यात्री भी मर गए थे। पर जिन सज्जन ने यह बात बताई, उन्होंने यह भी कहा,
"यह ग्रेहाउंड की यात्रा त्यागने का पर्याप्त कारण नहीं है क्यों कि इंडिया में क्या प्राय: लूटपाट की घटनाएँ बसों व ट्रेनों मे नहीं होती रहती हैं।"

उनकी इस बात में हमें धैर्य दिलाने लायक कुछ भी न था। परंतु अन्य कोई उपाय न होने के कारण हमे ग्रेहाउंड की यात्रा करनी ही पड़ी।
यात्रा की रात बस स्टेंड पर आते समय रास्ते भर मेरी सभी इंद्रियाँ किसी भूतकाय व्यक्ति के हमले की आशंका में जाग्रत रहीं और मेरी धर्मपत्नी मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ती रही। वहाँ पहुँचकर देखता हूँ कि ऐटलांटा जितना फैला-फैला और हरा-भरा शहर है, उसका बस स्टेंड उतना ही सिमटा, सिकुड़ा और सूखा है। ग्रेहाउंड वालों को भी पता नहीं क्या सूझी कि उन्होंने बस स्टेंड की दीवालों को गहरे काले रंग से रंग रक्खा था और केवल काले रंग के लोगों को ही सिक्योरिटी, इन्क्वाइरी, ड्राइवरी आदि की ड्यूटी में भर्ती कर रक्खा था। वहाँ अनेकों बसों की प्रतीक्षारत सवारियों की भारी भीड़ थी और उनमें भी चहुँ ओर श्याम वर्ण की महिमा व्याप्त थी। प्रतीक्षालय में लगे एक मरियल एयरकंडीशनर को चिढ़ाती हुई गर्मी का साम्राज्य व्याप्त था।

मेरे पास कन्फर्म टिकट पहले से होने के कारण हम सिन्सिनाटी जाने वाली सवारियों के क्यू में जाकर खड़े हो गए। इधर उधर देखने और पूछताछ करने पर पता चला कि हमें अपनी दोनों अटैचियाँ उसी तरह चेक-इन करानी हैं जैसे हवाई जहाज़ में कराते हैं। पर तब तक दस बजकर चालीस मिनट हो चुके थे और चेक इन काउंटर पर लंबी लाइन लगी देखकर अपने को पसीना छूटने लगा। दौड़कर अटैचियाँ घसीटते हुए मैं क्यू में खड़ा हो गया और राम राम कहते-कहते पंद्रह मिनट बाद अपना नंबर आया। चूँकि बस वहाँ से दिखाई नहीं दे रही थी अत: हरदम धुकधुकी लगी रही कि बस छूट न गई हो। फिर चेक-इन काउंटर पर बिराजमान महाशय सिरसा-सा मुँह फाड़कर बोले, "योर फ़ान?", जिसको न समझ पाने के कारण मैं उन्हें भकुआ-सा देखने लगा। मुझे चकराया देखकर वह पुन: बोले, "फ़ान? फ़ान?"; मैं फिर भी उनका मुँह ताकता रहा। तब मुझे नाख्वांदा और ज़ाहिल समझकर वह अपने हाथ को माउथपीस की शक्ल देकर कान के पास ले गए। तब मैंने उनका आशय समझकर अपने मेज़बान का फ़ोन नंबर बता दिया। फिर अटैचियों पर चेक-इन का टैग लग जाने के बाद मैं उन्हें घसीटता हुआ दौड़कर वापस क्यू में लग गया।

बस का अभी तक कोई अता-पता नहीं था और भारतीय रेलवे स्टेशनों की तरह उसके विषय में माइक पर कोई जानकारी भी नहीं दी जा रही थी। गर्मी के मारे सभी यात्री बेहाल हो रहे थे। ग्यारह बजे रात में जब हमारा गेट खुला तब तक हमे भलीभाँति विश्वास हो चुका था कि लेट चलने वाली बसों के समय के विषय में यात्रियों से जानकारी छिपाने में ग्रेहाउंड भारतीय रेल से काँटे की टक्कर ले सकती हैं।

हमारे बस में घुसने से पहले ही अन्य यात्रियों ने हर बर्थ की किनारे की सीट पहले से कब्ज़िया ली थी, अत: मुझे और मेरी पत्नी को मजबूरन अलग-अलग बैठना पड़ा। मेरे बगल में एक ब्लैक नवयुवक बैठा हुआ था। गर्मी और तनाव के कारण मुझे खखार आ रही थी। मुझे बार-बार खखारते देखकर वह बड़ी बत्तमीज़ी से गैलरी की ओर उँगली दिखाते हुए बोला,
"नेक्स्ट टाइम यू हैव टू डू उहूँ, उहूँ, यू शुड स्टेंड अप देयर।"
यद्यपि मुझे पहले से डरा दिया गया था कि बस में यात्रियों से पंगा मत लेना क्यों कि पता नहीं कौन कितनी और क्या पीकर बैठा हो, तथापि मैंने साहस बटोरकर कहा,
"इफ यू हैव ऐनी प्रोब्लेम, व्हाई डोंट यू चेंज योर सीट?"
इस पर उसने अकड़कर जवाब दिया,
"व्हाई शुड आई?, यू शुड।"
ऐसे मे मैंने मौन साध जाने में ही अपना कल्याण समझा, क्यों कि मुझे बताया गया था कि पता नहीं रहता है कि इन लोगों में कौन, कब, क्यों और कौन-सा हथियार निकाल ले।

रास्ते मे लगभग एक बजे रात एक कस्बा आने पर ड्राइवर ने अपने स्पेशल एक्सेंट और अपनी स्पेशल अंग्रेज़ी मे माइक पर कुछ घोषणा की, जिसका अर्थ मैं यह समझा कि बस दस मिनट वहाँ रुकेगी और मैं हाथ पैर सीधा करने के उद्देश्य से नीचे उतरकर टहलने लगा। तभी ड्राइवर ने बस का दरवाज़ा बंद कर बस चला दी। मेरी धर्मपत्नी, जो बस मे ही थीं, ने दौड़कर उससे बस रोकने की अनुनय की, तब उसने बस तो रोक दी, पर मेरे बस मे चढ़ने पर काले स्याह चेहरे पर लाल आँखें तरेर कर न जाने क्या बुदबुदाया। होते करते सात बजे सुबह हमारी बस लुईविल पहुँची जब कि सिन्सिनाटी जाने वाली बस छ: बजे जा चुकी थी। वहाँ पूछने पर बताया गया कि अगली बस साढ़े आठ बजे मिलेगी। हम लोग आठ बजे से फिर क्यू मे लग गए, जिससे अबकी बार साथ-साथ बैठने को मिल जाए। अब क्यू मे लगे लगे आठ-साड़े आठ-नऊ-साड़े नऊ-दस बजने लगे, पर न तो बस आए और न कोई यह बताए कि कब आएगी। राम-राम कहते सवा दस बजे बस आई और हम लोग साढ़े बारह बजे सिन्सिनाटी पहुँचे।
पर हम उस समय इस हाल में थे कि जैसे ग्रेहाउंड कुत्ते द्वारा दौड़ाए जाने पर पाजामे का नाड़ा पकड़कर भागते आ रहे हों।

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।