| सामुदायिक भवन में काफ़ी हलचल थी। तेज़ गर्मी में भी चारों तरफ़ 
                      रंगों की बहार व खुशबुओं की फुहार उड़ रही थी। यहाँ पर शहर 
                      के हिंदी लेखिका संघ का सम्मेलन जो हो रहा था। इस सम्मेलन 
                      में अध्यक्ष का भी चुनाव होना था। भवन की पार्किंग में एक से 
                      एक शानदार कारें खड़ी हुई थीं। (क्योंकि ग़रीबों के घर की 
                      महिलाओं को तो रोटी चौके से ही फुर्सत नहीं मिलती, लेखन 
                      क्या खाक करेंगी)। शहर की कई नामचीन हस्तियाँ अपनी-अपनी 
                      लेखिकाओं के सामने दुम हिलाती और शान में कसीदे गढ़ती नज़र 
                      आ रही थीं। अंदर हाल में सम्मेलन की कार्यवाही चल रही थी।  स्वयंभू संचालिका ने मंच पर आकर माइक सँभाला और आते ही 
                      सम्मेलन की निवर्तमान अध्यक्ष का गुणगान करने लगी। श्रोताओं 
                      की ओर से हूटिंग और संचालिका की ओर से गुणगान की शूटिंग चालू 
                      थी। आख़िर संचालिका गुणगान का अपना कोटा पूरा करके ही मानीं 
                      और अध्यक्ष को बोलने के लिए आमंत्रित किया। अध्यक्ष महोदया 
                      ने चश्मा नाक पर रखकर गंभीर सूरत बनाकर कहना शुरू किया - 
                      'यहाँ साहित्य की कई विधाओं में दक्ष बहनें मौजूद हैं। इधर अध्यक्ष का भाषण चल रहा था और उधर श्रोताओं में 
                      खुसरफुसुर भी चालू थी। एक महिला ने दूसरी से पूछा - "क्यों 
                      बहनजी, आप क्या लिखती हैं?"दूसरी ने जवाब दिया - "राशन का बिल, घरेलू पत्रों के जवाब और 
                      नंबर दो के पैसे का हिसाब।" पहली वाली महिला चुप रह गई। आख़िर 
                      उनके बोलने के लिए कुछ रह भी कहाँ गया था।
 एक छायावादी लेखिका (जो स्वयं भी डायटिंग करते-करते 
                      छायामात्र ही रह गई थीं) बार-बार बेचैन हो रही थी। उनकी बगल 
                      वाली महिला से रहा न गया और पूछ ही डाला - "क्या हुआ, आप 
                      बेचैन क्यों हैं?""क्या करूँ बहन, कोई नया आयडिया ही नहीं आ रहा है लेखन के 
                      लिए।" छायावादी लेखिका ने लंबी और ठंडी साँस लेकर कहा - "सोच 
                      रही हूँ कि विचार सृजन के लिए कहाँ हो आऊँ। क्या ठीक रहेगा 
                      पहाड़ या समंदर। बच्चों की समर वेकेशन भी हो गई हैं और वे 
                      कहीं जाने की ज़िद कर रहे हैं।"
 "मेरे ख़याल से आप मुंबई वगैरह हो आइए। वहाँ शॉपिंग और सृजन 
                      दोनों ही हो जाएगा। हो सकता है कि सृजन की ही शांपिंग हो 
                      जाए।" पड़ोसी महिला ने जवाब दिया।
 उधर एक अन्य लेखिका अपने पास बैठी कवयित्री द्वारा लिखे गए 
                      बालगीतों और साड़ी दोनों की प्रशंसा करने में जुटी हुई थी 
                      क्योंकि उनके पति कवयित्री के पति के सहायक थे और प्रमोशन, 
                      ट्रांसफ़र वगैरह-वगैरह सब उन्हीं पर टिका हुआ था।
 उधर अध्यक्ष का भाषण समाप्त हो चुका 
                      था और बाकी महिलाओं में 
                      बोलने की होड़ लगी हुई थी। एक महिला लेखिका जो संयोग (या 
                      दुर्योग) से राजनीतिक भी थी, बार-बार माइक पर लपक रही थी। 
                      वह अपने बोलने की भड़ास यहीं निकाल लेना चाहती थी। गैलरी से 
                      उनके पति भी बार-बार उन्हें बोलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे 
                      थे। आख़िर सफल न होने पर उन्होंने वाकआउट की धमकी दे डाली। 
                      माइक फिर संचालिका के हाथ में आ गया और उनका प्रशस्तिगान भी 
                      शुरू हो गया था। उधर अध्यक्ष पद की दावेदार एक लेखिका 
                      बार-बार प्रेस फोटोग्राफ़रों और पत्रकारों से नमस्कार कर 
                      कैमरे के सामने आने की कोशिश कर रही थी और फ़ोटोग्राफ़र उनकी 
                      कुचेष्टा से झल्लाए हुए थे।इतने में हाल में एक प्रगतिशील लेखिका का पदार्पण हुआ। 
                      प्रगतिशीलता उनके कपड़ों और हावभाव हर ओर से झलक रही थी। 
                      उनको देखते ही मौजूद महिलाओं के माथे पर शिकन आ गई तथा 
                      लेखिकाओं के पतियों की आँखें चमक उठीं और वे मैडम-मैडम करते 
                      पीछे लपक लिए। तभी एक लेखिका ने ताव कसा -"कमबख़्त को क ख ग 
                      तो ठीक से आता नहीं, पता नहीं कैसे बन गई हिंदी लेखिका।"
 तभी मंच पर अध्यक्ष पद की दावेदार 
                      महिलाओं से "क्यों उनको 
                      अध्यक्ष चुना जाए" विषय पर बोलने के लिए कहा गया।सबसे पहले निवर्तमान अध्यक्ष आई और बोलना शुरू किया - 
                      "बहनों, मैंने अपने सशक्त लेखन (जो कि उन्होंने अपने पति के 
                      सहायकों से करवाया था) से हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी 
                      है। मैं पहले भी अध्यक्ष रह चुकी हूँ और मुझे इस बार भी 
                      अध्यक्ष होना चाहिए। क्यों होना चाहिए वह आप सब जानती हैं, 
                      अब मैं आगे और क्या कहूँ।" इतना कहकर उन्होंने माइक छोड़ा।
 इसके बाद राजनीतिक दल से जुड़ी हुई लेखिका आई और आते ही 
                      अन्याय, प्रतिकार और भेदभाव का विरोध करने आदि की बातें करने 
                      लगीं। वह बोली - "बहनों, लेखिका संघ में एक पक्ष की मोनोपोली 
                      चल रही हैं। इस शोषण का हमें विरोध करना होगा। इसलिए इस बार 
                      मुझे मौका मिलना चाहिए (शोषण का) अध्यक्ष बनने का।"
 तदुपरांत प्रगतिशील लेखिका मंच पर आई और एक मोहक मुसकान सभी 
                      पर डाली। "हाय गाइज एंड गर्ल्स" उन्होंने कहना शुरू किया - 
                      "मैं हिंदी लेखिका संघ को पावरफुल और पापुलर बनाना चाहती 
                      हूँ। मेरे फौरेन में अच्छे संबंध हैं। उनके थ्रू मैं हिंदी 
                      लेखन में इंप्रूवमेंट लाऊँगी। वैसे ही अब यंग लोगों को आना 
                      चाहिए और लेखिका संघ को भी बुढ्ढ़ियों से निजात मिलना 
                      चाहिए।" उनके इतना कहते ही हंगामा मच गया। चारों तरफ़ आरोप 
                      प्रत्यारोप की कांय-कांय होने लगी। सम्मेलन, सम्मेलन न होकर 
                      लोकसभा में बदल गया। दीर्घा में मौजूद कबिरा साहित्य की साध्वियों की यह हालत 
                      देखकर दंग था। तभी उसकी नज़र एक कोने में बैठी सफ़ेद बालों 
                      वाली एक वृद्ध महिला पर पड़ी। वह शोरशराबे से अलग 
                      शांतिपूर्वक हल्की मुस्कान के साथ सारा नज़ारा देख रही थी। 
                      कबिरा उनके पास गया और बोला, "माताजी, आप किसकी तरफ़ हैं और 
                      यहाँ जो साहित्य साधना (?) हो रही है उसके बारे में अपके 
                      क्या ख़याल हैं?"बेटा, जो भी पढ़ लिख रहा है उसकी तरफ़ हूँ।" उन्होंने जवाब 
                      दिया।
 "माताजी, आपका परिचय क्या है।" कबिरा बोला।
 मंद-मंद मुस्कान के साथ उन्होंने जवाब दिया - "मैं सरस्वती 
                      हूँ और तुम साहित्य साधना के बारे में पूछ रहे थे तो बेटा 
                      मेरे सच्चे साधक इन सब शोर शराबे और दिखावे से दूर तन्मयता 
                      से मेरी साधना में लगे हैं। उनके रहते मुझे कोई चिंता नहीं 
                      हैं। इसलिए मैं मुस्करा रही थी।"
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