| आपने हरभजनसिंह का नाम अवश्य सुना होगा - अरे वही अपना 
                      भज्जी, जो कभी अपनी बोलिंग से इंडियन क्रिकेट टीम को 
                      चैंपियन बना देता है, तो अगली बार टीम से आउट भी कर दिया 
                      जाता है। बिचारे की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि कभी-कभी तो सिर 
                      मुड़ाते ही ओले पड़ जाते हैं।  अब 3, दिसंबर, 2002 की ही बात ले लीजिए - बिचारा काफ़ी दिन 
                      मक्खियाँ मारने के बाद इंडियन टीम में क्रिकेट खेलने के लिए 
                      न्यूज़ीलैंड गया हुआ था कि न्यूज़ीलैंड के एयरपोर्ट पर कस्टम 
                      वालों को न जाने क्या मज़ाक सूझी कि बोले कि हरभजनसिंह का 
                      जूता चेक करना है। यह भी कोई बात हुई - हमारा प्यारा-सा 
                      मुँडा क्या कोई स्मगलर है जो जूते मे हीरे छिपाकर ले गया 
                      होगा। पर इन गोरों की अकल को कोई क्या कहे - अड़ गए कि हमें 
                      तो बस हरभजन सिंह का जूता चेक करना है। अब न्यूज़ीलैंड कोई 
                      बिहार तो है नहीं कि ऊँच-नीच समझाकर या चुपचाप जेब में माल 
                      खिसका कर कह दिया जाता, "चुप्पे धै लेउ, अपने बाली-बच्चन के 
                      ख़ातिर इह जाड़े के मौसम मा सूटर ख़रीद लिहे। काहे का भज्जी की 
                      इज़्ज़त उतरवायै के पाछे पड़ा है।" न्यूज़ीलैंड वाले तो कीवी की 
                      तरह अड़ गए कि भज्जी का जूता ज़रूर चेक करेंगे। झख मारकर 
                      भज्जी ने जूता चेक कराने को सामने मेज़ पर रख ही दिया - उसने 
                      उनमें न तो हीरे छिपाए थे और न चरस। इसलिए उसे किसका डर था 
                      - वह तो बस इज़्ज़त का सवाल था जो भज्जी जूते चेक कराने में 
                      आनाकानी कर रहा था। पर भई जूते जूते में फ़र्क होता है और ज़रूरी नहीं कि इस फ़र्क 
                      को हम हिंदुस्तानी भाई भी उतनी पैनी नज़र से देख सकें, जितनी 
                      पैनी नज़र से कीवी देखते हों। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है 
                      कि हमारे हिंदुस्तान में जूतों की वैराइटी नहीं है - मिलते 
                      तो यहाँ चमरौधे जूते से लेकर गुच्ची शू तक सभी हैं। हमारे 
                      नवाब लोग तो हीरे मोती से जड़े ऐसे बेशकीमती जूते पहना करते 
                      थे जो कीवियों के बाप-दादाओं ने भी नहीं देखें होंगे। और 
                      हमारे देश में जूतों को जिस वेराइटी के उपयोगों में लाया 
                      जाता है, वह तो ठेठ हिंदुस्तानी अकल के अतिरिक्त और कोई सोच 
                      भी नहीं सकता है। अब अगर आप हिंदुस्तान के किसी दूरदराज़ के 
                      गाँव के रहने वाले हैं और अपनी ससुराल जाकर वहाँ सालियों पर 
                      इंप्रेशन मारने के लिए आप ने नए जूते ख़रीदे हैं तो ज़ाहिर 
                      है कि आप अपने गाँव से जूतों को पैरों में पहिनकर थोड़े ही 
                      जाएँगे वरन कंधे पर रखी हुई लाठी पर लटकाकर ले जाएँगे और 
                      जब ससुराल वाला गाँव दो एक फर्लांग - या अधिक से अधिक एक मील 
                      - दूर रह जाएगा, तभी जूतों को पहिनेंगे, जिससे सालियाँ नया 
                      चमकदार जूता देखकर लट्टू हो जाएँ।  हमारे यहाँ जूता भगवान के प्रति श्रद्धा जताने के उपयोग में 
                      भी आता है। मंदिर में आप जूता पहनकर नहीं जा सकते, चाहे 
                      बाटा के डिब्बे को कार से निकालकर मंदिर के सामने ही खोलकर 
                      जूता पहिना हो, परंतु पानी और कीचड़ से लथपथ पैरों से मंदिर 
                      में घुसने पर कोई पंडा-पुजारी कैसे एतराज़ कर सकता है जब 
                      भगवान को स्नान कराने के नाम पर पूरे मंदिर में कीचड़ का 
                      साम्राज्य पुजारी ही फैलाता है। गुरुद्वारा वालों ने तो 
                      जूतों का एक ऐसा उपयोग ईज़ाद किया है जो संपूर्ण विश्व में 
                      अनोखा है - ज्ञानी जैलसिंह जब होम-मिनिस्टर थे तो आपरेशन 
                      ब्लू-स्टार की अनुमति देने के कारण उन्हें तनखैइया! 
                      धर्मच्युत! घोषित कर दिया गया था और एक हफ्ते तक 
                      स्वर्ण-मंदिर के सामने बैठकर बाहर उतारे हुए सभी जूतों को 
                      साफ़ करने की सज़ा सुनाई गई थी। फिर हर प्रकार से माफ़ी माँगने 
                      के बावजूद उन्हें तभी पंथ के अंदर लिया गया था जब पूरे सात 
                      दिन तक वह जूते चमकाते रहे थे। उन सात दिनों के बीच बहती 
                      गंगा में हाथ धोने मैं भी स्वर्ण मंदिर में अरदास देने चला 
                      गया था। हमारे देश में जूते सिर्फ़ पहनने की ही चीज़ नहीं हैं वरन 
                      मारने और खाने की चीज़ भी हैं - अगर किसी की इज़्ज़त लेनी हो, 
                      तो एक जूता मार दीजिए अथवा किसी को सुपारी देकर मरवा दीजिए 
                      - बिचारा ताज़िंदगी तिलमिलाता रहेगा। हालाँकि जूता खाने वाले 
                      की इज़्ज़त दो कौड़ी हो जाती है, लेकिन फिर भी अधिकतर 
                      हिंदुस्तानी भाइयों को जूता खाने का शौक रहता है - बशर्ते 
                      जूता सोने का हो। सरकारी कर्मचारी आफ़िस में अपना ज़्यादातर 
                      वक्त इस इंतज़ार में गुज़ारते हैं कि कब कोई दस-बीस हज़ार का 
                      जूता लाकर उन्हें मारे, और ज़्यादातर अनब्याहे लड़कों के बाप 
                      तो लड़की वालों से खुद को मारे जाने वाले जूते का साइज़ 
                      बढ़ाने की कला सीखने में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं।अब इसी को कहते हैं 'आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास' - बात 
                      हरभजन के जूते से चलकर कहाँ पहुँच गई। तो हुआ यह कि जब भज्जी 
                      ने जूता खोलकर मेज़ पर रखा तो उसमें लगे कीचड़ को देखकर - या 
                      शायद उसकी बदबू सूँघकर - कस्टम वाले बेहोश होने लगे और 
                      उन्होंने बिना उनमें हाथ लगाए भज्जी को जल्दी से उन्हें 
                      पोलिथीन में वापस लपेटने को कहा। फिर उन्होंने ग़रीब भज्जी पर 
                      यह आरोप लगाते हुए दो सौ डालर का फाइन कर दिया कि वह अपने 
                      जूतों के कीचड़ में तमाम बैक्टीरिया छिपाकर न्यूज़ीलैंड की 
                      फ़सलों पर बायोलोजिकल वार करने आया है। बिचारा भज्जी अभी तक 
                      अपना सिर खुजला रहा है कि हिंदुस्तान में तो वह रोज़ाना इससे 
                      भी गंदे जूते पहनता है - किसी ने ऐसा आतंकवादी आरोप उस पर 
                      नहीं लगाया, इन न्यूज़ीलैंड वालों ने उससे दो सौ डालर झटकने 
                      का यह कौन-सा नया तरीका निकाल रखा है?
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