| मैंने तो अपने घर के 
                      टीन-छप्पर सँभाल लिए हैं, आप अपनी रक्षा स्वयं करें। जिधर से 
                      सुनों यही सुनने को मिल रहा है कि आँधी आ रही है। मैं तो 
                      सिर्फ़ आँधी को आँधी के रूप में ही जानता हूँ जो दिल्ली में 
                      मई-जून की गर्मी में चलती है। आजकल जैसे दिल्ली किसी मौसम का 
                      किसी को कुछ पता नहीं रहता। कभी भी चल देता है, वैसे ही 
                      दिल्ली में चलने वाली इन आँधियों का कुछ पता नहीं, कभी भी चल 
                      देती है। चाहे गर्मी हो या सर्दी, सूखा हो या बरसात, कभी भी 
                      चल देती है। इन आँधियों का नामकरण भी हो गया। कहीं सोनिया की 
                      आँधी आ रही है तो कहीं भाजपा की और कहीं संयुक्त मोर्चा की आ 
                      रही है तो कहीं असंयुक्त मोर्चे की। एक तो देश वैसे ही खुली 
                      बाज़ार व्यवस्था की आँधी में बह चुका है, और आँधियाँ आ गई 
                      तो, तेरा क्या होगा देशिया? (व्याकरणाचार्य 'देशिया' शब्द के 
                      अर्थ के प्रति अपनी जिज्ञासा और मुझ अज्ञानी के अज्ञान पर 
                      मुस्कराहट वैसे ही बिखेर सकते हैं जैसे अंग्रेज़ किसी भारतीय 
                      की कब्ज़ीयुक्त अंग्रेज़ी सुनकर बिखेरता है। हे 
                      व्याकरणाचार्यो 'देशिया' शब्द कालिया, गोरिया, आदि की तुक पर 
                      महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रेरणा से निर्मित हुआ है तथा 
                      इसका मूलाधार देश है। आजकल देश का मूलाधार क्या है, आपको पता 
                      चले तो मुझ अज्ञानी को बताने का कष्ट करें।) चुनाव आता हैं तो मेरे अंदर 
                      सवालों का साँप फन उठाकर खड़ा हो जाता है और चाहता है कि 
                      किसी को पकड़कर काटे नहीं, तो कम-से-कम फुफकार ही ले। जैसे 
                      पुलिसवाला बेवजह किसी की तशरीफ़ पर डंडा न जमा दे, कॉलेज में 
                      पढ़ाने वाला लेक्चरर छुट्टी के दिन एक-आध को पकड़कर क्लास न 
                      ले ले, घर में किसी को डाँट न ले, वैसे ही मुझे सवाल खड़े 
                      किए बिना चैन नहीं आता है। सवालों के फन को राधेलाल के सामने 
                      खड़ा करने में बड़ा आनंद आता है, क्योंकि राधेलाल के पास वो 
                      फन है कि अच्छे से अच्छा फन फेन की तरह बैठ जाता है। मैंने राधेलाल से कहा,  
                      "राधेलाल, आँधी बहुत बुरी चीज़ है न, जब आती है तो चारों ओर 
                      से सब कुछ तहस-नहस करके चली जाती है।""हाँ, बिल्कुल सही फ़र्माया आपने।"
 "फिर, चुनाव के समय जिसकी आँधी चलती है, वह खुश होकर क्यों 
                      गाता फिरता है कि आँधी आ रही है? वह आँधी आने का ऐसा चित्रण 
                      करता है जैसे आँधी न आ रही हो, सोने की वर्षा हो रही हो।"
 "चुनाव के समय जिसकी आँधी चल जाती है उसके लिए सोने की वर्षा 
                      ही होती है, आँधी तो हमारे तुम्हारे लिए होती है। इसे तुम 
                      कबीर के एक पद के साथ समझ सकते हो। कबीर का पद है - संतों 
                      भाई आई ज्ञान की आँधी रे। कबीर का कहना है कि जब ज्ञान की 
                      आँधी आती है तो सारी दुविधा समाप्त हो जाती है। तृष्णा लुप्त 
                      हो जाती है, मोह छूट जाता है, भ्रम दूर हो जाता है और ज्ञान 
                      हो जाता है कि जो कुछ है वो ईश्वर ही है, हम कुछ नहीं है। 
                      ऐसे ही है अज्ञानी मतदाता, चुनाव में जब किसी की आँधी चलती 
                      है तो कौन प्रधानमंत्री बनेगा, यह दुविधा समाप्त हो जाती है। 
                      प्रधानमंत्री पद की तृष्णा लुप्त करनी पड़ती है, मोह छोड़ना 
                      पड़ता है और इस बात का ज्ञान हो जाता है कि पार्टी में जो 
                      कुछ है वह वही आँधी चलाने वाला या वाली है। इस आँधी के बाद 
                      सरकार बनने की जो वर्षा होती है उसमें वह सभी भीगते हैं जो 
                      मोह-माया छोड़कर ज्ञानी हो चुके होते हैं। ऐसे ही ज्ञानियों 
                      को उस ईश्वर के बिना किसी रोक-टोक के दर्शन होते हैं।"
 ''हे महागुरु, ऐसी आँधी में 
                      जो ज्ञानी है वह तो दूर होकर अपना झोपड़ा बचा लेता है और 
                      आँधी के बाद उस ईश्वर के दर्शन भी कर लेता है पर हमारे जैसों 
                      का क्या, जिनको यह ज्ञान होता ही नहीं है?"''जैसे ग़रीब के झोपड़े का जन्म बाढ़ में बह जाने के लिए हुआ 
                      है, गधे का जन्म बोझा ढ़ोने के लिए और मेमने का जन्म भेड़िए 
                      का भोजन बनने के लिए हुआ है वैसे ही निरीह भारतीय मतदाता का 
                      जन्म हुआ है। जैसे टिटहरी को भ्रम होता है कि उसने आकाश थामा 
                      हुआ है वैसे ही उसे भ्रम होता है कि उसने प्रजातंत्र थामा 
                      हुआ है। वह यह सोचकर खुश हो लेता है कि उसके एक काग़ज़ी 
                      हथियार से सरकार चुनी गई है और उसने चुनी है। वह यह नहीं 
                      जानता है कि भेड़ किसी भी भेड़िए का चुनाव करें, जान तो उसकी 
                      ही जाएगी।"
 "तो ऐसे में भेडें क्या करें? भेड़िओं का चुनाव करना उसकी 
                      मजबूरी है।"
 "इस मजबूरी को करके सो जाना तो कोई मजबूरी नहीं है। सदा 
                      जागते रहने से ही जान बच सकती है। सच्चा संत वही है जो सदा 
                      जागता रहता है। पाँच साल में एक बार जागकर सो जाना 
                      प्रजातंत्र नहीं होता है घोंचू प्यारे।"
 देश की जनता घोंचू हो सकती है, मैं इस सम्मान को कैसे ग्रहण 
                      कर सकता हूँ। मैंने देखा सामने से एक रिक्शावाला आ रहा है। 
                      मैंने यह सम्मान ससम्मान उसे देते हुए कहा - घोंचू।"
 उसने इस सम्मान को ऐसे 
                      ग्रहण किया जैसे ज्ञानी लोग पद्मश्री ग्रहण करते हैं और 
                      पूछा, "कहाँ जाएँगे बाबू?" एक सच्चे नेता की तरह उसे मेरी 
                      गाली की चिंता नहीं थी, उसे तो इस बात की चिंता थी कि मेरी 
                      जेब का पैसा उसके पास कैसे पहुँच सकता है।"मैं चर्चा कर रहा था चुनाव की आँधी की और बीच में आ गया मेरी 
                      जेब का पैसा। यह पैसा बड़ी कमबख़्त चीज़ हैं हर जगह बीच में 
                      आ जाता है। प्रेमी प्रेम करना चाहता है तो बीच में आकर दीवार 
                      बन जाता है और जनसेवक सेवा करना चाहता है तो आकर घोटाला बन 
                      जाता है।
 मैंने रिक्शेवाले से कहा, "विश्वविद्यालय चलोगे?"
 "चलेंगे बाबू, पर हमें पता नहीं ये कहाँ है।"
 "कब से रिक्शा चला रहे हो?"
 "पिछले पाँच बरस से बाबू।" (जैसे पिछले पाँच बरस से कुछ 
                      देशसेवी देश चला रहे हैं।)
 "पिछले पाँच बरस से! पिछले पाँच बरस से इस इलाके में रिक्शा 
                      चला रहे हो और तुम्हें पता नहीं कि यूनिवर्सिटी कहाँ है!"
 "जूनीवर्सिटी तो पता है।"
 "वहीं तो जाना है।"
 "तो हिंदी में बोलिए न, सीधे-सीधे कि जूनीवर्सिटी जाएँगे। 
                      बैठिए, दस रुपया होगा।"
 मुझे अपने भाषा ज्ञान पर 
                      शर्म आई और देश में हिंदी की स्थिति पर गर्व हुआ इसलिए बिना 
                      मोल भाव किए मैंने दस रुपए में जूनीवर्सिटी की ओर प्रस्थान 
                      किया।रिक्शावाले ने मुझे घोंचू बना दिया था तथा उसके सामने अपनी 
                      जिज्ञासा रखकर मैं और घोंचू बनने से डर रहा था। मैंने हनुमान 
                      चालीसा की चौपाई का मन ही मन पाठ किया और महोदय रिक्शावाले 
                      से कहा, "भैय्या आपको पता है कि आजकल चुनाव का मौसम चल रहा 
                      है।"
 "हाँ बाबूजी, आजकल तो खूब मनोरंजन हो रहा है हमारी पूरी 
                      फ़ैमिली का।"
 "मनोरंजन! चुनाव से मनोरंजन!"
 "और नहीं तो क्या बाबूजी, हमारे बच्चे हमारी महतारी और हम 
                      खूब म्यूज़िक सुनते हैं, रात-दिन गाना बजाना करते पार्टी 
                      वाले इधर से उधर अपने कार स्कूटर दौड़ाते रहते हैं। कई बार 
                      खाने-पीने को, समझे बाबू, पीने को भी मिल जाता है। आपके यहाँ 
                      क्या चल रहा है? किसकी हवा चल रही है?"
 "हमारे यहाँ तो की आँधी चल रही है।"
 "ठीक है बाबू उसी की आँधी चलवाओ बाबू हमें रिक्शे का भाड़ा 
                      दस नहीं आठ ही दे देना, पर अपने इलाके में आँधी उसी की 
                      चलवाना बहुत खूबसूरत आँधी है।"
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