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हास्य व्यंग्य

सू पुराण    
—महेशचंद्र द्विवेदी 


सू शब्द से मेरा पुरान परिचय है – जब मैं बच्चा था और गांव में रहता था¸ तब एक बिल्ली मेरे घर से परच गई थी और मौका मिलते ही सबकी आंख बचाकर कभी दुंधाड़ी में रखा दूध मय मलाई के साफ कर जाती थी और कभी तसले के नीचे छिपाई हुई रोटियों को बेतकल्लुफी–से तसला उठाकर मुंह मे दबा लेती थी और जब तक तसले के गिरने की आवाज पर कोई दौड़े रफू–चक्कर हो जाती थी।  इसलिये मेरी मां ने एक कुत्ते को पाल लिया था जिसे बिल्ली के दिखाई पड़ते ही वह सू कहकर ललकार देती थी और वह बिल्ली को दौड़ा लेता था।  चूंकि कुत्ता और बिल्ली की खानदानी दुश्मनी है अत: मां के एक बार सू कहने पर कुत्ता ऐसे दौड़ पड़ता था जैसे ओलम्पिक का गोल्ड मेडल उसी दौड़ के परिणाम पर मिलना हो।

सू–सू का अर्थ मुझे तब समझ में आया जब मैने शहर से ब्याह कर लायी गई अपनी भाभी को प्रथम बार अपने बच्चे को दोनों टांग उठाकर लटकाये देखा।  उसे लटकाकर वह सू–सू कह रही थी कि शहरी भाभी के होशियार बच्चे ने निशाना लगाकर एक ऐसी तेज धार छोड़ी¸ जो उनके मुंह को बाकायदा धो गई थी।  चूंकि मेरी मां मुझे सू–सू के बजाय सी–सी कहकर मुताती थी¸ अत: मैंने सू–सू पहली बार सुना था और उसका मुखस्वच्छकारी प्रभाव भी पहली बार देखा था।

सू अंग्रेजी¸ भाषा का शब्द भी हैं¸ जिसका अर्थ होता है किसी प्रकार की हानि की भरपाई के लिये दीवानी करना – यह मुझे कालेज में पढ़ने जाने पर पता चला।  भारत में कम ही व्यक्ति अंग्रेजी के इस सू शब्द से परिचित है क्योंकि भारत में दीवानी वह करता है जो दीवाना होता है।  यहां किसी व्यक्ति द्वारा दाखिल दीवानी वाद का निर्णय यदि उसके नाती–पोतों के जीवनकाल में प्राप्त हो जाये तो उस व्यक्ति की स्वर्गवासी आत्मा अपने को धन्य मानती हैं।  मुझे लगता है कि भारतीय माताओं ने सू करने के इस हेय परिणाम को देखकर ही हिन्दी में इस शब्द का प्रयोग कुत्ता दौड़ाने या बच्चों को मुताने के लिये करना प्रारम्भ किया होगा।

सू की वास्तविक महिमा तो मुझे अमेरिका की यात्रा करने पर ज्ञात हुई।  इस देश में तो हर व्यक्ति चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो¸ और हर संस्था चाहे वह स्वयं शासन ही क्यों न हो¸ सू शब्द से इतना घबराता है जितना मेरे गांव की बिल्ली भी कुत्ते के दौड़ाने पर नहीं घबराती थी।  और फिर बेचारे घबरायें न तो क्या करें जब प्राय: न्यायालय के निर्णयों में हर्जाने की रकम मिलियन डालर्स से कम नहीं होती हैं।  मजे.दार बात यह है कि यहां सू करने वाले की अपनी दमड़ी भी खर्च नहीं होती है और हर्जाना मिलता है लाखों करोड़ो में बस सू करने के लिये कोई उपयुक्त अथवा अनुपयुक्त परंतु सामयिक खब्त के अनुरूप प्रकरण उपस्थित होना चाहिये।  वास्तविकता यह है कि प्राय: सू करने वाला व्यक्ति जिन प्रकरणों को सू करने योग्य होने की बात सपने में भी नहीं सोचता है¸ उनकी भी टोह लेकर यहां के अटर्नी स्वयं उस व्यक्ति से सम्पर्क करके उसको सू करने को उकसाते हैं और इस बात के लिये राज़ी कर लेते हैं कि सू करने वाला व्यक्ति बिना कोई धन व्यय किये मुकदमा लड़े।  जीत जाने पर वसूल होने वाली रकम वादी एवं अटर्नी में बांट ली जायेगी – यानी कि सू करने वाले के लिये हींग लगे न फिटकरी और रंग आवे चोखा।

इलाज मे की गई तथाकथित असावधानी के लिये मरीजों द्वारा डाक्टरों को सू करके लाखों रूपये वसूल करने के किस्से तो आपने सुने होंगे¸ परंतु क्या आप विश्वास करेंगे कि एक व्यक्ति ने अपने पड़ोसी से कार में लिफ्ट मांगी¸ भलामानुस पड़ोसी उसे अपनी कार में लेकर चला तो कार एक अन्य कार से टकरा गई।  उस व्यक्ति को एक्सीडेंट में कुछ चोटें भी आ गई¸ तो उसने पड़ोसी को सू कर दिया कि उसकी लापरवाही से उसे गम्भीर वेदना सहनी पड़ी एवं उसके कार्य दिवसों की हानि हुई।  अब वह पड़ोसी अपनी भलमनसाहत के परिणामस्वरूप अपना बैंक एकाउंट खाली कर चुका है और वेतन के एक अंश का मासिक भुगतान उस व्यक्ति को कर रहा है।  एक अन्य प्रकरण में एक महिला ने दावा पेश किया कि वह 1965 से एक ही ब्रांड की सिगरेट पीती रही है और अब उसे कैंसर हो गयी है¸ और चूंकि सिगरेट कम्पनी ने सिगरेट के पैक पर यह नहीं लिखा था कि उसके पीने से कैंसर हो सकती हैं इसलिये कम्पनी उसे हर्जाना दे।  विद्वान न्यायाधीश ने अपने निर्णय में सिगरेट कम्पनी को आदेश दिया कि वह उस महिला को 30 बिलियन डालर/150 खरब रूपये/हर्जाना के दे।  उस महिला को अब एक ही परेशानी हैं कि इस कल्पनातीत पैसे का वह अब मरते समय क्या करें।  

एक मुस्लिम महाशय ने एक रेस्ट्रां–मालिक पर दावा किया कि वह जब उस रेस्ट्रां में मीट खाने गया तो रेस्ट्रां वाले ने उसे यह नहीं बताया कि उसका मीट हलाल मीट नहीं है¸ जिससे धर्मभ्रष्ट हो गया है।  न्यायालय के निर्णय के फलस्वरूप उसका रेस्ट्रां बंद हो चुका है परंतु फिर भी वह अपना भाग्य सराह रहा है कि वह केवल एक लाख डालर का हर्जाना देकर उबर गया है।  कुछ अन्य प्रकरण जिनमें अभी निर्णय नहीं हुआ है¸ और भी अधिक रोचक हैं।  एक अमेरिकन ने दावा किया है कि वह एक विशेष फास्टफूड़ चेन का वसायुक्त खाना पिछले 20 वर्ष से खाता रहा है¸ जिससे उसका वज़न बढ़कर 300 पाउंड हो गया है। उसका वज़न बढ़ाने के लिये 'उत्तरदायी' उस फास्ट–फूड चेन से उसे हर्जाना दिलाया जावे।  विधिविशेषज्ञों का विचार हैं कि बिलियन न सही तो कुछ मिलियन डालर से तो यह व्यक्ति धनी हो ही जायेगा।

सबसे मज़ेदार दावा तो मेक्सिको के नागरिकों ने दायर किया है।  अमेरिका से सीमा लगी होने के कारण वहां के अनेकों व्यक्ति बिना विसा प्राप्त किये अवैध रूप से अमेरिका में बसने हेतु पैदल आते रहते हैं।  इनमें से एक मार्ग पर लंबा सा रेगिस्तान पड़ता है।  एक बार इन अवैध घुसे मेक्सिकन में से 9 व्यक्ति प्यास के मारे इस मार्ग पर मर गये।  अब उनके घर वालों ने अमेरिकन शासन को सू किया है कि अमेरिकन शासन को यह ज्ञान होते हुये भी कि इस मार्ग से मेक्सिकन्स अवैध रूप से अमेरिका में आते हैं¸ उन्होंने इस मार्ग पर पानी की समुचित व्यवस्था नहीं की।  अब अमेरिकन शासन मुकदमा हार जाने के भय से अच्छे से अच्छे वकील तो अपने बचाव में लगाये ही हुये हैं¸ भविष्य में अवैध अमेरिका आने वाले मेक्सिकन्स के लिये उस रेगिस्तान में पानी एवं अन्य सुख–सुविधा का समुचित प्रबंध भी कर रहा है।

वाह रे मालिक¸ क्या महिमा है तेरी?  भारत में किसी को सू करने की धमकी दी तो कहेगा कि क्या दीवाना हो गया है – तेरे परदादे ने मेरे लकड़दादे को सू किया था¸ उसका फैसला अभी तक करा पाया है?  जो नया झंझट अपने सिर ले रहा है।  और अमेरिका में सू किये जाने के नाम से ही बड़े–बड़ों की सू सू निकल जाती हैं।

 
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