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हास्य व्यंग्य

 

मैया¸ मोहीं विदेस बहुत भायो
— डा प्रेम जनमेजय 
 


राधेलाल के पिता जी ने गुलाम हिंदुस्तान में एक कहावत सुनी थी –– जिसने लाहौर शहर नहीं देखा¸ उसने कुछ नहीं देखा और राधेलाल ने आज़ाद हिन्दुस्तान में कहावत सुनी –– जो विदेश नहीं गया¸ उसका जीवन व्यर्थ बहा – बहा¸ दो सरस पद भी न हुए अहा! यह कहावत उसके उन मित्रों ने बार बार सुनाई जो विदेश जा चुके थे।

देसी विदेशियों के मुंह से विदेश के वर्णन सुन सुनकर राधेलाल को लगने लग गया था कि यह मानुष जीवन अकारथ जाने वाला है। इतनी कठिनाई से इस जीव को यह जन्म मिला है और वो इस जन्म को बिना विदेश गए वृथा गवा रहा है। उसे जब भी पता लगता कि मोहल्ले में कोई विदेश से आया है तो वह उस महान आत्मा के दर्शन करने चल देता। जैसी प्रेमी अपनी प्रेमिका के दर्शनार्थ साहित्यकार पुरस्कारार्थ¸ नेता भ्रष्टाचारार्थ¸ अमेरिका लादेनार्थ और मंचित कवि विराट काव्य सम्मेलनार्थ भटकता है वैसे ही राधेलाल विदेश जीव दर्शनार्थ भटकने लगा।

राधेलाल अपने मन की बात किसी को बता नहीं सकता था क्योंकि बताता तो जमाने की रीत का गम्भीरता से पालन करते हुए लोग मदद तो करते नहीं¸ हाँ हंसते अवश्य। राधेलाल हंसी का पात्र नहीं बनना चाहता था क्योंकि आप एक बार हंसी का पात्र बन जाओ तो कोई आपके किसी काम को गम्भीरता से नहीं लेता है।  आप मर भी जाओ तो तो भी लोग हंसकर कहते हैं¸ ' देखो साला कैसे मरने की नौटंकी कर रहा है।' पत्नी¸ साली और गरीबों का लोग मज़ाक तो बनाते है पर उन्हें कभी गम्भीरता से नहीं लेते हैं। पत्नी रात–दिन चक्की की तरह पिसती है पर पीसने का इलज़ाम ढोती है। राधेलाल जानता है कि भारतीय समाज में एक धर्म विशेष के लोगों का तरह– तरह से मज़ाक बनाया जाता है और इस चक्कर में उनके योगदान को कम ही रेखांकित किया जाता है। वे चाहे कितना सिंह की तरह गरजें¸ चाहे कितना सरदारी ताकत रखते हों¸ उनको लाल बुझकड़ की तरह ही पेश किया जाता है। इसलिए राधेलाल चुपचाप अपने मिशन में लग गया।

हम हिन्दुस्तानियों में अपना फटा छुपा दूसरे के फटे में टांग घुसेड़ने की अच्छी आदत है। इससे समाज में आपसी सद्‌भाव बना रहता है। लोग एक दूसरे की चिंता करते हैं और समाज चिंतनशील हो जाता है। इस चिंतनशील चिंता के वशीभूत राधेलाल की इस हरकत से उसके प्रिय जन शंकित हो गए। पत्नी को लगा कि कोई दूसरी आ गई है और दोस्तों को लगा कि राधेलाल किसी बड़े जुगाड़ में हैं।

चिंतनशील चिंता के परिणामस्वरूप राधेलाल को रात में हवाई यात्रा के स्वप्न आने लगे और पत्नी के स्वप्न जाने लगे। राधेलाल रात को बड़बड़ाकर उठ जाता और पत्नी हड़बड़ाकर। दोनों जिज्ञासुओं की तरह एक दूसरे की आंखों में आंखे डाल पूछते कि क्या बात है। दोनों को लगता कि कुछ है जो छुपाया जा रहा है।  दाम्पत्य जीवन में तूफान के लक्षण वैसे ही प्रकट होने लगे जैसे आजकल एंथ्रेक्स पैदा हो रहा है।

राधेलाल की विदेश गमन – इच्छा – अग्नि में उसके विदेश गए मित्रों का विदेश – चित्रण घी का काम करता। मित्र जब भी मुंह खोलते तो उससे यही घी झड़ता – मैं जब फॉरेन में था तो –– यू नो कि¸ व्हॉट हैपंड वन डे . . . . ( अंग्रेजी हँसी) यू नो दैट . . . . दैट¸ आई मीन उसे क्या कहते है . . . . " (विदेश – यात्रा का प्रसंग आते ही अधिकांश हिन्दी विद्वान विद्वत्ता प्रदर्शन के लिए अंग्रेजी बोलते हैं और हाथ तंग होते ही फूहड़ हिन्दी के शब्दों को प्रयोग करते है और तत्काल योजना के अंतर्गत अंग्रेजी का दामन पुन: थाम लेते हैं। मेंढ़क की तरह अंग्रेजी से हिन्दी और हिन्दी से अंग्रेजी पर उनकी इस फुदकन को देखकर विदेश मंत्रालय प्रसन्न होता है और काले अंग्रेज संतुष्ट।)

" बिन फॉरेन सब सून" जानकर राधेलाल ने प्रभु की शरण पकड़ी और नित्य प्रति ये भजन गाना शुरू कर दिया –– 
" प्रभु जी मैं कब फॉरेन जाबो। 
मितर हमारे सब जाई चुके हैं¸ हम कब ये लड्‌डु खाबों।" 

ऐसे ही राधेलालों के लिए एक कहावत बनी है कि ' खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान'। इसलिए राधेलाल पहले पहलवान बना और बाद में . . . गधा। राधेलाल को जैसे ही फॉरेन का मौका मिला उसने फौरन हां कर दी। पर ये लड्‌डू खाकर राधेलाल बहुत पछताया। राधेलाल के लिए विदेश जाने का प्रस्ताव ऐसा था जैसे बिल्ली के भागों छींक फूटा¸ पुलिस वाले को मर्डर केस मिला¸ भ्रष्ट मंत्री को भ्रष्टाचार निरोधक मंत्रालय¸ और अमेरिका को बिन लादेन मिला।

जैसे– जैसे दिल्ली से विदा होने का दिन आ रहा था राधेलाल के दिल में कुछ– कुछ नहीं बहुत कुछ हो रहा था। दिल ससुराल जाती नई दुल्हन सा वैसे ही धड़क रहा था जैसे चुनाव – परिणाम के समय किसी नेता का दिल। राधेलाल पत्नी ने इस दुल्हन के दहेज का सामान जुटाया। दुल्हन को विदा करने एयरपोर्ट तक गई। हवाई जहाज राधेलाल की डोली बना खड़ा था और पत्नी रूदन नायिका बनी आंसू बहा रही थी। प्रभु जाने ये आंसू उदासी के थे या फिर . . . . खुशी के। राधेलाल ने सोचा पत्नी से क्या पूछना¸ उपर तो जा ही रहा हूं ऊपर वाले से ही पूछ लूंगा।

हवाई जहाज में बैठते ही राधेलाल को सारी हवाई दुर्घटनाएं याद आ गई। ऊपरवाला भी बहुत करीब था¸ कभी भी हाथ पकड़कर खींच सकता था। इसलिए राधेलाल ने ऊपरवाले को भी याद नहीं किया। क्या पता याद करते ही बुला ले और पूछे कहो क्या बात है। वो न भी बुलाए तो हो सकता है कोई भेजने की तैयारी में हो।

राधेलाल ने अपना सारा ध्यान हवाई जहाज में साथ बैठी महिला पर केंद्रित कर दिया। उसकी गोद में एक साल का बच्चा था। जब पड़ोसन ने राधेलाल से पंजाबी में पूछा कि तुसी भी इंग्लैंड जा रहे हो। राधेलाल का दिल भंगड़ा करने लगा। खूब गुजरेगी जो उड़ेंगे दीवाने दो। पर ये भंगड़ा शुरू हो इससे पहले बंती ने खर्राटे लेने शुरू कर दिए। बच्चे को उसने राधेलाल की सीट पर आधा सरका दिया। राधेलाल ने विदेश जाने के लिए नया नया गर्म सूट सिलाया था। सारी रात दिल धड़क धड़क कर गाता रहा –– " बच्चा कुछ कर न दे – हो जी हो बच्चा कुछ कर न दे।"

राधेलाल त्रिनीडाड पहुंचा तो उसे लगा ही नहीं कि वह विदेश में है। उसे लगा जैसे हवाई जहाज ने चक्कर लगाकर उसे फिर भारत में¸ मद्रास में उतार दिया है। सभी काले कलूटे। फॉरेन में तो गोरे लोग होते हैं।

त्रिनिडाड में राधेलाल को सबसे पहले महात्मा गांधी सांस्कृतिक संस्थान ले जाया गया। वहां राधेलाल को जिस गांधी के दर्शन हुए वह लंगोटी नहीं सफारी पहने था।  उसके मुख से पान की लाल लाल पीक टपक रही थी। राधेलाल को देखते ही वह गले से लिपट गया। राधेलाल ने फट अपना पर्स चेक किया। विदेश है तो क्या हुआ बंदा है तो भारतीय। सफारी गांधी ने स्वागत में जो शब्द कहे उसकी पीक राधेलाल के कपड़ों पर वैसे ही सुशोभित हो रही थी जैसे नए मंत्री के जीवन में नया भ्रष्टाचार। इस गांधी के साथ तीन बंदर भी थें। जिसने मुंह पर हाथ रखा था वह ठठाकर हंस रहा था। जिसने आंख बंद की थी वह सब देख रहा था और जिसने कान बंद किए थे वह सब सुन रहा था।

राधेलाल भारतीय उच्चायोग में गया। वहां सचमुच ऊंचे लोग बसते थे। अच्छे से अच्छा वहां आकर नीचा हो जाता था। वहां के लोग बहुत ही मिलनसार थे¸ किसी की मिलने की इच्छा न हो फिर भी मिलने के लिए बुला लेते थे। भारतीय सरकारी दफतरी की आत्मा वहां निवास करती थी। वहां ये पुकार अक्सर सुनाई पड़ती थी –– कर दे अल्लाह के नाम पर काम कर दे। जो काम करे उसका भला¸ जो न करे उसका भला।

राधेलाल त्रिनिडाड में हिंदी पढ़ाने आया था। यहां उसे आकर पता चला कि हिंदी वाला राधेलाल गरीब की जोरू हैं और हर हिंदी सीखने वाला उसकी भाभी है।  यहां उसे हिंदी पढ़ानी नहीं तोतो को हिंदी रटानी है। यहां उसे दिल खोलकर हिंदी की सेवा करनी है। यहां वो मुहावरा बेकार है कि सेवा करो तो मेवा मिलता है।  यहां तो सेवा करो तो सेवा ही मिलती है।

राधेलाल पहली बार अंग्रेजी में हिंदी पढ़ाने का सुख उठा रहा था। दोनों तरफ बराबर आग लगी हुई थी। पढ़नेवालों को अच्छी हिंदी नहीं आती थी . . . . राधेलाल को अच्छी अंग्रेजी नहीं आती थी। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि वह हिंदी पढ़ाने आया है या अंग्रेजी पढ़ने¸ हां¸ इतना अवश्य समझ आ रहा था कि जब तक कुछ समझ आएगा . . . . घर का बुद्धू वापस भारत लौट जाएगा।

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