हास्य व्यंग्य | |
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लेखक और नारी |
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इनसे मिले? यह हैं मेरी पत्नी¸ यानी मेरी वाइफ। 'शी इज
वण्डरफुल' यानी ये अनोखी हैं। आप स्पेशलिस्ट हैं¸ विशेषज्ञ। आप
नॉनस्टाप बोलती हैं यानी बिना रूके एक साँस में बोलती रहती
हैं। इनके बोल भैरवी के बोल होते हैं क्योंकि आप साक्षात भैरवी
ही हैं। सुबह उठते ही जो आलाप शुरू हो जाते हैं तो तानों सहित
रात को ही समाप्त होते हैं। इसका मतलब यह नही कि रात तनहाई में
कटती है। नींद में भी आपका खरज छिड़ा रहता है यानी जब आप बोलती
नहीं होती तब आप खर्राटे भरती रहती
हैं। यकीन जानिए¸ इनके बोल मेरे सुर को बेसुरा कर छोड़ते हैं।
कलम हाथ में लेते ही इनका राग शुरू हो जाता है¸ क्योंकि इन्हें
इसका रियाज है¸ पर मैं कभी भी इनका साथ नहीं कर सका हँू। जब
मैं किसी सुन्दर–सी कल्पना को बलपूर्वक घसीटने लगता हँू और वह
वधू–सी झिझकती–झिझकती आने लगती है तभी सास की खाँसी–सी इनकी
आवाज उसे लौटा देती है और मैं सुन्न–सा देखने लगता हँू¸ देखता
रहता हँू। आज की ही बात लीजिए। पिछले एक माह से सोच रहा था 'लेखक ओर नारी' पर कुछ लिखँू। पर जब भी लिखने बैठता हँू श्रीमती जी के सब काम एकदम और एक साथ जरूरी बन जाते हैं और कलम एक ओर धरकर मुझे निष्काम भाव से उन्हें करना पड़ता है। आज भी वही हुआ।. तड़के उठा तो लिखने की तमन्ना लेकर। वे इत्मीनान से खर्राटे भर रही थीं। सोचा 'टोण्ड मिल्क' लाकर रख दँूगा और लिखने बैठ जाऊँगा¸ पर दुर्भाग्य मेरा कि हर ऐसे मौके पर मुझसे जरूर कोई–न–कोई गलती हो जाया करती है। आप ही बतलाइए¸ मुझे क्या पड़ी थी कि ऐसे अनुकूल वातावरण में इस इकतारे को छेड़ देता। पर तुलसीदास जी ने गलत नहीं कहा है 'हुइ है सोई जो राम रचि राखा।' मैं पैसे जो माँग बैठा। वे झल्लाई–सी उठीं तो पैसे तो नहीं मिले पर भैरवी की दुगुन चालू हो गयी। बात यह थी कि उनसे कल के आठ आने मेरी ही ओर निकलते थे। इन आठ आनों को लेकर उन्होंने विगत जीवन का बड़ी ही निर्ममता से मूल्यांकन कर डाला। ऐसे महाभारत या रामायण के समय मैं चुप साध जाया करता हँू। (यहाँ रामायण शब्द का प्रयोग मैं पारायण के अर्थ में कर रहा हँू। मेरा ऐसा करना प्रयोगवाद में फिट न बैठता हो तो प्रयोगवादी लेखक भाई मुझे 'इग्नोर' कर दें) मैं ऐसा इसलिए करता हँू कि श्रीमती जी का शब्द–भण्डार अपार होता है¸ प्रहार अचूक और आक्षेप असीम। उनकी वाक्गति और शब्द–प्रयोगों में बाधक बनने का अर्थ अनर्थ के बहुत निकट हुआ करता है और यह मैं ही नहीं¸ सभी जानते हैं। सो आज भी मैं दब गया। केवल दब ही नहीं गया¸ जहाँ से वे उठी थीं¸ वही मुन्ने के साथ रजााई में जम गया। वे शायद तीन घण्टे तक बोलती रहीं¸ चहकती रहीं¸ भनभनाती रहीं¸ फटफटाती रहीं¸ झल्लाती रहीं और मैं सोचता रहा कि लेखकों की बीवियाँ उनकी साहित्य–सर्जना में प्रेरक होती हैं या बाधक। ये बीवियाँ क्यों लेखकों को निकम्मा समझती हैं? और समझती हैं तो क्यों उन्हीं की रचनाओं सो रसस्निग्ध होती हैं? श्रीमती जी का कहना है कि लेखक का दृष्टिकोण अपनी पत्नी के प्रति एक और नायिका के प्रति दूसरा होता है। यह केवल आक्षेप है या वास्तविकता? इसी बात पर विचार करते–करते न जाने कब श्रीमती जी के बोल मुझे दूर–दूर जाते हुए–से प्रतीत होने लगे और थोड़ी ही देर में मैं महिलाओं की एक अलग दुनिया में जा पहँुचा। वहाँ कई महिलाएँ मुझसे एक साथ मिलने के लिए फड़फड़ा रही थीं। प्र्रेस इण्टरव्यू के कोलाहल से मैं परिचित था¸ पर यह 'नारी इण्टरव्यू' मेरे लिए एकदम नयी चीज थी। पूछने पर पता चला कि इस जमघट में वाल्मीकि की सीता¸ शूद्रक की वसन्तसेना¸ भास की वासवदत्ता¸ कालिदास की शकुन्तला¸ तुलसीदास की जानकी¸ जयदेव की राधा¸ प्रसाद की श्रद्धा¸ गुप्त की यशोधरा¸ जैनेन्द्र की सुनीता और अज्ञेय की रेखा हैं और ये सब मुझसे इण्टरव्यू चाहती हैं। इन सभी महिलाओं का अपना–अपना दृष्टिकोण है जो इनके निर्माताओं की कृतियों में व्यक्त नहीं हुआ। मैं धिधियाया कि मैं हिन्दी का एक छोटा–सा लेखक हँू। हल्की–फुल्की चीजें लिखता हँू जिन्हें आलोचक रचनात्मक साहित्य नहीं मानते¸ अत: इन सिद्धहस्त लेखकों की कृतियों पर मत देने का मैं अधिकारी नहीं हँू¸ आप मुझे क्षमा करें। पर जब उन्होंने मेरी एक न सुनी और मुझे लेखकों का प्रतिनिधि समझकर मेरे साथ खींचातानी शुरू कर दी तो अपनी जान बचाने के लिए मैंने काँपते हुए कहा– "प्रस्तुत हँू¸ पर कृपया दूर से बात करें। मैं वनस्पति घी पर पला हुआ कागजी लेखक हँू। और हाँ¸ आप सब पहले सीनियरटी के हिसाब से क्यू बना लें ताकि एक–एक से शान्तिपूर्वक बात की जा सके।" तभी जमघट से एक साथ सुरीली और मोटी आवाजें उठीं : "क्या कहा?" और मुझे अपनी भूल समझ में आ गयी¸ मैंने कहा : "क्षमा करें देवियों¸ मेरा मतलब क्रम और रेखा से था यानी रेखा–क्रम से¸ पहला पहले और बाद का बाद में। इसको मेरे युग में सिनियरटी अथवा क्यू कहते हैं। इस कल्पना के विदेशी होने के कारण मैं इसका अनुवाद हिन्दी में नहीं कर सका¸ क्षमा करें¸ अब यों समझिए क्रम में सीता देवी सबसे पहले आती हैं। उनके बाद वसन्तसेना¸ वासवदत्ता आदि। इसी क्रम से आप लोग बैठ जायें। हाँ¸ तो सबसे पहले मैं देवी सीता को प्रणाम करता हँू। आपको क्या कहना है देविं?" "वत्स¸ वाल्मीकि ऋषि ने जो मेरा चरित्र–चित्रण किया है¸ वह भारतीय नारी के आदर्श के अनुरूप ही है¸ पर इस आदर्श–पालन के लिए जो मेरे मन में संघर्ष चलता रहा उसका उल्लेख न कर कवि ने चित्र का केवल एक ही पहलू उपस्थित किया है¸ जो न्यायोचित नहीं है।"
"कवि की सीता देवी सीता होकर भी मानवी के रूप में ही प्रस्तुत
हुई हैं अत: उसमें मानव–सुलभ गुणों के अस्तित्व को अस्वीकार
नहीं किया जा सकता। मानव की दुर्बलताओं पर जय पाना दूसरी बात
है। मुझे केवल इतना ही कहना है¸ कल्याण हो।"
"इसलिए वासन्ती जी¸ कि परिस्थिति की पार्श्वभूमि में आपका
चरित्र और भी चमक उठे।"
मैंने नि:श्वास छोड़कर सामने देखा तो वासवदत्ता खड़ी थी। "मैं
रानी वासवदत्ता हँू" मेरी आँखों से आँखें मिलते हुए उसने कहा।
"पति–परायणा¸ पति के सुख को ही मैंने हमेशा अपना सुख माना। पर
राजा का दूसरा विवाह कर लेना क्या उचित था? क्या आप समझते हैं
उससे मेरी आत्मा विद्रोह नहीं कर उठी होगी? पर भास तो पुरूष थे
न! वे मेरी वास्तविक भावनाओं को कैसे समझ सकते थे? पति–परायणता
की दुहाई देकर अपने कर्तव्य से मुक्त हो गये और समझ लिया कि
नारी जाति पर उन्होंने बहुत बड़ा उपकार कर दिया है।"
"यह सब मैं नहीं जानती। कालिदास न सही पर पुरूष लेखक होने के
नाते तुम भी उसी थैली के चट्टे–बट्टे हो। तुमने दुष्यन्त के
हाथों विस्मृति के नाम मेरा अपमान करवाया और उसकी स्मृति लौटते
ही मुझे उसको अर्पण भी कर दिया। मेरा बस चलता तो मैं दुष्यन्त
की ओर फूटी आँख न देखती। पर तुम पुरूष समझते हो¸ नारी केवल
अर्पण हो जाना ही जानती है। धिक्कार हैं तुम्हें और तुम्हारे
साहित्य को।"
उसकी लीलामयी आँखो में आँखें डाले मैं देखता रहा और मुझे लगा
जैसे इन आँखों से मैं परिचित हँू। तनिक अधिक ध्यान से देखा तो
स्वयं मेरी श्रीमती जी आँखें फाड़े हुए मुझे निगल जाने वाले पोज़
में खड़ी थीं। मैं सकपका गया। "तो आप हैं?" मैं झेंप मिटाने के
लिए हकलाया। "जी।" "अभी किससे आँखें मिलायी जा रही थी?" उसने
कड़ककर कहा। "यों ही देख रहा था। अच्छा |