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                        ईश्वर–प्रेम और भवन–प्रेम जुड़वाँ भाई हैं। जब ईश्वर–प्रेम का रंग चढ़ता 
                      है¸ तो प्रेमी इष्ट देवता के लिए कोठी–बँगले बनवाले लगता है 
                      और जब भवन–प्रेम की लहरें उठती हैं¸ तो प्रेमी अपने भवनों 
                      में दुनिया बनाने वाले के लिए कोई कोना सुरक्षित कर देता है। 
                      ठीक भी है¸ जब दुनिया आदमियों ने हथिया ली है¸ तो आसमान वाले 
                      को रहने के लिए जगह और कौन देगा। 
 भक्त बनते ही आदमी को यह ज्ञान भी होने लगता है कि ईश्वर को 
                      ठहराने के लिए किसी मामूली जगह से काम नहीं चलेगा दिल जैसी 
                      नाजुक पोटली तो यों भी बेकार होती है¸ क्योंकि कौन जाने वह 
                      कब धोखा दे जाये। अगर सारे खज़ानों के मालिक की सोने¸ चाँदी¸ 
                      चंदन और संगमरमर जैसे बिल्डिंग 
                      मैटीरियल से बनी भव्य कोठी में सीट रिज़र्व न कराई गई¸ जहाँ 
                      वह हमेशा से रिज़र्व रही है¸ तो वह नाराज़ हो जायेगा। 
                      ईश्वर–प्रेम 
                      और भवन–प्रेम जुड़वाँ भाई हैं। जब ईश्वर–प्रेम का रंग चढ़ता 
                      है¸ तो प्रेमी इष्ट देवता के लिए कोठी–बँगले बनवाले लगता है 
                      और जब भवन–प्रेम की लहरें उठती हैं¸ तो प्रेमी अपने भवनों 
                      में दुनिया बनाने वाले के लिए कोई कोना सुरक्षित कर देता है। 
                      ठीक भी है¸ जब दुनिया आदमियों ने हथिया ली है¸ तो आसमान वाले 
                      को रहने के लिए जगह और कौन देगा।
 
 भक्त बनते ही आदमी को यह ज्ञान भी होने लगता है कि ईश्वर को 
                      ठहराने के लिए किसी मामूली जगह से काम नहीं चलेगा दिल जैसी 
                      नाजुक पोटली तो यों भी बेकार होती है¸ क्योंकि कौन जाने वह 
                      कब धोखा दे जाये। अगर सारे खज़ानों के मालिक की सोने¸ चाँदी¸ 
                      चंदन और संगमरमर
 जैसे बिल्डिंग मैटीरियल से बनी भव्य कोठी में सीट रिज़र्व न 
                      कराई गई¸ जहाँ वह हमेशा से रिज़र्व रही है¸ तो वह नाराज़ हो 
                      जायेगा।
 
                        
                      श्वर–प्रेम 
                      और भवन–प्रेम जुड़वाँ भाई हैं। जब ईश्वर–प्रेम का रंग चढ़ता 
                      है¸ तो प्रेमी इष्ट देवता के लिए कोठी–बँगले बनवाले लगता है 
                      और जब भवन–प्रेम की लहरें उठती हैं¸ तो प्रेमी अपने भवनों 
                      में दुनिया बनाने वाले के लिए कोई कोना सुरक्षित कर देता है। 
                      ठीक भी है¸ जब दुनिया आदमियों ने हथिया ली है¸ तो आसमान वाले 
                      को रहने के लिए जगह और कौन देगा। 
 भक्त बनते ही आदमी को यह ज्ञान भी होने लगता है कि ईश्वर को 
                      ठहराने के लिए किसी मामूली जगह से काम नहीं चलेगा दिल जैसी 
                      नाजुक पोटली तो यों भी बेकार होती है¸ क्योंकि कौन जाने वह 
                      कब धोखा दे जाये। अगर सारे खज़ानों के मालिक की सोने¸ चाँदी¸ 
                      चंदन और संगमरमर
 जैसे बिल्डिंग मैटीरियल से बनी भव्य कोठी में सीट रिज़र्व न 
                      कराई गई¸ जहाँ वह हमेशा से रिज़र्व रही है¸ तो वह नाराज़ हो 
                      जायेगा।
 
                      
                      लक्ष्मी हो¸ तो लक्ष्मी प्रसन्न होती है। और आप यह भी जानते 
                      ही हैं कि बहुमूल्य या बहुत ऊँचे किस्म के प्लाटों पर ही 
                      अट्टालिकाएँ बन सकती हैं¸ इसलिए भक्त भक्ति का शिलान्यास 
                      करने के लिए ऐसे प्लाटों की तलाश करने लगता है। अक्सर उसे ये 
                      प्लाट बड़ी आसानी से मिल जाते हैं¸ क्योंकि उसे ' जिन खोजा 
                      तिन पाइयाँ' वाली उक्ति पर विश्वास होता है और वैसे भी भारत 
                      जैसे धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र की यह विशेषता है कि धर्म के 
                      कामों को कोई अँगूठा नहीं दिखाता।  
                      
                      अगर कुछ जिद्दी किस्म के सांसारिकों की मूर्खता के कारण भक्त 
                      को प्लाट न मिले¸ तो भी वह निराश नहीं होता और बस्तियों में 
                      किसी बाग–बगीचे आदि के लिए निर्धारित भूमि पर या किसी खाली 
                      पड़े प्लाट पर धार्मिक कार्य का झंडा लगाकर पूरी आस्था और 
                      श्रद्धा का प्रदर्शन करता है और फिर अपनी भक्ति के 
                      लाउडस्पीकर से सारी बस्ती को गँुजायमान करने लगता है। 
                      सत्ताधारी भक्त होने की यह बड़ी पुनीत कुंजी है। इससे राजनीति 
                      के दरवाज़े तो खुलते ही हैं¸ माया के कपाट भी खुल जाते हैं। 
                      तब भक्त जो भी करना चाहे¸ कर सकता है¸ क्योंकि उसकी कोठी में 
                      कृतज्ञ ईश्वर विराजते हें।
 ईश्वरीय कोठी–बँगलों के लिए जमीन ढँूढ़ने का एक और भी पवित्र 
                      तरीका होता है। यह है अन्य भक्तों के ईश्वर के बँगले को 
                      गिराकर अपने ईश्वर के लिए नये ढंग का और उसके योग्य बँगला 
                      बनवाना। इसमें थोड़े खतरे जरूर हैं¸ क्योंकि बहुत–से लोगों के 
                      मरने या मार दिये जाने की संभावना होती है¸ उपद्रव भी फैलता 
                      है और सरकार को पुलिस या सेना भेजकर गोली चलवानी पड़ती है; 
                      लेकिन सच्ची भक्ति इन मामूली खतरों की परवाह नहीं करती। 
                      ज्ञानी¸ महात्मा और सिद्ध पुरूष कहत हैं कि जो ईश्वर के 
                      सच्चे भक्त होते हैं¸ वे मिथ्या जगत् और नश्वर शरीर में 
                      बंदी मनुष्यों की मृत्यु पर शोक नहीं करते।
 
 ईश्वर–प्रेम की मुख्य विशेषता यह है कि भक्त का अपना खास अलग 
                      इष्ट देवता होना चाहिए¸ जिससे वह अपने खास नियमों के अनुसार 
                      बिल्कुल निजी ढंग से प्रेम कर सके। जो उसे यह मार्ग दिखाता 
                      है या इसकी शिक्षा देता है¸ वह सच्चा गुरू कहलाता है। पुराने 
                      ज़माने में लोग पहाड़ों और जंगलों की खाक छानते हुए जीवन गँवा 
                      दिया करते थे¸ लेकिन उन्हें सच्चा गुरू नहीं मिलता था और अगर 
                      कभी मिल जाता था¸ तो वह भावी चेले को निर्ममता से ऐसे ही 
                      ठुकरा देता था¸ जैसे स्वामी रामानन्द ने कबीर को ठुकरा दिया 
                      था।
 
                      
                      उन बीते युगों के विपरीत आजकल सच्चे गुरू बहुतायत से मिलने 
                      लगे हैं और वे भी हमारे आपके बीच। वे जंगलों में जाकर 
                      झोंपड़ियों में उपेक्षित पड़े रहने की गलती भी नहीं करते¸ ताकि 
                      श्रद्धालुजनों को उन तक पहँुचने की तकलीफ न उठानी पड़े और न 
                      ही उनकी नकल परख्वामख्वाह संसार छोड़ना पड़े। वैसे भी वे जिस लक्ष्मीपति 
                      ईश्वर का रास्ता दिखाने का पुण्यकार्य करते हैं¸ जब वह स्वयं 
                      ही सुनहरे गुम्बदों वाले महलों में रहता है¸ तो वे उसकी 
                      महिमा में बट्टा क्यों लगाएँ।
 
                      
                      अगर वे साइकिल या बैलगाड़ी की सवारी करेंगे¸ तो वे चाहे कितने 
                      ही बड़े ब्रह्मज्ञानी हों¸ चेलों के ऊपर इम्प्रेशन नहीं जमा 
                      सकेंगे। इसलिए वे रोल्ज़ रॉइस कारों के काफिलों और जेट 
                      विमानों में चलते हैं¸ जिन्हें देखकर आपको सहज ही उनके ऊँचे 
                      कनेक्शनों का यकीन हो जाता है। गुरूओं के सुलभ हो जाने से यह 
                      आशा की जा सकती है कि अब मानव जाति का बेड़ा अवश्य पार हो 
                      जायेगा और उसे आधुनिकता के सारे कष्टों से मुक्ति मिल जायेगी। 
                      जो लोग और खास तौर से जो नास्तिक इस बात की शिकायत करते हैं 
                      कि हमारा देश उन्नति नहीं कर रहा है¸ उसमें अशिक्षा और जहालत 
                      है तथा लाखों–करोड़ों व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे कुलबुला 
                      रहे हैं उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि ईश्वर का आलीशान 
                      बँगला बनाने से ही सारे संकट दूर होंगे। अब देखिए न¸ इस समय 
                      तो पता नहीं ईश्वर ऊपर कहाँ कोन–से आकाश में रहता है। जब वह 
                      नीचे हमारे बीच रहने लगेगा और हमें दु:ख में भजन–कीर्तन करते 
                      देखेगा¸ तो खुद–बखुद हमारा खयाल रखेगा।
 मेरे एक सम्पन्न रिश्तेदार बड़े ईश्वरानुरागी हैं। मेरे 
                      कष्टों को देखकर एक बार वे सहानुभूति के पसीने से बहुत पसीजे 
                      और मुझे जबरदस्ती अपनी कार में बिठाकर अपने गुरू के पास ले 
                      गये। तेजस्वी गुरू जी ने बढ़िया रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। 
                      उनके गले में रूद्राक्ष की अनोखी माला थी¸ जिसमें हीरे जगमगा 
                      रहे थे। उनके हाथों की हर उँगली में हीरों की अँगूठियाँ थीं। 
                      मेरे रिश्तेदार ने जब गुरू जी को दण्डवत् प्रणाम किया¸ तो 
                      मुझे भी उनकी देखादेखी उनके चरणों में शीश नवाना पड़ा।
 
                      
                      मैंने देख लिया था कि मेरे सस्ते कपड़ों और खस्ता हालत ने 
                      गुरू जी की आँखों पर उपेक्षा की पलकें गिरवा दी थीं¸ लेकिन 
                      मेरे रिश्तेदार से मेरा परिचय जानने पर उन्होंने मेरी हथेली 
                      पर एक चुटकी भभूत रख दी और आशीर्वाद दिया कि जा¸ तेरे सब 
                      कष्ट दूर हो जाएँगे। मैंने भभूत तो ले ली¸ लेकिन मेरी शंका 
                      दूर नहीं हुई। लौटते हुए जब मैंने अपने रिश्तेदार से पूछा कि 
                      क्या राख की बजाय गुरू जी मुझे अपना कोई छोटा–मोटा हीरा नहीं 
                      दे सकते थे¸ ताकि मेरा तत्काल और सच्चा कल्याण हो जाता¸ तो 
                      मेरे रिश्तेदार बहुत नाराज़ हुए। कहने लगे¸ अगर आपमें सन्तों–महात्माओं 
                      के प्रति ऐसी अश्रद्धा न होती¸ तो आपको अव्वल तो कष्ट होते 
                      ही न। अगर किसी वजह से होते भी¸ तो समाप्त हो जाते। पर मैं 
                      क्या करूँ¸ मेरे साथ यही मुसीबत है। जब कोई मेरे कष्टों को 
                      दूर करने लगता है¸ तो मुझे या तो राख में हीरा दिखाई नहीं 
                      देता¸ या हीरे में राख दिखाई देने लगती है। आपको मेरी 
                      मूर्खता से शिक्षा लेनी चाहिए। 
 ईश्वर से प्रेम करने वालों की अनेक श्रेणियाँ और वर्ग होते 
                      हैं तथा उनमें से किसी को भी हल्का या हीन समझना भारी भूल है 
                      कि ईश्वर¸ अल्ला और गॉड में सिवाय उसके नामों के और कोई 
                      अन्तर नहीं होता। यह अन्तर अनादि और अनन्त है¸ तभी तो संसार 
                      में कभी एक धर्म नहीं फैल सका और न ही ईश्वर के स्वरूप के 
                      बारे में सारे धार्मिक एकमत हो सके हैं।
 
 जहाँ तक मैं जानता और मानता हँू¸ ईश्वर ऐसे लोगों को कभी 
                      क्षमा नहीं करता¸ जो सारी दुनिया इनसानियत वगैरा का एक ही 
                      धर्म फैलाना चाहते हैं। जिस शायर ने यह कहा था कि
 
 मिल्लतें रस्तों के हैं सब हेर–फेर
 सब जहाज़ों के हैं लंगर एक घाट
 वह जरूर कोई सिरफिरा रहा होगा।
 
 ईश्वर–प्रेम के कई रूप और कई अवस्थाएँ होती हैं। जब यह इस 
                      कारण पैदा होता है कि मनुष्य से गबन¸ चोरी¸ धोखाधड़ी¸ खोटे 
                      धंधे¸ काले को सफेद बनाना और रिश्वतखोरी आदि इनसानी कमज़ोरी 
                      वाले कर्म हो जाते हैं या होनेवाले होते हैं और उसे 
                      स्वाभाविक रूप से डर लगता है¸ तो वह ईश्वर की दयालुता और 
                      क्षमाशीलता का पूरी श्रद्धा से स्मरण करता है। वह ईश्वर को 
                      अपने कर्मों का हिस्सेदार बनाता है और उसके बंगले में भारी 
                      चढ़ावा लेकर जाता है। तदुपरांत प्रसाद ग्रहण करके वह यह मान 
                      लेता है कि सब ठीक हो जायेगा। यह ईश्वर–प्रेम की सामान्य और 
                      आरम्भिक अवस्था होती है¸ जो दर्शाती है कि इस प्रेमी की 
                      सिफारिश मंजूर हो गई है और उसके कुकर्मों पर कोई ध्यान नहीं 
                      दिया जायेगा।
 
                      
                      मध्यम अवस्था में ईश्वर के प्रेमी को उपर्युक्त कर्म करते 
                      हुए डर नहीं लगता और वह इन्हें स्वाभाविक मानने लगता है। वह 
                      ईश्वर के ज्यादा नज़दीक हो जाता है और उसपर अपना हक जताने 
                      लगता है। तब वह या तो ईश्वर के लिए कोई कुटिया–कोठी बनवा 
                      देता है या पुण्य कार्य के लिए चंदा देने लगता है। जल्दी ही 
                      वह भगत जी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है और सत्ता के 
                      सुनहरी सत्तू खाने का हकदार हो जाता है। अब वह पानशालाएँ 
                      खुलवाये या पाकशालाएँ और गोशालाएँ खुलवाकर गउओं को सड़कों पर 
                      आवारागर्दी करने दे या घूरों में मँुह मारने दे¸ हर तरह 
                      निर्लिप्त और निष्कलंक रहता है।  
                      ईश्वर–प्रेम की तीसरी और चरम अवस्था वह होती है¸ जब प्रेम और 
                      दीवानगी में कोई अन्तर नहीं रहता। पूरी खुमारी चढ़ जाती है और 
                      नाश एवं निर्माण समान प्रतीत होने लगते हैं। तब उसकी मर्जी 
                      होती है कि वह कोई सिद्ध महात्मा और गुरू आदि बने या धर्म का 
                      हथियारबंद योद्धा और भक्ति करे या तांडव नृत्य। इस अवस्था 
                      में ईश्वर–प्रेमी खुद को भगवान¸ देवदूत¸ मुक्तिदाता या ऐसा 
                      ही कुछ और तक कहने–कहलवाने लगता है¸ और संस्थाएँ–समाधियाँ और 
                      गद्दियाँ स्थापित करता है तथा माया के ऐसे पर्दे उघाड़ता है 
                      कि सब चकित होकर चँुधियाई आँखों से उसके इर्द–गिर्द रासलीला 
                      करने लगते हैं।
 जिस देश में धर्म–निरपेक्षतावाद होता है¸ वहाँ तीनों 
                      अवस्थाओं के ईश्वर–प्रेमियों का बढ़–चढ़कर विकास होने लगता है। 
                      वहाँ धर्मों के झंडे लहरा उठते हैं और उनके डंडों से कलियुग 
                      को मार–मारकर भगाया जाने लगता है।
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