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हास्य व्यंग्य

बुढ़ापे को प्रेम सच्चो होत है
—सुधारानी श्रीवास्तव

अवस्थी लाला हे भौजी की राम राम¸

अपरच समाचार जे है कि तुमाये भइया सठियान लगे हैं। कछूं कहो तो कछू करत हैं। मोड़ियें सबई ब्याह गईं¸ घर में बस हम दोनोइ रह गये। सो लड़त रहत हैं। हम आम कहत हैं तो बे इमली कहत हैं।

बुढ़ापे में तो जे घर–घर होतइ हैं। अकेले बुढ़ापे को प्रेम सच्चो होत है¸ और काय न होय¸ अंग सिथिल भये सो दुनिया वारों को साथ छूटो। काका हाथरसी भी कहत हैं बुढ़ापे को प्रेम निस्काम होत है।

तुम केहो होली पे बुढ़ापे की बात कह दी। अरे! नई! लाला! तुमाये भैया बूढ़े भये हैं अबे भौजी को तो सत्रहवों साल लगो¸ ई नईयां और पिछले पैंतालीस बरस से हम तुम देवरों के कारन सोला साल पे ऐसे अटके हैं कि आगे बढ़ई नई रहे हैं। कौनउ ने कई है : 

तुम प्यार को जिंदगी की निशानी समझो¸
जो बहता है उसे तुम पानी समझो¸
और जब दिल बुढ़ापे में रंगीन रहे¸
ऐसे बुढ़ापे को तो तुम जवानी समझो।

अरे! जिंदगी तो हंसबे–खेलबे की है¸ जबरन को थुथरा चढ़ाबे की तो हैं नई। कई मनइयन को हमनें देखी है ऐसे थुथरा चढ़ाये रहत हैं कि भरी जमानी में बूढ़े दिखत हैं। एक पते की बात बतायें लाला जो थुथरा चढ़ात हैं¸ बे सांचउ जल्दी बूढ़े हो जात हैं।

कचहरी में आधे से ज्यादा वकील भौजी कहत हैं। हम भी कम नईं यां। हम तो ठहरे पुराने कांगरेसी जब कौनउ भाजपाई देवर हमसे 'जय श्री राम' कहत हैं तो तुरतइ हम अपनो 'पंजा' उठा के ओहे आसीरवाद दे देत हैं। पर लाला। जित्ते गांधारी के पुत्र हते उसे कई गुना हमरे देवर हैं। ई हे¸ जनसंख्या भी बढ़ गई। लाख–करोड़ तो ऊ जमाने में हतेइ नई ते। करोड़ से एक बात आद आ गई। जे चुनाव में जो तरह तरह के गाना चले तो एक जो भी हतो : –

चोली के पीछे क्या है छोड़
अटैची में क्या है हर्षद एक करोड़

अब मनइ केवल नईं¸ पैसा भी खूब बढ़ो है। कोई के बाप को का जात है छापे जाओ नोट और बढ़ात जाओ महंगाई। जनता हे महंगाई की मार से चित्त करबे के लाने तो वित्त मंत्री जी तोड़ तोड़कर लगे रहत हें।

देखो तो कहां बहक गये। जा राजनीति कछु ऐसी चिपकी है कि बस ई के सिवा जीवन–ज्ञान सब निररथक है। हम कह रये ते कि इत्ते अनगिनती देवरों के बीच में होली पे बस तुमइ जी में बसे रहत हो। तुमें भी जबलपुर नई भूलो हे दिसम्बर 93 की 'कादम्बिनी' में समस्या पूर्ति में तुमने मदनमहल की पहाड़ी की संतुलन सिला की फोटो दई है। बचपन की कोमल भावना की लकीरें गहरी होत हैं। सुभद्रा मौसी ने भी कई है :–

मैं बचपन को बुला रही थी¸
बोल उठी बिटिया मोरी।
नंदन वन–सी कूक उठी
नन्हीं–सी कुटिया मोरी।

लाला! बिटिया की बात आई तो के रये हैं कि जैसे जैसे हम आगे बढ़ रये हैं लुगाइन की हालत और खराब हो रई है। बुरो न मानियो लाला! जे लुगवा औरई जंगली होत जा रये हैं। पढ़ी–लिखी नौकरीवारी लड़किया चाहत हैं¸ उनकी पूरी कमाई पे डाकुअन जैसो हक समझत हैं¸ जबकि कानूनन स्त्री धन पे उनको कोई अधिकार नईं है। फिर उनकी लुगाई साथ वारों से बात कर ले तो उनको मूड़ फिर जात है। पहरत तो पैंट है¸ टेबुल पे खात हैं¸ मोटरगाड़ियों में घूमत हैं पर लुगाइयों के लाने अठारवी सताब्दी के सामंत है। अरे! जब औरत बाहर निकरहे तो चार जनों से बोलहे–बताबे बिना काम कैसे चलहे। आदमी काय दूसरी लुगाइयों से सैन चलात है। एक बात बताओ लाला। हमाई समझ में आज तक जो नईं आओ कि लुगवन को पराई लुगाई काय अच्छी लगत है दूसरों पे डोरे डारत फिरत हैं। अपने 'ईसुरी' कवि ने भी कई है :–

एक बेर कौनियां के दीवान की रानी ने ईसुरी हे बुला भेजो। परेम से भोजन कराओ। रानी हे अनयनी देख ईसुरी ने कारन पूछो तो रानी ने बताओ कि दीवान को मन दूसरी ठकुरान पे आ गओ है। ऐइसे रानी ने कछु जुगत करबे के लाने ईसुरी हे बुलाओ तो। ईसुरी ने दीवान हे फाग सुनाई :–

भौंरा जात पराये बागे
तनक लाज नहिं लागे
घर की कली कौन कम फूली
काय न लेत परागे
कैसे जात लगाउत हुरहें
औरन अंग तो अंगे
जूठी जाठी पातर 'ईसुर'
आवे कूकर कागे

अब कहां धरे ऐसी सुनबे सनाबे और मानबे बारे। टी बी ने तो सत्यानास कर दओ है। बारा–तेरा बरस के भये नईं कि उन्हें सब पता हो जात है। एक हम ओरे हते। तुमाई बात ले लो। तुम फड़फड़ाये जात ते औ बहू कहीं हमाये पास सो जात ती तो कबउं खटिया के नीचे। तब कहां हते जे सोफा–डबल बेड¸ जब जब सो जात ते तब घरवारो दबे पांव अपनी गोरी धना की कुठरिया में जात तो। फिर होत ते साठा सो पाठा¸ अब तो पैंतीस–चालीस के होत होत निपुर कर चुसी गड़ेरी हो जात है। लाला हमें कैसे मालूम भई सो हम बतात हैं कि हमाये पास तलाक के केस वारीं लुगाइयें आती हैं तो सब बताती हैं।

चलो भोत कह सुन लई अब जियत रये तो अगले साल फिर मिलहें। 
का कहैं आज के दिन तुमें¸ मान लो

– तुमाई भौजी
कुमारी सुधारानी श्रीवास्तव¸ अधिवक्ता
जबलपुर


शब्दार्थ — अपरच–आगे (इसके बाद)¸ मोड़ियें – बेटियां¸ थुथरा–मुंह¸ मनइयन–लोग¸ होतइ–होता ही

(कादंबिनी से साभार)

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