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                        उन्होंने 
                        मुझे सुबह सुबह चौंका दिया। सुबह सुबह चौंकाने का काम या 
                        तो पत्नी करती है या फिर टेलीफोन करता है। टेलीफोन और मेरी 
                        पत्नी में अर्थ – साम्य है। आप सुबह टाई बांधकर चलने को 
                        तैयार है¸ फोन सूचना देता है कि आपके किसी नजदीकी की 
                        मृत्यु हो गई है और आपको टाई नहीं बांधनी है अपितु सफेद 
                        कुर्ता पायजामा पहनना है। आप दोस्तों के साथ बियर पार्टी 
                        का कार्यक्रम बनाए हुए¸ मन में कई तरह के लड्डु फोड़ रहे 
                        हैं और पत्नी आप जैसे भुलक्कड़ सिंह को याद दिलाती है कि आज 
                        उसका जन्मदिन है और आपको जल्दी घर पहुंचना है। आप चौंकते 
                        हैं¸ मन के फोड़े हुए लड्डू पुन: जोड़ने लगते हैं। दिल्ली 
                        जैसे महानगर में आपकी आधी से अधिक दूरियां फोन तय करता है। 
                        शादी–ब्याह¸ मरने–जीने¸ आने–जाने¸ न जाने या न आने आदि की 
                        सूचनाओं के लिए ई फुनवा बड़े काम की चीज है। डाक विभाग की 
                        अति कार्यकुशलता से आतंकित राजधानी वासी इसी की शरण में 
                        जाते हैं। राजधानी में अनेक प्रकार के आतंकवादी जीवों से 
                        छुटकारा दिलाने का एकमात्र उपाय 'फुनवा जी! 'नरो वा कुंजरो' 
                        का युधिष्ठरीय रक्षा – कवच¸ फुनवा जी! और राजनैयकों¸ 
                        नौकरशाहों एवं व्यवसायिओं की कुलवधुओं का दोपहर में समय 
                        काटने का एकमात्र यंत्र¸ फुनवा जी!
 वैसे भी चौंकना मानव की नियति है¸ कभी वह दूसरों के कारण 
                        चौंकता है और कभी दूसरे उसके कारण चौंकते हैं। आदमी चौंकता 
                        तभी है जब उसे अपेक्षा से बहुत अधिक मिलता है या कम मिलता 
                        है¸ जैसे –– पुलिस वाले से ईमानदारी का सुवचन सुनकर¸ 
                        भ्रष्ट नेता से नैतिकता का भाषण सुनकर¸ वकील के मुंह से 
                        सत्य वचन सुनकर¸ सुविधासम्पन्न तथा सुविधाभोगी मुरारियों – 
                        बापूओं से संघर्षशील माया मोह के त्याग का प्रवचन सुनकर। (चौंकने 
                        और भौंकने में केवल तुक साम्य है भाव साम्य नहीं। मैथिली 
                        शरण गुप्त होते तो भाव साम्य भी पैदा कर लेते।)
 
 पर उस दिन मैं चौंका। उन्होंने फोन पर मुझे शुभ सूचना दी 
                        कि एक व्यंग्य – गोष्ठी की मुझे अध्यक्षता करनी है। मेरे 
                        लिए यह समाचार ऐसे ही था जैसे हिजड़ों के यहां लड़का पैदा 
                        हुआ हो¸ भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में 
                        भ्रष्टाचारविहीन नेता का जन्म हुआ हो¸ थानेदार ने सच्ची एफ•आई•आर• 
                        बिना सेवा – शुल्क के लिख दी हो अथवा किसी योग्य साहित्य – 
                        सेवी को पुरस्कृत किया गया हो। एशिया की आर्थिक स्थिति 
                        जैसा हाथ का फोन कांपने लगा¸ जुबान लड़खडाने लगी। न चाहते 
                        हुए भी अपने कानों पर विश्वास किया¸ जैसे चुनाव के दौरान 
                        करना पड़ता है। फोन रखते ही लगा मेरी सूखी साहित्यिक बगिया 
                        में आषाढ़ का पहला दिवस आ ही पहुंचा है।
 
                        
                        आषाढ़ के पहले दिन को देखकर मोर नाचता है और पहली–पहली उपरी 
                        कमाई को पाकर पतिव्रता बल्लियों उछलती है। आषाढ़ के पहले 
                        दिवस की फुहार में भीगती सुंदरी को देखकर कवि मन डोलता है¸ 
                        मेंढ़क टर्राते हैं तथा पहले अध्यक्षीय सुख प्राप्त नायक को 
                        देख समकालीन भर्राते है टर्राते हैं। कितना सुन्दर लगता है 
                        अध्यक्ष की कुरसी पर बिराजा पहलोठा अध्यक्ष –– धीरता और 
                        गम्भीरता को नवेली दुल्हन–सा ओढ़े¸ गले में पुष्पहार के 
                        कारण उपजे रोमांच के साथ बलात्कार करता¸ कैमरे को देखकर 
                        मुस्काने के स्थान पर और गम्भीर होता तथा सामने विराजमान 
                        पानी के गिलास को सोमरस–सा पीता। कौन क्या बोल रहा है¸ ऐसी 
                        तुच्छ बातों पर ध्यान न देता हुआ केवल इस बात पर केंद्रित 
                        रहता है कि मेरी अध्यक्षीय गोष्ठी में कौन आया और कौन 
                        नहीं।
 जैसे एक प्रेमी अपनी पहली मूर्खता प्यार को नहीं भूलता है¸ 
                        वैसे ही एक सच्चा साहित्यकार पहली बार अध्यक्ष सुख को नहीं 
                        भूलता है। यह वह सुख है जो बहुत तपस्या के बाद मिलता है। 
                        जीवन भर दूसरों के गलों में माला डालने वाले हाथ जब अपने 
                        गले में माला पहनने का सुख देखते हैं तो कानून की तरह 
                        लम्बे हो जाते हैं। इस तरह का सुख¸ जिसे पाने को देवता भी 
                        तरसते हैं¸ जब मुझे मिलने की सम्भावना दिखी तो बिल्ली के 
                        भागों छीका फूंटने का अर्थ समझ आ गया। इसे कुछ
 व्याकरणाचार्य¸ हर कुत्ते के दिन बदलते हैं कहकर भी 
                        व्याखायित करते हैं तथा इन अनमोल वचनों पर विश्वास कर¸ 
                        अध्यक्ष–सुख को तरसते समकालीन अपने दिनों के दिवास्वप्न 
                        देखने लगते हैं।
 
 पहली बार कुछ होता है तो सच्चा साधक सच्चे गुरू की तलाश 
                        में जाता है। दिल्ली में शिक्षा देने वाले गुरूओं की कमी 
                        नहीं है। हर क्षेत्र की शिक्षा देने की दूकान और हर शिक्षा 
                        केंद्र का अध्यक्ष आपको दिल्ली में एक ढूंढ़ो हजार मिलते 
                        हैं कि शैली में पाए जाते हैं। आपको देश–सेवा के उच्च 
                        विचार ग्रहण कर राजनीतिक – व्यवसाय की शिक्षा चाहिए¸ उसके 
                        लिए स्वयं को पवित्र गंगा और दूसरी को मैली बताने वाली हर 
                        पार्टी का छुटभैया से लेकर पार्टी का अध्यक्ष तक मिल जाता 
                        है।
 आपको भ्रष्टाचार सीखना है¸ आपकी के लिए राजधानी के पुलिस 
                        थाने¸ न्यायालय¸ सरकारी दफतर सभी सेवा में हाजिर हैं। और 
                        क्यों न हो शिक्षा का इतना प्रचार प्रसार जो है। चार चार 
                        विश्वविद्यालय जो है इस कुकर्म के लिए। मैं इसे कुकर्म 
                        इसलिए कह रहा हूं क्योंकि शिक्षा के नाम पर जो इन केंद्रों 
                        में हो रहा है उसे सुकर्म कहने का साहस मुझमें नहीं है¸ 
                        जैसे सच बोलने का साहस लोगों में नहीं हैं।
 
 तो मैं भी सच्चे गरू की तलाश में निकल गया जो मुझे सच्चा 
                        अध्यक्ष कैसा हो इसकी शिक्षा निस्वार्थ भाव से दे सके। 
                        मुझे एक गुरू मिल ही गए जो आजकल केवल अध्यक्षता और 
                        अध्यक्षता के अतिरिक्त कुछ नहीं करते हैं। अध्यक्षता उनका 
                        मुख्य व्यवसाय है और बाकि तो साईड–बिजनेस हैं।
 
 मैंने सर्वप्रथम मंगलाचरण किया ––
 
 जय अध्यक्ष¸ जय अध्यक्ष जय अध्यक्षा देवा।
 माता जाकि गोष्ठी पिता सम्मेलनवा।। जय0
 निज पंथ को दयावंत¸ ओ रेवडीधारी।•
 गले में हार सोहे¸ एम्बेसेडर की असवारी।।जय0
 चमचन को प्रशंसा दी विरोधी को उखाड़ा।
 अपने आदमी की घटिया कित्बवा को जमाया।।जय0
 हार चढ़ें¸ दारू चढ़ें¸ और चढ़े मुर्गा।
 पानन का भोग लागे¸ याचक करें सेवा।।जय0
 • विशेष : अनेक धार्मिक ग्रथों में यहां पाठ भेद हैं। 
                        रेवड़ी को पसन्द करने वाले अंधे¸ रेवड़ीधारी शब्द का प्रयोग 
                        करते हैं तथा रेवड़ – सम्प्रदाय में आस्था रखने वाले 
                        रेवड़ीधारी शब्द का प्रयोग करते हैं।
 
 भगवान कृष्ण की माखन–लीला का स्मरण करते हुए मैंने कहा – 
                        हे अध्यक्ष प्रवर¸ हे गोष्ठी–दाता¸ हे अपने चमचों के दीन 
                        बंधु¸ कृपया मुझ मुढ़ को समझाएं कि अध्यक्ष को कैसा होना 
                        चाहिए?"
 
 मुझे अपना आदमी मान तथा नए शिष्य की प्राप्ति जान उन्होंने 
                        मेरी ओर मुस्कान भरी दृष्टि से देखा। मुझे लगा जैसे मेरे 
                        लिए कोई पुरस्कार तय हो गया हो। उनकी मुस्कान में अनेक 
                        लुभावने लालच नृत्य कर रहे थे। प्रभु बोले¸ "अध्यक्ष को 
                        सदा निराकार होना चाहिए।"
 – यानि निष्पक्ष और हर प्रकार के आकार से रहित¸ जैसे कोई 
                        संत होता है।"
 – नहीं हर प्रकार की निज – कार से रहित¸ जैसे आई•ए•एस• 
                        होता है।"
 – अध्यक्ष शिरोमणी¸ कार और साहित्य का क्या संबंध है?"
 
 – साहित्य में जब कार लगता है तभी सच्चा साधक साहित्यकार 
                        बनता है और एक सच्चा साहित्यकार ही अध्यक्ष बनता है। 
                        अध्यक्ष यदि साकार होगा तो¸ उसके पास अपनी कार होगी¸ ऐसे 
                        में आयोजक उसे अपनी कार पर आने का जोर देंगे। यह समझ कर 
                        चलो कि आयोजक कंगला ही होता है। चाहे वह कवि सम्मेलन का 
                        आयोजक हो या साहित्यिक गोष्ठी का¸ कार्यक्रम समाप्त हो 
                        जाने के बाद किसी को न पहचानना¸ बगले झांकना और स्वयं को 
                        कंगला घोषित करना उसकी नियति है। वह कार के पैट्रोल के लिए 
                        यदि पांच सौ देने का वायदा करेगा तो एक बंद लिफाफे में हें 
                        . . . हें . . . . करता सौ ही पकड़ाएगा। ऐसे अध्यक्षता में 
                        आपका मन नहीं लगेगा और धुकधुकी रहेगी। निराकार अध्यक्ष इस 
                        प्रकार की चिंता से मुक्त होता है। इसलिए अध्यक्षता का 
                        पहला सुख प्राप्त होते ही कार बेचकर निराकार हो जाना ही 
                        श्रेष्ठ कर्म है।
 
 – हे अध्यक्षों के चाणक्य! अब ये कहें कि अध्यक्ष कितनी 
                        तरह के होते हैं।"
 
 – हे अध्यक्षों के भ्रूण¸ अध्यक्ष दो तरह के होते हैं –– 
                        स्थायी और अस्थायी। अस्थायी अध्यक्ष किसी संस्था के सचिव¸ 
                        किसी खरीद समिति के सदस्य¸ या किसी संस्थान के अध्यक्ष हो 
                        सकते हैं। जब तक वे इन पदों पर होते हैं या अगले पदों पर 
                        इनके होने की संभावना होती है इनके अध्यक्ष होने की 
                        संभावनाएं भी उतनी ही प्रबल होती हैं। स्थायी किस्म के 
                        महानुभावों को अध्यक्षता का रोग होता है¸ यह जब भी होते 
                        हैं अध्यक्ष ही होते हैं। जैसे कुछ लोगों को बिना बीड़ी–सिगरेट 
                        के
 पखाना नहीं उतरता है वैसे ही महानुभावों को नीचे से 
                        साहित्य नहीं उतरता है¸ अध्यक्ष बनकर यह बहुमूल्य वचन 
                        बोलते हैं। इनके गले में दो चार दिन माला न पड़े तो गर्दन 
                        दर्द करने लगती है¸ अवसाद घेर लेता है और जीवन व्यर्थ 
                        व्यर्थ लगने लगता है।
 
 –– हे अध्यक्ष व्यवसायी¸ अब मुझ मूढ़ के लिये अध्यक्ष बनने 
                        के लाभों का वर्णन करें।"
 
 –– हे नवेली दुल्हन¸ अन्तिम सत्य चाहे कितना बड़ा असत्य हो¸ 
                        अध्यक्ष ही कहता है। कार्ड में उसका नाम प्रमुखता के साथ 
                        छपता है। लोगों को ज्ञान हो जाता है कि यह शख्स केवल 
                        अध्यक्ष है और अध्यक्ष के इलावा कुछ नहीं है। जैसे राजनीति 
                        में भेड़ चाल होती है वैसे ही साहित्य में होती है। एक 
                        गोष्ठी में यदि आप अच्छी लफफाजी करते हैं¸ तथा अपना 
                        अध्यक्षी मूल्य सूचांक बढ़ने में सफल होते हैं तो आगामी 
                        अनेक गोष्ठीयों का ठेका प्राप्त करने के आप ही हकदार होते 
                        हैं।
 एक बार सिक्का जम जाने के बाद जीव शाश्वत अध्यक्ष होकर 
                        विचरण करता है। किसी में साहस नहीं होता कि वह बिना 
                        अध्यक्ष का पद दिए आपको निमंत्रित करें। यदि कोई जीव¸ अन्य 
                        किसी के मोह में ग्रस्त¸ अन्य दाता को निमंत्रित कर 
                        तुम्हें वक्ता के रूप में बुलाये तो एकदम व्यस्त हो जाना 
                        ही श्रेयस्कर है। उसको इस बात का अहसास दिला दो कि बिना 
                        अध्यक्ष बने तुम उसके कार्यक्रम की शोभा नहीं बढ़ा सकते हो। 
                        जिस मूढ़ को यह बात समझ न आए उसके समक्ष मुंहफट
 हो जाना श्रेष्ठ कर्म है।
 
 तुम इतना जान लो कि अध्यक्ष के वचनों को विरोधी काट नहीं 
                        सकते¸ अखबार जला नहीं सकते तथा पत्रिकाएं गला नहीं सकती 
                        हैं। जैसे शरीर में आत्मा सत्य है वैसे ही गोष्ठी में 
                        अध्यक्ष के वचन सत्य होते हैं। क्योंकि इस सत्य को काटने 
                        का किसी को अवसर नहीं दिया जाता है। जैसे हम नित्य–प्रति 
                        वस्त्र बदलते हैं¸ आत्मा शरीर बदलती है वैसे ही अध्यक्ष के 
                        विचारों की आत्मा होती है जो विभिन्न गोष्ठियों अपना शरीर 
                        धारण करती है। वह एक होता है परन्तु अनेक भासित होता है¸ 
                        जाकि रही भावना जैसी के आधार पर साहित्यिक जीव उसे ग्रहण 
                        करते हैं। वही विवाद को जन्म देता है¸ उसका पालन करता है 
                        तथा उसका अन्त भी वही करता है।" यह कहकर उन्होंने अध्यक्ष 
                        के विराट रूप को प्रदर्शित किया। अनेक गोष्ठियां¸ 
                        साहित्यिक समितियां¸ अकादमियों के सचिव¸ अफसर साहित्यकार¸ 
                        पुरस्कार¸ संयोजक¸ बल्क परचेज आदि उसमें से निकल कर उसी 
                        में समा रहे थे।
 
 ऐसे विराट रूप को मैं प्रणाम ही कर सकता था। मैंने 
                        बलात्कारी प्रणाम किया और अपने घर लौट आया।
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