दो चार दोस्तों के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब स्वर्ग में दूध
की नहर के किनारे शराबे तहूर (स्वर्ग में पी जाने वाली मदिरा) की चुस्कियाँ ले रहे
थे कि एक ताज़ा–ताज़ा मरा बंबइया फ़िल्मी शायर उनके रू-ब-रू आया, झुक कर सलाम वालेकुम
किया और दोजानू हो कर अदब से बैठ गया। मिर्ज़ा ने पूछा, 'आपकी तारीफ़?' बंबइया शायर
बोला, 'हुज़ूर मैं एक हिंदुस्तानी फ़िल्मी शायर हूँ। उस दिन मैं बंबई के धोबी तालाब
से आ रहा था कि एक शराबी प्रोडयूसर ने मुझे अपनी मारुति से कुचल डाला।'
ग़ालिब बोले, 'मुबारिक हो मियाँ जो बहिश्त नसीब हुआ
वर्ना आधे से ज़्यादा फ़िल्म वाले तो जहन्नुम रसीद हो जाते हैं। ख़ैर, मुझे कैसे
याद फ़रमाया।'
बंबइया शायर बोला, 'हुज़ूर, आप तो आजकल वाकई ग़ालिब हो रहे हैं। क़रीब तीस साल पहले
आप पर फ़िल्म बनी थी जो खूब चली और आजकल आप 'सीरियलाइज़्ड' हो रहे हैं।' मिर्ज़ा
ग़ालिब समझे नहीं। पास बैठे दिल्ली के एक फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर के मुंशी ने उन्हें
टीवी के सीरियल की जानकारी दी।
मिर्ज़ा गहरी साँस छोड़ कर बोले, 'चलो कम से कम मरने
के बाद तो मेरी किस्मत जागी, मियाँ। वर्ना जब तक हम दिल्ली में रहे कर्ज़ से लदे
रहे, खुशहाली को तरसे और कभी इसकी लल्लो–चप्पो की तो कभी उसकी ठोड़ी पर हाथ लगाया।'
'अरे हुज़ूर, अब तो जिधर देखो आप ही आप महक रहे है,' बंबइया शायर बोला। फिर फ़िल्मी
शायर ने अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, 'अगर हुज़ूर किसी तरह खुदा से
कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बंबई जा पहुँचें तो बस यह समझ लीजे कि सोने से लद कर वापस
आएँ। मेरी तो बड़ी तमन्ना है कि आप दो चार फ़िल्मों में 'लिरिक' तो लिख ही डालें।'
आस पास बैठे चापलूसों ने भी उसकी बात बड़ी की ओर न जाने कौन-सा फ़ितूर मिर्ज़ा के सर
पर चढ़ा कि वे तैयार हो गए।
दूसरे दिन बाकायदा अल्ला मियाँ के यहाँ मिर्ज़ा और
उनके तरफ़दार जा पहुँचे और कह–सुन कर उन्होंने अल्ला मियाँ को पटा लिया। जिसका नतीजा
यह हुआ कि मिर्ज़ा ग़ालिब को तीस दिन की 'अंडर लीव' मय टीए डीए के दे दी गई और वे
'बहिश्त एअरलाइन' में बैठ कर बंबई के हवाई अड्डे पर जा उतरे।
°°°
बंबइया शायर ने उन्हें सारे अते–पते, और ठिकानों का जायज़ा दे ही रखा था, लिहाज़ा
मिर्ज़ा ग़ालिब टैक्सी पकड़कर 'हिंदुस्तान स्टूडियोज़' आ पहुँचे। अंदर जाकर उन्होंने
भीमजी भाई डायरेक्टर को उस स्वर्गवासी बंबइये शायर का ख़त दिया। भीम जी भाई उन्हें
देखते ही अपने चमचे कांति भाई से बोल, क्या नसीरूद्दीन शाह का कांट्रैक्ट कैंसिल हो
गया, कांतिभाई। ये नया बागड़ू मिर्ज़ाग़ालिब के मेकअप में कैसे?
कांतिभाई ने अपने चश्मे से झाँक कर देखा और बोले,
'वैसे मेकअप आप अच्छा किया है पट्ठे का। रहमान भाई ने किया लगता है। पर ये इधर
कैसे आ गया? मिर्जा ग़ालिब का शूटिंग तो गुलज़ार भाई कर रहा है।'
तभी मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, 'सहिबान, मैं एक्टिंग करने नहीं आया हूँ। मैं ही असली
मिर्ज़ा गालिब हूँ, मैं तो फ़िल्म में शायरी करने आया हूँ जिसे शायद आप लोग 'लिरिक'
कहते हैं।'
भीम जी भाई बोले, 'अच्छा, तो तुम लिरिक लिखते है।'
मिर्ज़ा बोले, 'जी हाँ।'
भीम जी भाई न फ़ौरन ही अपने असिस्टेंट मानिक जी को
बुलाया और हिदायत दी, 'अरे सुनो मानिक जी भाई। इसे ज़रा परखो। 'लिरिक' लिखता है।'
मानिक जी भाई ने ग़ालिब को घूर कर देखा और कहा, 'आओ मेरे साथ।'
मानिक जी ग़ालिब को बड़े हाल में ले गए जहाँ आधा दर्जन पिछलग्गुए तुकबंद बैठे थे।
मानिक जी बोले, 'पहले सिचुएशन समझ लो।'
मिर्ज़ा बोले, 'इसके क्या मानी, जनाब।'
मानिक जी बोले, 'पहले हालात समझ लो और फिर उसी मुताबिक लिखना है। हाँ तो, हीरोइन
हीरो से रूठी हुई बरगद के पेड़ के नीचे मुँह फुलाए बैठी है। उधर से हीरो आता है सीने
पर हाथ रख कर कहता है कि तूने अपने नज़रिये की तलवार से मेरे दिल में घाव कर दिया
है। अब इस सिचुएशन को ध्यान में रखते हुए लिख डालो एक गीत।'
मिर्ज़ा ग़ालिब ने काग़ज़ पर लिखना शुरू किया और पाँच मिनट बाद बोले, सुनिए हज़रत, नहीं
ज़रियते राहत ज़राहते पैकां
यह ज़ख्मे तेग है जिसको कि दिलकुशा कहिए
नहीं निगार को उल्फ़त, न हो, निगार तो है
रवानिए रविशो मस्तिए अदा कहिए
मिर्ज़ा की इस लिरिक को सुनते ही मानिक जी भाई का
ख़ास चमचा पीरूभाई दारूवाला बोला, 'बौस, ये तो पश्तो में गीत लिखता है। मेरे पल्ले
में तो कुछ पड़ा नहीं, तुम्हारे भेजे में क्या घुसा काय?'
मानिक जी बौखला कर बोले, 'ना जाने कहाँ से चले आते हैं फ़िल्मों में। देखो मियाँ इस
तरह ऊल-जलूल लिरिक लिख कर हमें क्या एक करोड़ की फ़िल्म पिटवानी है।'
पर हुज़ूर, मिर्ज़ा बोले, 'मैं आपको अच्छे पाए की शायरी सुना रहा हूँ।'
ये पाए की शायरी है या चौपाये की, मानिक जी लाल
पीले होकर बोले, 'तुमसे पहले भी एक पायेदार शायर आया था–क्या नाम था उसका – हाँ,
याद आया,जोश। वह भी तुम्हारे माफ़िक लंतरानी बकता था और जब उसकी अकल ठिकाने आई तब
ठीक-ठीक लिखने लगा था।'
पीरूजी दारूवाला बोला, 'उसका वह गाना कितना हिट गया था बौस– हाय, हाय। क्या लिखा था
ज़ालिम ने, मेरे जुबना का देखो उभार ओ पापी।'
ग़ालिब बोले, 'क्या आप जोश मलीहाबादी के बारे में कह रहे है? वो तो अच्छा ख़ासा कलाम
पढ़ता था। वह भला ऐसा लिखेगा।'
'अरे हाँ, हाँ। उसी जोश का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ,' मानिक जी भाई बोला, 'बंबई की हवा
लगते ही वह रोगनजोश बन गया था।'
तभी पीरूभाई बोले, 'देखो भाई, हमारा टाइम ख़राब मत करो। हमें कायदे के गीत चाहिए।
ठहरो तुम्हें कुछ नमूने सुनाता हूँ।'
पीरूभाई दारूवाला ने पास खड़े म्यूज़िक डायरेक्टर बहरामजी महरबानजी को इशारा किया।
तभी आर्केस्ट्रा शुरू हो गया। पहले तो आर्केस्ट्रा ने किसी ताज़ा अमरीकन फ़िल्म से
चुराई हुई विलायती धुन को तोड़ मरोड़ कर ऐसा बजाया कि वह 'एंगलोइंडियन' धुन बन गई।
उसके बाद हीरो उठा और कूल्हे मटका–मटका कर डांस करने लगा। हीरोइन भी बनावटी ग़ुस्से
में उससे छिटक–छिटक कर दूर भागती हुई नखरे दिखाने लगी। तभी माइक पर खड़े
सिंगर ने गाना शूरू कर दिया – तेरे डैडी ने दिया मुझे परमिट तुझे
फँसाने का
इश्क का नया अंदाज़ देखकर ग़ालिब बोले, 'अस्तग़फरूल्ला, क्या आजकल हिंदुस्तान में
वालिद अपने बरखुरदार को इस तरह लड़कियाँ फँसाने की राय देते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ वो दिन गए जब ख़लील खाँ फाख़्ते उड़ाते थे। हिंदुस्तान में
तरक्की हम लोगों की बदौलत हुई है। हमारी ही बदौलत आज बाप बेटे शाम को एक साथ बैठ कर
विस्की की चुस्की लेते हैं। होटलों में साथ-साथ लड़कियों के संग डिस्को करते है।'
मानिक जी भाई बोले, 'इसे ज़रा चलत की चीज़ सुनाओ, पीरूभाई।'
पीरूभाई ने फिर म्यूज़िक डायरेक्टर को इशारा किया और आर्केस्ट्रा भनभना उठा। ले जाएगे ले जाएगे, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे'
ग़ालिब गड़बड़ा गए। 'क्या आजकल शादी के मौके पर ऐसे गीत गाए जाते हैं?'
पीरूभाई बोले, 'मियाँ, गीत तो छोड़ो, बारात में दूल्हे का बाप और जो कोई भी घर का
बड़ा बूढ़ा ज़िंदा हो, वह तक सड़क पर वह डांस दिखाता है कि अच्छे-अच्छे कत्थक कान पर
हाथ लगा लें। अरे मर्दों की छोड़ो दूल्हे की दो मनी अम्मा भी सड़क पर ऐसे नाचती है
जैसे रीछ। देखो नमूना।'
और मिर्ज़ा को आधुनिक भारतीय विवाह उत्सव का दृश्य दिखलाया गया, जिसमें दूल्हे के
अब्बा–अम्मी दादा–दादी बिला वजह और बेताले होकर कूल्हे मटका-मटकाकर उलटी सीधी
धमाचौकड़ी करने लगे।
मिर्ज़ा बोले, 'ऐसा नाच तो हमने सन सत्तावन के गदर
से पहले बल्लीमारान के धोबियों की बारात में देखा था।'
पीरूभाई दारूवाला खिसियाकर बोले, 'ऐसी की तैसी में गए बल्लीमारान के धोबी मियाँ।
आजकल तो घर-घर में यह डिस्को फलफूल रहा है। तभी मुस्कराते हुए मानिक भाई ने कहा,
'अरे, ज़रा पुरानी चाल की चीज़ भी सुनाओ।'
अबकी बार हीरोइन ने लहंगा फरिया पहन कर विशुद्ध उत्तर परदेशिया लोकनृत्य शैली की
झलक दिखलाई और वैसे ही हाव–भाव करने लगी। तभी माइक पर किरनबेन गाने लगीं, झुमका
गिरा रे बरेली के बाज़ार में गीत ख़त्म होते ही मानिक भाई बोले, इसे कहते हैं लिरिक
और म्यूज़िक का ब्लेंडिंग। इसके मुकाबले में लिखो तो जानें। बेमानी बक–बक में क्या
रखा है।'
यह सुनकर ग़ालिब का चेहरा लाल हो गया। सहसा वे बांगो–पांगो और उसके बगल में बैठे ढोल
वाले से ज़ोर से बोले—
तू ढोल बजा भई ढोल बजा।
यह महफ़िल नामाक़ूलों की।
लाहौल विला, लाहौल विला।
उनकी इस लिरिक की चाल को बांगो वाले ने फौरन ही
बाँध लिया और उधर आर्केस्ट्रा भी गनगना उठा। मानिक जी भाई और पीरू भाई की बाँछें खिल
गईं और वे सब मग्न होकर बक़ौल ग़ालिब 'धोबिया–नृत्य' करने लगे। और जब उनकी संगीत
तंद्रा टूटी तो मानिक भाई बोले, वाह, वाह क्या बात पैदा की है ग़ालिब भाई।
पर तब तक ग़ालिब कुकुरमुत्ता हो और स्टूडियो से रफूचक्कर हो कर बहिश्त एअर लाइन की
रिटर्न फ्लाइट का टिकट लेकर अपनी सीट पर बैठे बुदबुदा रहे थे —
न सत्ताईस की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही।
(कादंबिनी से साभार)
|