अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्यसेन को नोबेल पुरस्कार मिला, मुन्नालाल
का डेढ़ फुटा सीना छत्तीस इंच फूल गया। क़मीज़ के बटन एक–एक कर सीने से झड़े और ज़मीन
पर आ गिरे। मुन्नालाल को लगा जैसे लाल फ़ीते में जकड़ा गोल–मटोल–सा सोने का एक तमगा
डॉ. सेन के साथ–साथ उसके सीने पर भी जड़ दिया गया है।
डॉ. अमर्त्यसेन भारत आएँगे। हमारे प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री
के साथ देश की खस्ता हाल आर्थिक स्थिति पर विचार-मशवरा करेंगे। डॉ. साहिब अपने
बहुमूल्य सुझाव भी देंगे। उनके सुझावों पर सरकार कदमताल कर देश के कदम आर्थिक
समृद्धि की ओर खीचेंगी।
मुन्नालाल के मुंगेरी सपनों पर एक ही झटके में तुषारापात हो गया।
मुन्नालाल क्या मुन्नालाल –जैसे किसी भी बुद्धिजीवी को डॉ. साहिब से ऐसी उम्मीद नहीं
थी कि वह ऐसे घटिया दर्जे के सुझाव देंगे – देश की आर्थिक स्थिति सुधारनी है, तो
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाओ, साक्षरता के प्रतिशत में इज़ाफ़ा करो।
सुझाव सुनते ही नारियल–सी मुन्नालाल की खोपड़ी सन्न हो गई।
गुब्बारे की तरह फूला उसका सीना एक ही झटके में पंचर हो गया। ग़ुस्से के मारे आँखों
में अलाव–सा जलने लगा। शायद अलाव पर पानी डालने की नीयत से उसने एक गिलास पानी गटका
और फिर किसी बेरोज़गार बुद्धिजीवी के लहजे में बड़बड़ाया– 'अरे यह क्या! ऐसी उम्मीद
तो नहीं थी, डॉ. साहिब से। यह तो लोकतंत्र के हमारे छकड़े पर कुठाराघात है। भूल से
भी कहीं उनके सुझाव पर अमल कर बैठे, तो देश की बधिया ही बैठ जाएगी। नहीं–नहीं!
ज़रूर यह विदेशी ताकतों की कोई चाल है। वे नहीं चाहते, हमारे देश का लोकतांत्रिक
छकड़ा सही सलामत रेंगता रहे। डॉ. सेन को ऐसे ही लोगों ने सिखा–पढ़ाकर भेजा होगा।'
मुन्नालाल ने जब डॉ. साहिब के सुझाव सुने, राष्ट्रवादी संगठनों
की तरह उसे भी डॉ. साहिब की राष्ट्र–निष्ठा पर शक होने लगा, मगर कर क्या सकता था,
मुन्नालाल। बस मात खाए नेता की तरह भाषण झाड़ने के अलावा।
जहाँ भी मौका मिलता, मुन्नालाल सहज भाव से अपनी बात रखता–'अरे
भइया! भ्रष्टाचार तो लक्ष्मी का वाहन है, लक्ष्मी का। इसी के सहारे तो पंख विहीन
देश का लोकतंत्र आसमान में उड़ रहा है। भ्रष्टाचार समाप्त करने का सुझाव देकर भइया,
इस बेचारे को क्यों धराशायी करने पर तुले हो?'
मुन्नालाल से कोई पूछता– 'क्यों भइया भ्रष्टाचार से लोकतंत्र का
क्या संबंध?'
मुन्नालाल एक-एक कर कई सवाल जड़ देता। 'क्यों भइया! भ्रष्टाचार समाप्त हो गया तो
चुनाव के लिए दौलत कहाँ से आएगी? पल्ले कौड़ी नहीं होगी, तो फिर चुनाव कैसे लड़ा
जाएगा? जब चुनाव कराने के लिए ही लाले पड़ जाएँगे, तो लोकतंत्र कैसे जीवित रह
पाएगा?'
सवालों की बौछार करने के बाद मुन्नालाल सरकारी पारदर्शिता नीति
का अनुसरण करते हुए समझाता है –'भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने से देश की आर्थिक स्थिति
ज़रूर बिगड़ जाएगी। अब आप ही बताओ, फटेहाल नेता देश–जनता के बारे में क्या ख़ाक सोच
पाएगा? जनता तो ग़रीबी सह लेगी मगर उसके नेता फटेहाल रहें, वह सहन नहीं कर पाएगी।
क्यों कि नेताओं की खुशहाली में ही उसका भविष्य सुनिश्चित है।'
मुन्नालाल ने दम लिया और फिर बुदबुदाया– 'नेताओं को भी जाने दो
भाड़ में। मगर डॉ. साहिब की बात मान ली, तो ज़रा सोचो इन बेचारे अफ़सरों का क्या
होगा? भइया, देश की बधिया तो अफ़सर ही हाँक रहे हैं। गाड़ीवान के ही पेट में चूहे
कीर्तन कर रहे होंगे, तो बधिया हाँकने की ज़हमत क्या डॉ. साहिब उठाएँगे? ज़रा सोचे
भइया गाड़ीवान ही भूखा हो और बधिया भी बैठ जाए, तब लोकतंत्र का छकड़ा किसके सहारे
रेंगेगा?'
बात लोगों के गले उतरी। उन्होंने हाँ में हाँ मिलाई। मुन्नालाल ने
सीने में हवा भरी।
सीने में जमा हवा को मुँह के ज़रिए रिलीज़ करते मुन्नालाल ने फिर बोलना शुरू किया–
'भ्रष्टाचार तो हाथी है, हाथी भइया। उसी के पैर में सब का पैर है। उसी के पैर में
इस देश का समूचा अर्थतंत्र समाया हुआ है। यह तो वह हाथी है जिसपर बैठ कर ही इस देश
का नेता तीर्थ यात्रा के लिए निकलता है और उसकी वापसी भी इसी की पीठ पर होती है।
इसलिए डॉ. सेन के सुझावों पर अमल कर देश के कर्णधारों को पैदल मत करो। लोकतंत्र को
जीवित रखना है, तो भ्रष्टाचार के इस हाथी को निरंकुश ही रहने दो।'
मुन्नालाल की दृष्टि में डॉ. सेन का दूसरा सुझाव भी पचाने के
क़ाबिल नहीं है। मुन्नालाल जानता है–'सरस्वती और लक्ष्मी में जन्म–जन्म का बैर है।
जहाँ सरस्वती होगी, लक्ष्मी वहाँ नदारद ही रहेगी। देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के
लिए सरस्वती नहीं लक्ष्मी की ज़रूरत है। इसलिए सभी को साक्षर करने का सुझाव पूरी
तरह राष्ट्र विरोधी है।'
लक्ष्मी को पाना है, तो उसके वाहन को दूध पिलाना ही पड़ेगा।
भ्रष्टाचार समाप्त नहीं, उसे पालना ही होगा।' मुन्नालाल ठीक ही कहता है–' इस देश
में पढ़–लिखकर यदि सब ही ठाकुर बन गए, तो छान कौन उठाएगा। निरक्षर यह तबक़ा ही तो
लोकतंत्र की छान अपनी बाहों पर उठाए हुए है।' अरे देश के बुद्धिजीवियों, ओ देश के
अर्थशास्त्रियों, लोकतंत्र जीवित रहना ही चाहिए। इसलिए डॉ. सेन के नहीं, मुन्नालाल
के सुझावों पर ग़ौर फ़रमाना चाहिए।
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