हालाँकि भगीरथ प्रसाद जी भी निदेशक ही थे, लेकिन थोड़ा फ़र्क यह
था कि वे जहाँ एक निदेशालय के निदेशक थे, वहीं रेवती रमण जी उनके मंत्रालय में
निदेशक थे। इस थोड़े से फ़र्क से ही सब फ़र्क पड़ गया था, क्यों कि निदेशालय, मंत्रालय
के निर्देशन के अनुसार ही देश को निर्देश देता है। अत: गणित उसका यों बैठा कि दोनों
निदेशक होने को बावजूद रेवती रमण जी भगीरथ प्रसाद जी के निदेशक बन बैठे थे। हालाँकि
भगीरथ जी बाहर वालों के सामने 'निदेशक' नाम का सहारा लेकर दोनों की लँगोट को समान
रूप से शक्तिशाली ठहराते थे, लेकिन यह सच्चाई उनको एवं उनके कुछ क़रीबी अधीनस्थों
को अच्छी तरह मालूम थी कि रेवती रमण जी के समक्ष भगीरथ जी की लँगोट हमेशा समर्पण की
मुद्रा में साष्टांग बिछी रहती थी।
भगीरथ जी हिंदी साहित्य के जाने–माने एवं प्रतिबद्ध समीक्षक थे।
संयोगवश इसी एकमात्र योग्यता के कारण वे राष्ट्रीय साहित्य शोध संस्थान के निदेशक
पद पर बैठा दिए गए थे। ऊपर से अनमने, किंतु अंदर से अति उत्साहित होकर वे इस गद्दी
पर आ विराजे थे, और देखते–ही–देखते उनके आस–पास साहित्य की खोज करने वाले
युवा–युवतियों एवं अधेड़–अधेड़ियों की जमात आ जुटी थी। उन्होंने भी इस स्थिति को
पूर्व जन्म के पुण्य कर्म का सुफल मान कर चार वर्ष के 'टेन्योर' की इस गंगा में
भरपूर डुबकी लगाने का मन बना लिया था। लेकिन भगीरथ जी बार–बार तट तक जाकर अपने आसन
तक लौट आते। फिर भी उन्हें एक बार डुबकी लगानी ही पड़ी और यह घटना उनके पदग्रहण की
अर्द्धवार्षिकी के अवसर के आस–पास घटी।
घटना कुछ यों घटी कि किसी साहित्य सेवी ने निदेशक रेवती रमण जी
का एक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया –– 'आँसुओं के अंगारे'। इस संग्रह के प्रकाशित
होते ही मंत्रालय में धमाका तथा साहित्य जगत में आश्चर्य व्याप्त हो गया। रेवती
रमण जी ने चूँकि अपने कैरियर की शुरुआत शिक्षा मंत्रालय के असिस्टेंट के रूप में की
थी, इसलिए समस्त साहित्य जगत उनके नाम से तो परिचित था। लेकिन वे कविताएँ भी लिख
सकते हैं, इसका अनुमान तो किसी ने सपने में भी नहीं लगाया था, क्यों कि उनके बारे
में यह बात मशहूर थी कि फ़ाइलों पर वे अपने नोट अपने बाबुओं से लिखवाया करते थे।
भगवान ने उनको आवाज़ तो अच्छी बख्शी थी। चेहरा भी रोबदाब वाला दिया था। लेकिन
बुद्धि वितरण के मामले में कमाल की कृपणता दिखाई थी। दिमाग़ भले ही छोटा दिया हो,
लेकिन दिल ऐसा दरिया दिया था कि उसमें न जाने कितनों का प्रेम ऊभ–चूभ करता रहता था।
अब यदि ऐसा अफ़सर 'आँसुओं के अंगारे' शीर्षक से काव्य की किताब लिखे, तो आश्चर्य तो
होना ही था। सो हुआ। लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य तो साहित्य जगत को तब हुआ, जब उसे
इस काव्य संकलन की समीक्षा पढ़ने को मिली, और वह भी भगीरथ प्रसाद जी की लिखी हुई।
हुआ इस प्रकार कि इस काव्य संकलन के पैदा होते ही रेवती रमण जी
को बधाई देने वालों का ताँता लग गया। कर्टसीवश भगीरथ जी को भी जाना पड़ा। भगीरथ जी
रेवती रमण जी के एक हाथ को अपने दोनों हाथों में थामते हुए पूरी गरमजोशी मे बोल
गए –– 'साहब आप तो बड़े छिपे रूस्तम निकले। चलिए, देर से ही सही, आपकी रचनात्मक
प्रतिभा का अंतत: सामाजिक विस्फोट हो ही गया। अन्यथा साहित्य जगत इस गंध से सुवासित
होने से वंचित रह जाता।'
रेवतीरमण जी की समझ में यह सब कुछ नहीं आया लेकिन उनकी
व्यावहारिक बुद्धि इस वाक्य के भाव को ताड़ गई थी। उसी समय एक अपर सचिव घनश्यामदास
'सरस' जो यदाकदा ग़ज़लें कर लिया करते थे, ने इस अवसर का उचित लाभ उठाने की दृष्टि
से कहा –– 'सर, क्या पंक्तियाँ कही हैं भगीरथ जी ने। सर भगीरथ जी इस संग्रह पर
समीक्षा लिख दें। समीक्षा को छपवाने का ज़िम्मा मेरा रहा।'
इस प्रकार भगीरथ जी के हाथों में 'आँसुओं के अंगारे' शीर्षक
पुस्तक समीक्षार्थ सादर थमा दी गई। उनको न हाँ करते बना, न ना करते। काव्य संकलन
लेकर भरे हुए मन से निदेशालय चले आए, और वहाँ से घर चले गए – सपुस्तक। रात में
पुस्तक पढ़ी। पढ़कर मतिभ्रम के शिकार हो गए और निश्चय कर लिया कि वे इस कचरे की
समीक्षा नहीं लिखेंगे। लेकिन जब अगले सप्ताह के प्रथम दिन ही फ़ोन पर रेवतीरमण जी
ने समीक्षा की प्रगति की रिपोर्ट जाननी चाही, तो वे समझ गए कि बिना लिखे निजात नहीं
हैं। अंत में उन्होंने काव्य संकलन को दरकिनार करके जो समीक्षा लिखी, उसे मैं यहाँ
ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूँ।
'रेवतीरमण जी के काव्य संकलन 'आँसुओं के अंगारे' को पढ़ना तपती
हुई धूप में गीली रेत पर गुज़रना है। कवि की निजी अनुभूतियाँ आँसुओं की अनुभूतियाँ
हैं, जो समाज की अनुभूतियों में तबदील होने के दौरान अंगारों का रूप और रूख
अख़्तियार कर लेती है। यही तब्दीली कवि की विशिष्टता है जो उसे वर्तमान कवियों के
बीच विशेष पहचान देती है।
संकलन से गुज़रते हुए यह लगता है कि कवि के पास व्यापक एवं सधन
अनुभूतियों का समृद्ध ख़ज़ाना है। लेकिन ये सधन अनुभूतियाँ महज़ थोथी भावुकता के
स्तर पर अभिव्यक्त नहीं हुई है। बल्कि अनुभूतियों ने स्वयं को विचारों के तवे पर
तपाकर रूप ग्रहण किया है। इन विचारों में जहाँ वैदिक दर्शन का 'वसुधैव भाव' तथा
उपनिषद के बुद्धिवाद का प्रभाव है, वहीं हीगेल के द्वंद्ववाद तथा कुछ अंशों में
नीत्से एवं सात्र जैसे विचारकों के अस्तित्ववाद की भी झलक है। लेकिन ध्यान रखने की
बात है कि इस अस्तित्ववाद में पलायनवाद नहीं है। बल्कि यों कहना उचित होगा कि यह
अस्तित्ववाद कवि के अपने अस्तित्व का वाद है, जो उसके अस्तित्व के न होने का
प्रतिवाद करता है। इसलिए उसमें पलायनवाद का भाव नहीं, बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता के
'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की उत्तेजना है। उदाहरण के तौर पर 'मैं छोडूँगा नहीं' कविता
की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
मैं नहीं चाहता जीना।
मैं छोड़ना चाहता हूँ पीना।।
लेकिन हे कृष्ण,
मैं तुम्हारी तरह कभी भी
रण नहीं छोडूँगा,
और अभी, और अभी
जोडूँगा, जोडूँगा।।
कवि की काव्य चेतना का निर्माण भारतीय साहित्य परंपरा की युगीन
चेतना से हुआ लगता है। इस संदर्भ में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उनमें कवि
कालिदास से लेकर शिक्षा मंत्रालय में उभर रहे कवि घनश्याम 'सरस' अपर सचिव तक की
परंपरा मौजूद है। यह परंपरा कहीं इन महान कवियों की महान पंक्तियों के रूप में
ज्यों की त्यों मौजूद हैं, तो कहीं छद्म वेश धारण किए हुए है। परंपरा की मौजूदगी
के ये दोनों ही रूप कवि की महानता को प्रमाणित करते हैं। पहली मौजूदगी जहाँ कवि के
अध्ययन की व्यापकता को व्यक्त करती है, वहाँ दूसरी मौजूदगी कवि के हस्त कौशल को।
संकलन 'आँसुओं के अंगारे' में 'आँसू' रोमानीपन के दर्द तथा
'अंगारे' उस दर्द से उपजे क्रोध का प्रतीक है। रोमांस और क्रोध का यह संयोग विश्व
साहित्य में अनोखा है। इस रोमांस और क्रोध को 'लव एंड वार' की परंपरा में रखकर
देखने की नासमझी और नादानी नहीं की जानी चाहिए। कवि के इस दर्द और क्रोध में नष्ट
करने का आवेग है, लेकिन स्वयं को बचाकर। इस स्वयं को बचाने में ही नए विश्व के
निर्माण के बीज निहित हैं, जो एक ऐसे विश्व को जन्म देगा,
जिसमें किसी को भी 'आँसुओं के अंगारे' जैसी कविताएँ लिखने को ज़हमत नहीं करनी
पड़ेगी। इसलिए कवि अपनी 'कुरूक्षेत्र' कविता में कहता है –
मेरी आँसुओं का दरिया,
मेरे क्रोध का दावानल,
नष्ट कर देगा संपूर्ण ब्रह्मांड को,
किंतु बचा रहूँगा मैं,
क्यों कि जनना है मुझे एक नए विश्व को,
मनु की तरह।
स्वयं को मनु की भूमिका में देखना अधेड़ कवि रेवती रमण जी की
रचनात्मक आकांक्षा का चरम बिंदु है। इसलिए कवि आह्वान करता है –
दे दो मुझे सब कुछ,
सब कुछ मेरा है,
सिर्फ़ मेरा ही है।
तेरा है थोड़ा कुछ,
शेष सब मेरा है,
मेरा है, मेरा है,
तेरा नहीं, मेरा है।
इस कविता में कवि ने 'कुछ' और 'मेरा' शब्द का जिस प्रकार अभिधा, लक्षणा से लेकर
व्यंजना तक के प्रयोग किए हैं, वे स्तुत्य हैं। एक ही शब्द के बार–बार प्रयोग से
अनुप्रास की जो छटा निःसृत हो रही है, वह कवि को अलंकारों के क्षेत्र में आधुनिक
तुलसीदास' सिद्ध करती है।
अत: होशो–हवास के साथ प्रमाणित किया जाता है कि इस पुस्तक की सभी
रचनाएँ मौलिक हैं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर इन्हें और बुद्धि दें,
ताकि रचनाकार का भविष्य उज्जवल हो सके।
भगीरथ प्रसाद जी की इस समीक्षा का तात्कालिक तौर पर ज़बर्दस्त असर हुआ। कुछ ही
दिनों में 'समीक्षा के नए प्रतिमानों' तथा 'तीसरी परंपरा की खोज' पर ज़बर्दस्त
चर्चाएँ होने लगीं। भगीरथ प्रसाद जी ने इस समीक्षा के माध्यम से समीक्षा की जो
पतित–पावनी गंगा बहाई, उसमें लोग अवगाहन कर–करके धन्य होने लगे। समीक्षा के इस नवीन
प्रतिमानों ने देखते–ही–देखते साहित्य जगत की जनसंख्या में भारी इज़ाफ़ा कर दिया।
भगीरथ जी की यह अंतिम समीक्षा थी। इसके बाद से उन्होंने समीक्षा लिखनी बंद कर दी
किंतु इनकी महान परंपरा चालू है।
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