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                    १लंबी उम्र तक 
					जीने की कोशिश
 - डॉ. गुरुदयाल प्रदीप
 
 अमेरिकन 
					वैज्ञानिक डेनहैम हरमन १९५४ से १९६८ के दीर्घ कालीन अनुसंधान 
					के बाद इस परिणाम पर पहुँचे कि बुढ़ापा आने का एक महत्त्वपूर्ण 
					कारण उम्र के साथ कोशिकाओं में फ्री–रेडिकल्स की बढ़ती मात्रा 
					है। (फ्री–रेडिकल्स परमाणुओं, अणुओं या फिर आयन्स के रूप में 
					पाए जाने वाले वे रसायन हैं जिनके बाहरी ऑरबिट में 
					इलेक्ट्रॉन्स जोड़े में नहीं पाए जाते, जिसके कारण ये अत्यंत 
					क्रियाशील होते हैं। इनका सतत प्रयास यही रहता है कि कहीं से 
					भी और कैसे भी और इलेक्ट्रॉन्स प्राप्त कर लें और अपने बाहरी 
					ऑरबिट में इलेक्ट्रान्स की जोडी बना लें। चाहे भले ही इस 
					प्रक्रिया में उन रसायनों की संरचना या गुण में खराबी आ जाए 
					जिनसे इन्होंने इलेक्ट्रांस प्राप्त किया हो।) 
 कोशिकाओं में पाई जाने वाली माइटोकॉन्ड्रियाओं में ऑक्सीज़न की 
					उपस्थिति में होने वाली श्वास तथा ऊर्जा उत्पन्न करने वाली 
					रासायनिक प्रक्रियाओं के दौरान बाई– प्रॉडक्ट के रूप में ऐसे 
					फ्री–रेडिकल्स की उत्पत्ति पर्याप्त मात्रा में होती है। 
					हालाँकि इन्हें निष्क्रिय करने का उपाय भी प्रकृति ने 
					एंटीऑक्सीडेन्ट्स के रूप में कर रखा है।
 
 विटामिन सी, ए, ई, ग्लूटोथियॉन या फिर परऑक्सीडेज़ेज, कैटेलेज, 
					सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज़ आदि जैसे एन्जाइम्स कुछ इसी प्रकार के 
					उदाहरण हैं जो इन फ्री–रेडिकल्स से प्रतिक्रिया कर उन्हें 
					निष्क्रिय करते रहते हैं। जब ऐसे एंटीऑक्सीडेंट्स की मात्रा कम 
					होने लगती है या फिर ऐसे एन्ज़ाइम्स अन्य रसायनों द्वारा 
					निष्क्रिय या बाधित कर दिए जाते हैं तो फिर ये फ्री–रेडिकल्स 
					आस–पास के अन्य सामान्य रसायनों से प्रतिक्रिया कर उन्हें भी 
					फ्री–रेडिकल्स में बदलने लगते हैं। परिणामस्वरूप इन रसायनों के 
					ऑक्सीजनविहीन अणु अन्य सामान्य रसायनों के अणुओं से 
					प्रतिक्रिया कर उनसे ऑक्सीज़न लेने लगते हैं और इस तरह एक 
					प्रकार के अबाधित रासायनिक प्रतिक्रियाओं की श्रंखला प्रारंभ 
					हो जाती है। इन प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप अंततोगत्वा ऐसे 
					रसायनों के अणुओं का नंबर आ जाता है जिनसे यदि ऑक्सीजन का अणु 
					निकल जाए तो ये अणु अपनी नैसर्गिक गुणवत्ता भी खो देते हैं एवं 
					निष्क्रिय भी हो सकते हैं।
 
 जैविक कोशिकाओं में ऐसे अणु प्रोटीन्स, फैट्स या फिर डीएनए के 
					ही होते हैं और चूँकि तमाम प्रकार के प्रोटीन्स एवं फैट्स के 
					अणु विभिन्न प्रकार की जैव रसायनिक प्रक्रियाओं में एन्जाइम्स 
					या फिर को–फैक्टर्स का काम करते हैं तो फिर ऐसी प्रक्रियाएँ तो 
					बाधित होंगी ही, साथ ही जब इन प्रतिक्रियाओं के कारण डीएनए के 
					अणु प्रभावित होते हैं तो फिर ये स्वयं दोषपूर्ण प्रोटीन्स का 
					निर्माण करने लगते हैं एवं भविष्य में दोषपूर्ण कोशिकीय एवं 
					माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए का निर्माण भी संभव है। ये दोषपूर्ण 
					माइटोकॉंड्रियल डीएनए, माइटोकॉंड्रिया में उपस्थित ऑक्सीजन को 
					सुपर ऑक्साइड्स जैसे फ्री–रेडिकल्स में बदलने लगते हैं और इस 
					प्रकार क्रमश: बढ़ते फ्री–रेडिकल्स का बोझ कोशिका की सहन क्षमता 
					के बाहर हो जाता है।
 
 इससे भी घातक परिणाम तब सामने आता है जब फ्री–रेडिकल्स में 
					परिवर्तित ये अणु, आपस में प्रतिक्रिया कर, एक दूसरे से जुड़ कर 
					प्रोटीन–प्रोटीन, फैट–फैट, प्रेटीन–फैट, डीएनए–डीएनए, 
					डीएनए–प्रोटीन के जटिल क्रॉसलिंक्ड अणुओं का निर्माण करते हैं 
					कि अंततोगत्वा कोशिका का जीवन ही असंभव हो जाता है। हालाँकि 
					स्वाभाविक रूप से उपस्थित एंटीऑक्सीडेंट्स के बल कोशिकाएँ इनके 
					कुप्रभाव को कुछ सीमा तक रोकने में सफल तो होती हैं लेकिन अंत 
					में इनका घातक परिणाम बुढ़ापे के लक्षणों के रूप में सामने आता 
					ही है। डीएनए क्रॉसलिंकिंग का कुपरिणाम बुढ़ापे के कई कुलक्षणों 
					के रूप में देखा जा सकता है विषेश कर कैन्सर के रूप में। 
					प्रोटीन–फैट क्रॉसलिंकिंग का परिणाम त्वचा पर झुर्रियों के रूप 
					में देखा जा सकता है। जब फ्री रेडिकल्स कम घनत्व वाले 
					लीपो–प्रोटीन्स से प्रतिक्रिया करते हैं तो इसका दुष्प्रभाव 
					धमनियों में प्लेक के जमाव के रूप में देखा जा सकता है जो 
					अंतत: दिल की बीमारियों के रूप में सामने आता है।
 
 हरमन ने अपने एक प्रयोग में भोजन को लम्बी अवधि तक सुरक्षित 
					रखने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले एंटीऑक्सिडेंट 
					ब्यूटिलेटेड हाइड्रॉक्सी टाल्युविन की नियमित मात्रा की खुराक 
					दे कर चूहों के औसत जीवन काल को ४५ पतिशत तक बढ़ाने में सफलता 
					प्राप्त कर ली लेकिन उनकी अधिकतम आयु (प्राकृतिक रूप से अधिकतम 
					आयु तक जीने वाला चूहा) की सीमा के आगे किसी भी प्रयोगिक चूहे 
					में आयु वृद्धि नहीं देखी गई। इसी प्रकार के कई प्रयोगों के 
					परिणाम स्वरूप १९७२ तक वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कोशिकाओं 
					में भोजन के साथ बाहर से पहुँचने वाले एंटीऑक्सीडेंट्स कोशिका 
					के अन्य भागों में आसानी से पहुँच जाते हैं एवं वहाँ पाए जाने 
					वाले फ्री–रेडिकल्स को निष्क्रिय करने में सक्षम होते हैं, 
					लेकिन माइटोकॉंड्रिया के अंदर ये प्रवेश ही नहीं कर पाते तो 
					वहाँ निर्मित हो रहे या फिर उपस्थित फ्री–रेडिकल्स को ये 
					निष्क्रिय कैसे कर सकते हैं? अब चूँकि फ्री–रेडिकल्स का 
					प्रारंभिक निर्माण माइटोकॉंड्रिया में होता है तो जाहिर है ऐसी 
					घातक प्रतिक्रियाओं का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भी यहीं देखने को 
					मिलता है। यहाँ जैविक ऊर्जा के स्रोत एटीपी के अणुओं का 
					उत्पादन तो कुप्रभावित होता ही है साथ ही भविष्य में नए 
					माइटोकांड्रिया का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है और जब 
					कोशिकाओं को पर्याप्त ऊर्जा ही नहीं मिलेगी तो फिर जीवन कैसे 
					संभव है? ऐसा प्रतीत होता है कि बुढ़ापे की प्रक्रिया में 
					माइटोकॉंड्रिया की मुख्य भूमिका है।
 
 हरमन की इस विचारधारा की पुष्टि बहुतेरे प्रयोगों द्वारा भी 
					हुई है। चूहों पर किए प्रयोगों ने दर्शाया है कि बुढ़ाते चूहों 
					में सुपर ऑक्साइड एवं लिपिड परऑक्साइड जैसे फ्री रेडिकल्स की 
					मात्रा बढ़ती जाती है। उम्र के साथ हम मनुष्यों की धमनियों एवं 
					शिराओं की अंतर त्वचा में भी सुपर आक्साइड्स की मात्रा बढती 
					जाती है जिसका कुपरिणाम इनके लचीलेपन में कमी के रूप में देखा 
					जा सकता है और इस कमी का सीधा संबंध उच्च रक्त चाप से है।
 
 फ्री–रेडिकल्स द्वारा होने वाले नुकसान को रोकने के तरीके 
					अपनाकर यीस्ट और ड्रॉसोफिला जैसे जीवों का जीवन काल तो बढाया 
					जा सकता है परंतु ठीक इसके उलट राउंड वर्म्स पर इनके शरीर में 
					स्वाभाविक रूप से बनने वाले एंटी ऑक्सीडेंट सुपर ऑक्साइड 
					डिसम्यूटेज़ के निर्माण को रोक देने पर इनके जीवन काल में 
					बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि फ्रीरेडिकल्स 
					की मात्रा बढ़ने से राउंड-वर्म का जीवन काल बढ़ जाता है। इनमें 
					ऐसा क्यों होता है इसे समझाने के लिए वैज्ञानिकों ने हॉरमेसिस 
					जैसी प्रक्रिया को जिम्मेदार बताया है। फ्री रेडिकल्स या फिर 
					इसी प्रकार के अन्य हानिकारक पदार्थों की मात्रा यदि शरीर में 
					एक निश्चित सीमा तक और अचानक बढ़ती है तो हमारे शरीर की सुरक्षा 
					प्रणाली तुरंत सक्रिय हो जाती है और ऐसे पदार्थों या कारणों को 
					स्वाभाविक तरीके से निष्क्रिय करने तथा इनसे होने वाले नुकसान 
					को कम करने में जुट जाती है। उदाहरण के लिए, जो पदार्थ अधिक 
					मात्रा में लिए जाने पर हमारे शरीर में विष का काम करते हैं 
					यदि उन्हें ही थोड़ी मात्रा में लिया जाय तो शरीर उसके विरूद्ध 
					प्रतिरोध क्षमता अर्जित कर लेता है और दुबारा ऐसे पदार्थ का 
					सामना होने पर उसे और उससे होने वाले प्रभावों को तुरंत 
					निष्क्रिय करने के प्रयास में जुट जाता है। यही प्रक्रिया 
					माइटोकॉंड्रिया में भी संभव है एवं इनमें फ्री रेडिकल्स का 
					उत्पादन जीवन काल को बढाने में सहायक हो सकता है। हम मनुष्यों 
					पर भोजन के साथ अलग से लिए जाने वाले एंटीऑक्सीडेंट्स का 
					कुप्रभाव दीर्घकाल में कैंसर या फिर अन्य प्रकार की बीमारियों 
					के रूप में सामने आ सकता है। परिणाम स्वरूप, ऐसे पदार्थों का 
					सेवन उम्र बढाने के बजाय घटाने का काम कर सकते हैं।
 
 मुश्किल हमारे साथ यह है कि अल्पजीवन काल वाले जीवों पर इस 
					प्रकार के प्रयोगों से मिले परिणाम द्वारा हम मनुष्यों के 
					संदर्भ में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच सकते। एक तो हम 
					मनुष्यों को प्रयोगिक जीव की तरह नहीं इस्तेमाल कर सकते और 
					दूसरे किसी भी प्रयोग का सही परिणाम जानने के लिए उसके पूरे 
					जीवन भर प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। फिर भी हम रुक तो सकते 
					नहीं। रास्ते और भी हैं, प्रयास जारी है, मंजिल को तो मिलना ही 
					पड़ेगा, आज नहीं तो कल।
 
 कुछ वैज्ञानिक हॉरमेसिस के रास्ते बुढ़ापे की प्रकिया को रोकने 
					में लगे हुए हुए हैं। नियंत्रित एवं न्यूनतम सीमा में ताप के 
					झटके दे कर, रेडियेशन या उच्च गुरुत्व के संपर्क में रख कर, 
					परऑक्सीडेंट्स का उपयोग कर या फिर भोजन पर नियंत्रण कर बुढ़ापे 
					की प्रक्रिया को रोकने संबंधी प्रयोग हॉरमेसिस के ही उदाहरण 
					हैं। समय–कुसमय गुस्सा होने में भी कोई हर्ज नहीं है। हाल का 
					एक शोध दावा करता है कि ऐसा कर आप २ साल अपनी उम्र बढ़ा सकते 
					हैं। दिल को स्वस्थ्य रखने के लिए कुछ ऐसे व्यायाम जिनसे थोड़ी 
					देर के लिए दिल तेजी से धड़के आवश्यक है। हल्दी में पाया जाने 
					वाले कुरक्युमिन नामक रसायान का प्रभाव भी हमारे शरीर के लिए 
					लाभकारी है।
 
 वैसे तो हर काल, युग सभ्यता एवं धर्म में व्रत उपवास रखने की 
					परंपरा कमोवेश रही है लेकिन हमारे पुराणों में इस पर विशेष बल 
					दिया गया है। सादा भोजन उच्च विचार एवं योग तो हमारे संतों एवं 
					मुनियों का मूल मंत्र रहा है और वे सामान्य जन जीवन को सदैव 
					इसके लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं भी इसके उच्च आदर्श प्रस्तुत 
					करते रहे। कुछ तो घनघोर तपस्या में विश्वास करते थे। ऐसे 
					उदाहरणों की कमी नहीं है जब वे लंबे समय तक केवल फल खा कर या 
					पानी पी कर या फिर बिना कुछ खाए उपवास करते थे। यदि हम विश्वास 
					करें तो ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जो ऐसा कर सैकड़ों साल तक 
					जीने का दावा करते हैं। खैर विज्ञान तो प्रमाण माँगता है। तो 
					आइए देखें कि आधुनिक विज्ञान उम्र लंबी करने की इस विधा को 
					कहाँ तक समझ पाया है।
 
 भोजन पर नियंत्रण करने से हमारी उम्र पर क्या प्रभाव पड़ता है 
					इसके बारे में मिलने वाली आधुनिक सप्रमाण जानकारी काफी दिलचस्प 
					है। १९३४ में कॉर्नेल युनिवर्सिटी के मैरी क्रॉवेल एवं क्लाइव 
					मैक्के ने प्रयेगशाला में चूहों को ऐसे भोजन पर रखा जिसमें 
					कार्बोहाइड्रेट्स जैसे ऊर्जा प्रदान करने वाले पोषक तत्वों की 
					मात्रा उनके दैनिक आवश्यकता से अत्यन्त कम थी लेकिन अन्य पोषक 
					तत्वों विशेषकर विटामिन एवं मिनरल्स जैसे सूक्ष्म पोषक तत्व की 
					मात्रा सामान्य थी। आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने पाया कि ऐसे 
					चूहों की आयु सामान्य चूहों की तुलना में लगभग दुगनी हो गई। 
					बाद में रॉय वालफॉड और रिचर्ड वीनड्रच ने इसी प्रकार के 
					प्रयोगों की श्रंखला द्वारा न केवल उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की 
					बल्कि यह भी पाया कि ऐसे चूहे अपने जीवन में लंबे समय तक युवा 
					बने रहे एवं उनमें बुढ़ापे से संबंधित बीमारियाँ भी देर से 
					उभरीं। न केवल चूहों पर, बल्कि यीस्ट से लेकर मछली और कुत्तों 
					पर ऊर्जा नियंत्रित पोषण का कमोवेश ऐसा ही परिणाम देखने को 
					मिला है एवं इनके बुढ़ाने की प्रक्रिया में कमी देखने को मिली 
					है, लेकिन लंबी उम्र तक जीने वाले जीवों, विषेशकर मनुष्यों पर 
					लंबे समय तक चलने वाले व्यवस्थित एवं योजनाबद्ध अनुसंधान अब तक 
					नहीं किए जा सके हैं। थोड़े समय तक चलने वाले छोटे–मोटे 
					क्लिनिकल टेस्ट्स तथा स्वेच्छा से इस प्रकार के नियंत्रित पोषण 
					वाले भोजन की योजना को अपनाने वाले लोगों पर किए गए मेडिकल 
					टेस्ट्स अवश्य किए जा रहे हैं।
 
 अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑन एजिंग के तत्वाधान में 
					मनुष्यों पर होने वाले अनुसंधान CALERIE (Comprehensive 
					Assessment of Long Term Effects of Reducing Intake of 
					Energy) तथा इसी प्रकार के अन्य छिटपुट अनुसंधानों के परिणामों 
					में कुछ परिणाम उत्साहवर्धक हैं तो कुछ नहीं भी हैं। लंबे समय 
					तक सीमित ऊर्जा (लगभग १० से २५ प्रतिशत कम) वाला भोजन करने 
					वाले लोगों के बॉडी मास इंडेक्स (BMI) भी (मोटापा नापने की एक 
					विधा जिसमें व्यक्ति के किलोग्राम में वजन को उसकी मीटर में ली 
					गई लंबाई के वर्ग से भाग दे कर निकाला जाता है।) १८ से २५ तक 
					की सीमा वाले लोग सामान्य माने जाते हैं २५ के ऊपर के लोग मोटे 
					एवं १८ से नीचे वाले आवश्यकता से कम वजन वाले माने जाते हैं। 
					जहाँ २५ के ऊपर वालों को दिल की बीमारियों, रक्तचाप एवं 
					डॉयबिडीज़ का खतरा रहता है तो १८ से नीचे वालों को कुपोषण एवं 
					हड्डियों में कैल्शियम की कमी से होने वाली बीमारी 
					ऑस्टियोपोरोसिस का खतरा, औसतन २४ (१९.४ से २९.६की सीमा वाले 
					लोगों में) से घट कर १९.५ ( १६/५ से २२/८ की सीमा) तक कम हो 
					गया। इनकी कोशिकाओं में समय के साथ डीएनए के अणुओं में होने 
					वाली क्षति में भी कमी देखी गई। यही नहीं, इनके औसत शारीरिक 
					ताप, रक्तचाप (१००/६०), रक्त में फास्टिंग ग्लूकोज, फास्टिंग 
					इन्सुलिन, थॉयरॉयड तथा ट्राईग्लीसराइड्स की मात्रा में भी काफी 
					कमी देखी गई। यह भी देखा गया कि इनमें दिल एवं शिराओं में उम्र 
					के साथ पनपने वाले बुढ़ापे के लक्षणों के उभरने की प्रक्रिया भी 
					धीमी हो गई है। संक्रमण के समय रक्त में बढ़ जाने वाले c- 
					reactive प्रोटीन्स की मात्रा में भी कमी देखी गई है। इन सब 
					में कमी के विपरीत दो ऐसे जीन्स की अभिव्यक्ति में वृद्धि देखी 
					गई जो नए माइटोकॉंड्रिया के उत्पादन में संलग्न रहते हैं। 
					नियंत्रित भोजन के फलस्वरूप जैविक क्रियायों से संबंधित तमाम 
					घटकों, विशेषकर शारीरिक ताप का सामान्य से कम होना एवं 
					फास्टिंग ग्लूकोज, इंसुलिन तथा थायरॉयड हॉरमोन्स की मात्रा में 
					कमी इस बात का द्योतक है कि मानव शरीर भी ऊर्जा के स्रोत में 
					कमी के साथ ताल–मेल बिठाने का प्रयास करता है। बढ़ते 
					माइटोकॉंड्रिया इस बात का संकेत देते हैं कि जो भी ऊर्जा के 
					स्रोत उपलब्ध हैं उनका भरपूर उपयोग कर कम से कम समय में जीवन 
					के चलाने लायक जैविक ऊर्जा के अधिकतम उत्पादन का प्रयास किया 
					जा रहा है। यही नहीं, ऐसे लोगों की याददाश्त भी अच्छी रहती है।
 
 उपरोक्त एवं ऐसे ही अन्य परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो है 
					परंतु भ्रामक भी हैं। इनके बल पर किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं 
					पहुँचा जा सकता। पहली बात तो ये सभी परिणाम कुछ महीनों या 
					वर्षों की अल्प अवधि तक किए गए परीक्षणों पर आधारित हैं। दूसरी 
					बात इन परिणामों में नियमितता एवं एकरूपता नहीं है। व्यक्ति की 
					उम्र तथा उसकी जीवन शैली इन परिणामों को अलग अलग ढंग से 
					प्रभावित करती है। एक परीक्षण के दौरान जीवन के प्रौढ़ावस्था 
					में पहुँचे (औसत आयु ३७ वर्ष) तथा थोड़े मोटे (औसत २७.५ BMI) 
					लोगों को ६ महीने के लिए चार समूहों में बाँटा गया। एक वह समूह 
					(CR), जिसे २५ प्रतिशत कम ऊर्जा वाली खुराक पर रखा गया। दूसरा 
					वह समूह (CREX). जिसे १२.५ प्रतिशत कम ऊर्जा वाली खुराक के साथ 
					ऐसे नियमित व्यायाम करने के सुझाव दिए गए जो कम से शरीर की 
					१२.५ प्रतिशत ऊर्जा खर्च कर देते हों। तीसरा समूह(VLCD) ऐसे 
					लोगों का था जिन्हें प्रारंभ में तब तक बहुत ही कम ऊर्जा 
					(८९०Kcal प्रतिदिन) पर रखा गया जब तक इन लोगों का वजन १५ 
					प्रतिशत कम नहीं हो गया। बाद में इस समूह को उतनी ही ऊर्जा 
					वाली खुराक दी गई जिससे इनका घटा हुआ वजन स्थिर बना रहे। चौथा 
					समूह (CONTROL)। जिसे सामान्य भोजन पर रखा गया। पहले के तीन 
					समूहों पर किए गए परीक्षणों के परिणामों में कई समानताएँ थीं 
					तो कुछ परिणाम अलग अलग भी थे। शारीरिक तापमान, इंसुलिन, 
					थायरॉयड, ट्राइग्लिसराइड्स आदि में कमी केवल CR और CREX समूह 
					में ही देखी गई। C creative प्रोटीन्स में कमी केवल CREX समूह 
					में ही देखने को मिली।
 
 लगभग इसी प्रकार का एक अन्य प्रयोग वाशिंगटन युनिवर्सिटी में 
					५० से ६० की उम्र वालों पर भी किया गया। इसके परिणाम भी लगभग 
					३७ साल के लोगों पर किए गए परिणाम के आस पास ही था, लेकिन कुछ 
					खराब परिणाम भी सामने आए। CREX की  तुलना में
					C समूह के लोगों की माँस-पेशियों की 
					मात्रा एवं मजबूती में कमी के साथ–साथ श्वसन क्षमता एवं 
					हड्डियों के खनिज घनत्व में भी कमी देखी गई। इससे तो फिलहाल 
					यही निष्कर्ष निकलता है कि बूढों पर मात्र कम ऊर्जा वाले भोजन 
					का कुप्रभाव भी पड़ता है और इससे उनकी उम्र भी कम हो सकती है। 
					हाँ, कम ऊर्जा वाले भोजन के साथ व्यायाम भी किया जाय तो यह कुछ 
					सीमा तक लाभकारी है। बच्चों पर तो कम ऊर्जा वाला भोजन कुपोषण 
					के साथ साथ एवं शारीरिक विकास में कमी ला सकता है। युवा अवस्था 
					में पहुँचने के बाद शायद ऐसे भोजन के साथ व्यायाम का लाभ मिल 
					सकता है, लेकिन आजीवन अनुशासनपूर्वक इसका पालन करना शायद 
					सामन्य लोगों के लिए मुश्किल ही है। इसके लिए काफी दृढ़ निश्चय 
					की आवश्यकता होगी। आखिर अपने ९ मीटर लंबे आहार नाल को भरने एवं 
					सुस्वादु भोजन का लालच छोड़ना आसान काम नहीं है। नियमित व्यायम 
					करना भी सबके वश की बात नहीं है। कुछ समय के लिए इस प्रकार का 
					नियंत्रित एवं संयमित जीवन जीने के बाद जब व्यक्ति अपने निश्चय 
					से डिग जाता है तो फिर वह अगले कुछ समय के लिए एक प्रकार से 
					भोजन पर टूट पड़ता है। इसका प्रभाव उसकी काफी समय से भूखी 
					कोशिकाओं पर भी पड़ता है। ये कोशिकाएँ भुखमरी की हालत से गुजरने 
					के अपने अनुभव के कारण शरीर में आ रहे भोजन को वसा में 
					परिवर्तित कर जल्दी–जल्दी एकत्र करने लगती हैं ताकि भविष्य में 
					यदि फिर कभी भोजन की कमी वाली हालत पैदा हो तो उससे आसानी से 
					निपटा जा सके। अब चूँकि व्यक्ति व्ययाम भी छोड़ चुका होता है तो 
					थोड़े ही दिनों में उसका वजन भी तेजी से बढ़ने लगता है। बढ़ा वज़न 
					अपने साथ बीमारियाँ भी ले आता है और फिर बीमारियों का परिणाम 
					तो आप भी समझ ही सकते हैं। वैसे भी, इन आधे–अधूरे एवं अल्प समय 
					के परीक्षणों के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी 
					होगी।
 
 मनुष्यों पर तो नहीं रेशस प्रजाति के बंदरों पर २० साल से भी 
					अधिक समय तक इसी प्रकार के परीक्षण किए गए हैं। विस्कॉन्सिन 
					युनिवर्सिटी में रिचर्ड वीनड्रच द्वारा किए गए परीक्षणों का 
					२००९ में प्रकाशित परिणाम यह दर्शाता है कि कम ऊर्जा वाला भोजन 
					इनमें बुढ़ाने की प्रक्रिया की रफ्तार में कमी लाता है और ये 
					ज्यादा दिन तक जीवित रहते हैं। परंतु ऐसे उत्साहवर्धक परिणामों 
					पर नेचर जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में अगस्त २०१२ में प्रकाशित 
					यू एस इंस्टीच्यूट ऑन एजिंग के तत्वाधान में जूली मैटिसन 
					द्वारा लगभग इसी प्रकार के परीक्षणों का परिणामों ने कुछ सीमा 
					तक तुषारापात कर दिया है। मैटिसन के अनुसार ३० प्रतिशत कम 
					कैलोरी वाले भोजन का २३ साल तक सेवन करने के बाद भी इन बंदरों 
					एवं सामान्य भोजन पर जिंदा रहने वाले बंदरों की आयुसीमा में 
					कोई भी महत्त्वपूर्ण अंतर देखने को नहीं मिला। लेकिन बुढ़ापे की 
					ओर अग्रसर होने के साथ–साथ उनमें उत्पन्न होने वाली डायबिटीज़, 
					कैंसर या फिर दिल संबंधी बीमारियों के लक्षण थोड़ी देर से अवश्य 
					प्रकट होते हैं। इनके अनुसार जीव की अनुवांशिकता एवं कम ऊर्जा 
					वाला भोजन किस प्रकार लिया जाता है एवं इनमें किस प्रकार के 
					भोजन के अवयव हैं, संभवत: इस बात का बुढ़ापे की प्रक्रिया पर 
					ज़्यादा असर पड़ता है। ये विरोधाभासी परिणाम हमें किसी निश्चित 
					निष्कर्ष पर नहीं पहुँचाते। अभी इस विषय में और भी गहन 
					अनुसंधान की आवश्यकता है।
 
 यही नहीं, इस प्रकार का नियंत्रित ऊर्जा वाला भोजन लेने से आयु 
					बढ़ाने एवं बुढ़ापा रोकने वाली कौन सी क्रिया प्रणालियाँ सक्रिय 
					हो जाती हैं और वे किस प्रकार कार्य करती हैं इस संदर्भ में भी 
					कोई सर्वसम्मत राय नहीं है। अलग–अलग अनुसंधानों के आधार पर यह 
					माना जाने लगा है कि नियंत्रित ऊर्जा वाला भोजन कई प्रकार से 
					कार्य करता है। यह कोशिकाओं में फ्री रेडिकल्स से होने वाली 
					क्षति के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है कोशिकीय पुनर्निर्माण 
					की प्रकिया में तेजी लाता है, कैंसर जैसी स्थिति उत्पन्न करने 
					वाले रसायनों के उत्पादन में कमी लाता है और जैविक ऊर्जा के 
					श्रोत एटीपी के उत्पादन में वृद्धि के साथ, इस प्रकिया में 
					अनावश्यक रूप से उत्पन्न होने वाले फ्री–रेडिकल्स के उत्पादन 
					में कमी लाता है। नियंत्रित भोजन जीन्स एवं डीएनए को भी 
					प्रभावित करता है जिसके फलस्वरूप ऐसे रसायनों के उत्पादन में 
					वृद्धि होती है जो नए माइटोकाँडिया के निर्माण में तेजी लाते 
					हैं। इसके अतिरिक्त, यह बुढ़ापे की प्रक्रिया में सहायक तमाम 
					प्रकार के क्षतिकारक रसायनों के उत्पादन में भी कमी लाता है। 
					कुछ वैज्ञानिक कोशिकीय, विशेषकर माइटोकॉंड्रियल हॉरमेसिस से भी 
					इससे जोड़ कर देख रहे हैं। कोशिका पर थोड़ी–बहुत कम ऊर्जावाले 
					भोजन का प्रभाव उनमें क्षतिपूर्ति एवं सुरक्षा के काम आने वाली 
					लाभकारी प्रक्रियाओं में तेजी के रूप में सामने आता है। वहीं 
					पर यदि कोशिकाओें को अत्यंत कम ऊर्जा वाला भोजन दे कर भूखा रख 
					दिया जाय तो इसका प्रभाव विपरीत रूप में देखने को मिलता है। 
					ऐसी स्थिति कोशिका की मृत्यु के रूप में भी सामने आ सकती है।
 
 कोशिकाओं के बुढ़ाने की प्रक्रिया के बारे में एक और जानकारी 
					एवं उस संदर्भ में हो रहे नए अनुसंधान भी काफी रोचक हैं। किसी 
					भी प्रकार के बहुकोशिकीय जीव का जीवन सामान्यतया एक कोशिका से 
					ही प्रारंभ होता है। यह कोशिका बार बार विभाजन कर एक पूरे जीव 
					का निर्माण करती है। मनुष्य भी एक बहुकोशिकीय जीव ही है। 
					बहुकोशिकीय जीव के निर्माण के प्र्रारंभिक काल से उसके अंत तक 
					तमाम नव निर्मित कोशिकाएँ समय के साथ नष्ट भी होती रहती हैं 
					साथ ही, लगातार कोशिका विभाजन द्वारा इनकी क्षतिपूर्ति भी होती 
					रहती है। शरीर में कुछ कोशिकाओं का जीवन कुछ क्षणों का होता है 
					तो कुछ का महीनों का, कुछ का सालों का या फिर कुछ न केवल आजीवन 
					बनी रहती हैं, बल्कि लगातार विभाजित हो कर नष्ट हो रही 
					कोशिकाओं की क्षतिपूर्ति में लगी रहती हैं। परंतु, इन कोशिकाओं 
					के विभाजन की भी एक सीमा है। एक सीमा के पार कोशिका विभाजन रूक 
					जाता है, जिसका परिणाम जैविक प्रक्रियाओं की गति में कमी और 
					अंत में जीवन की समाप्ति के रूप में सामने आता है। कोशिकाओं के 
					डीएनए एवं उनसे बने जीन्स क्रोमोज़ोम्स की संरचना करते हैं। जब 
					भी कोई कोशिका विभाजित हो कर नई कोशिकाओं का निर्माण करती है 
					तो सबसे पहले डीएनए अपनी प्रतिकृति बनाता है फिर जीन्स और फिर 
					क्रोमोज्रोम्स की संख्या दुगनी होती है ताकि नई कोशिकाओं को 
					समान रूप से एक जैसे क्रोमोज़ोम्स मिल सकें। इस प्रकार नई 
					कोशिकाओं को मातृ कोशिका वाले सभी प्रकार के जीन्स मिल जाते 
					हैं ताकि उनमें भी मातृ कोशिकाओं वाले सभी गुण आ जाएं। ऐसा 
					प्रतीत होता है कि एक कोशिका भविष्य में कितनी बार विभजित होगी 
					इसकी योजना भी इन क्रोमोजोम्स की संरचना में ही नीहित होती है।
 
 १९७०-८० के दशक में रूसी वैज्ञानिक ऑलोव्निकॉव एवं अमेरिकी 
					वैज्ञानिक एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न नें दर्शाया कि कोशिका विभाजन के 
					समय जब क्रोमोज़ोम्स की प्रतिकृति बनती है तो नए क्रोमोजोम्स के 
					टीलोमियर्स (अंतिम छोर के हिस्से) मातृ क्रोमोजोम्स के 
					टीलोमियर्स की संपूर्ण प्रतिकृति न हो कर उससे छोटे होते हैं। 
					बल्कि वे हर बार कोशिका विभाजन के बाद छोटे ही होते जाते हैं। 
					इन्होंने सुझाया कि इस प्रकार हर कोशिका विभाजन के बाद कम होती 
					टीलोमियर्स की लंबाई उस क्षेत्र के डीएनए की लंबाई का कोशिका 
					विभाजन एवं कोशिका के जीवन से सीधा संबंध है। इस लंबाई के एक 
					सीमा तक कम हो जाने के बाद कोशिका विभाजन रूक जाता है। और फिर, 
					इन कोशिकाओं में कुछ समय बाद बुढ़ाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो 
					जाती है जो अंत में इनकी मृत्यु का कारण बनती है। वास्तव में 
					हर कोशिका विभाजन के दौरान टीलोमियर्स की कम होती लंबाई को 
					रोकने एवं उसकी क्षतिपूर्ति के लिए कोशिका में टीलोमरेज़ नामक 
					एंजाइम भी पाया जाता है। परंतु यह एंजाइम सामान्तया केवल 
					भ्रूणीय, स्टेम तथा कुछ विशेष प्रकार की श्वेत रक्त कणिकाओं 
					जैसी कोशिकाओं में ही सक्रिय रहता है। यही कारण है कि इस 
					प्रकार की कोशिकाएँ आजीवन विभाजन की क्षमता रखती हैं।
 
 तो क्या टीलोमरेज़ जैसे एंजाइम को शरीर की सामान्य कोशिकाओं में 
					सक्रिय कर बुढ़ापे की प्रक्रिया को रोक सकते हैं या धीमा कर 
					सकते हैं? जी नहीं। फिलहाल ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती। कारण, 
					कैंसर ग्रसित कोशिकओं मे भी यह एंजाइम सक्रिय रहता है। यानि 
					कैंसर ग्रसित कोशिकाओं के अनियंत्रित विभाजन के मूल में यह 
					एंजाइम भी एक मुख्य कारक हो सकता है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना 
					है कि शरीर की सामान्य कोशिकाओं में इनका न सक्रिय रहना एक 
					प्रकार से वरदान है। इनकी अनुपस्थिति में भले ही कोशिका विभाजन 
					सीमित हो जाता हो एवं प्राकृतिक मृत्यु की संभावना भी बढ़ जाती 
					हो लेकिन कैंसर जैसी भयानक स्थिति से तो यह हमारा बचाव ही करता 
					है। हाल में किए गए एक अन्य अध्ययन के परिणाम इसके उलट भी हैं 
					यानि इस अध्ययन के अनुसार छोटे टीलोमियर्स एवं निष्क्रिय 
					टीलोमरेज़ का कैंसर से करीबी रिश्ता है। अर्थात् टीलोमियर्स एवं 
					बुढ़ाने की प्रक्रिया में भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
 
 इन आधे अधूरे बिना किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचे अनुसंधानों 
					के बल ही सही, कुछ उपाय एवं औषधियाँ मनुष्यों पर आजमाई जा रही 
					हैं। हालाँकि इनके भी परिणाम भ्रमकारी ही हैं फिर भी इनके बारे 
					में जानना रोचक होगा। लाल अंगूरों की बाहरी सतह पर पाए जाने 
					वाले रसायन रिज़्वरेटॉल का प्रभाव लगभग उसी प्रकार का है जैसा 
					कि नियंत्रित ऊर्जा वाले भोजन का होता है। भोजन पर नियंत्रण न 
					कर पाने वालों के लिए एक प्रकार से यह वरदान हो सकता है। इसके 
					उपयोग के परिणाम कुछ सीमा तक उत्साहवर्धक अवश्य हैं लेकिन लंबे 
					समय तक इसका उपयोग हानिकारक भी हो सकता है, ऐसी आशंका भी जताई 
					जा रही है। नियंत्रित ऊर्जा वाले भोजन के समान प्रभाव दिखाने 
					वाली एक अन्य औषधि रैपामाइसिन से भी काफी आशाएँ हैं। हालाँकि 
					इसकी जानकारी ७० के दशक से ही है और इसका उपयोग अंग 
					प्रत्यारोपण के समय शरीर द्वारा नए अंग के अस्वीकार कर दिए 
					जाने वाले खतरे को रोकने के लिए किया जाता रहा है। कारण, यह 
					हमारे शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को निष्प्रभावी कर देता है। 
					कैंसर के संभावित उपचार में भी इसकी उपयोगिता पर परीक्षण किए 
					जा रहे हैं। २० माह के चूहों पर इसका परीक्षण कर यह पाया गया 
					कि उनकी संभावित आयु २८ से ३८ प्रतिशत तक बढ़ गई। २० महीनों में 
					चूहा ६० साल के मनुष्य जितना बूढ़ा हो जाता है अत: इस औषधि को 
					६० साल की उम्र में भी ले कर उम्र बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इसके 
					साथ सबसे बड़ा खतरा इसके द्वारा शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को 
					निष्प्रभावी कर देने का है। ऐसी स्थिति में तमाम प्रकार के 
					संक्रमण तेजी से हमारे शरीर में घर करने लगेंगे। बीमारियों से 
					ग्रसित लम्बे दुख भरे जीवन का क्या लाभ? इस दिशा में मनुष्यों 
					पर गहन अनुसंधान के साथ–साथ इस रसायन द्वारा प्रतिरोधक तंत्र 
					को निष्प्रभावी करने अवगुण की काट खोजने की भी आवश्यकता है।
 
 तो आखिर हम हैं कहाँ? कहीं नहीं और हर जगह और कहीं नहीं, क्यों 
					कि अब तक खोजी गई आयु बढ़ाने वाली कोई भी विधा सटीक भी नहीं है 
					और खतरों से भी भरी हुई है। हर जगह, क्यों कि अंत में हमें 
					रास्ता इन्हीं परीक्षणों से गुजर कर ही मिलेगा। भविष्य में इसी 
					प्रकार के परिमार्जित परीक्षणों के परिणाम, योग, जेनेटिक 
					इंजीनियरिंग, स्टेम सेल तकनीकि, क्लोनिंग तकनीकि, चिकित्सा एवं 
					कंप्यूटर के क्षेत्र में हो रहे क्रांतिकारी अंवेषण, आदि मिल 
					जुल कर हमें चिर आयु का वरदान देंगे। विश्वास रखिए एवं 
					प्रतीक्षा कीजिए।
 
                    १ मई २०१६ |