लड़कियाँ
लड़कों सी नहीं होतीं जी हाँ यह पंक्ति कुछ समय पहले आई एक
हिंदी फिल्म के गाने की हैं। ज़ाहिर है इसमें नया कुछ नहीं है।
वाकई लड़कियाँ लड़कों सी नहीं होतीं शारीरिक संरचना तथा
कार्यकी से ले कर स्वभावगत अंतर स्त्री-पुरूष में साफ-साफ
दिखता है। हम मनुष्यों में ही क्यों, लगभग सभी जंतुओं में नर
एवं मादा में थोड़ा-बहुत अंतर होता ही है। प्रकृति ने इनमें यह
अंतर संभवत: प्रजनन-कार्य में इनकी अलग -अलग भूमिकाओं को ध्यान
में ही रख कर किया होगा। इन अंतरों से न तो कोई श्रेष्ठ बन
जाता है और न ही कोई हीन। ये अंतर तो एक दूसरे के पूरक हैं।
जहाँ तक शारीरिक संरचना एवं कार्यकी में अंतर की बात है, यह
सभी के समझ में आती है। लेकिन स्वभावगत -अंतर के संदर्भ में
लोगों की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई है। चूँकि स्वभाव का
संबंध व्यक्ति के सोचने-समझने की शक्ति अर्थात स्नायुतंत्र,
विशेषकर मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली से है अत: पहले तो यही सोचा
गया कि शायद दोनों के बौद्धिक स्तर में कुछ अंतर होगा। लेकिन
वैज्ञानिक स्तर पर किए गए तमाम प्रयोग इसे नकारते हैं। सबसे
पहले तो इस आधार पर नर-नारी में कोई अंतर है ही नहीं और यदि
थोड़ा-बहुत है भी तो यह उसी प्रकार है जैसे किन्हीं दो पुरुषों
या महिलाओं में व्यक्तिगत स्तर पर होता है।
फिर भी 'लड़कियाँ लड़कों सी नहीं होती' जैसा कौतुहल उस हिंदी
फिल्म के युवा परंतु अपरिपक्व नायक के मन में ही नहीं उठता,
बल्कि जीवन के यथार्थ रूप में भी यह यक्ष-प्रश्न परिपक्व लोगों
के मन भी आता है और इससे वैज्ञानिक भी अछूते नहीं है। तमाम
अभिवावक एवं शिक्षक लड़कियों की प्रगति से अक्सर संतुष्ट नज़र
आते हैं, लेकिन लड़कों की शिकायत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से करते
नज़र आ ही जाएँगे। इस अंतर के पीछे छिपे 'क्यों' की व्याख्या
सभी अपने-अपने अनुभव, ज्ञान, दार्शनिकता आदि के बल करने का
प्रयास करते हैं। 'अरे साहब, लड़कियाँ स्वभाव से ही आज्ञाकारी
होती हैं, वे पढ़ने में ज़्यादा ध्यान लगाती हैं, लड़के तो बस
कुछ ज़्यादा ही खिलंदड़े होते हैं, उनका ध्यान इधर-उधर ज़्यादा
भटकता है, लड़कियों में परिपक्वता जल्दी आती है तो लड़कों में
देर से, आदि, आदि।'
लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि आधुनिक शिक्षा
पद्धति में लड़कियाँ लड़कों से औसतन बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं
'' यह वर्ष दर वर्ष के परीक्षा परिणाम साफ-साफ दर्शा रहे हैं।
यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व-व्यापी है।
अमेरिका जैसे देश में न केवल परीक्षा परिणाम अपितु शिक्षा को
अधूरा छोड़ देने में लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से कम है।
जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, वैज्ञानिक, विशेषकर
मनोविज्ञान, शिक्षा एवं स्नायुतंत्र से जुड़े वैज्ञानिक
अपने-अपने समय के अधुनातन उपकरणों तथा परीक्षण पद्धतियों की
मदद से लड़के और लड़कियों के बीच के इस अंतर को समझने का
प्रयास करते रहे हैं। इसी प्रयास में अमेरिका के वैंडरबिल्ट
युनिवर्सिटी के 'केनेडी सेंटर फॉर रिसर्च ऑन ह्युमन
डेवेलपमेंट' से संबद्ध अनुसंधानकर्ता स्टीफेन कमराटा एवं
रिचर्ड वुडकॉक द्वारा किया गया अनुसंधान उल्लेखनीय एवं
महत्त्वपूर्ण है। कमराटा, श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान का
प्रोफेसर होने के साथ-साथ विशिष्ट शिक्षा के सह-प्रोफेसर एवं
केनेडी सेंटर के उप निदेशक भी हैं। वुडकॉक भी इसी सेंटर के एक
सदस्य एवं श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान विषय के विज़िटिंग
प्रोफेसर होने के साथ -साथ युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया
में अनुसंधान प्रोफेसर भी हैं।
इन लोगों ने दो साल से ले कर नब्बे साल के अस्सी हज़ार से भी
अधिक स्त्री-पुरुषों के मस्तिष्क में विचारों के संसाधन-गति
(processing speed) से संबद्ध परीक्षणों से प्राप्त आंकड़ों का
विश्लेषण किया। ये आंकड़े १९७७ से २००१ की लंबी कालावधि में
किए गए "वुडकॉक-जॉनसन सिरीज़" के संज्ञानात्मक (cognitive) एवं
उपलब्धि(achievement) परीक्षणों के तीन समूहों से प्राप्त किए
गए थे। यहाँ 'संसाधन-गति' से तात्पर्य है किसी सामान्य
कठिनाई-स्तर वाले कार्य को निश्चित समय-सीमा के अंतर्गत
प्रभावी तरीके से सटीक एवं दक्ष रूप में पूरा कर पाने की
क्षमता।
इन आँकड़ो के विश्लेषण के बाद इन अनुसंधानकर्ताओं का भी कहना
है कि बौद्धिक स्तर पर स्त्री-पुरुष में कोई खास अंतर नहीं
होता। जहाँ तक संसाधन-गति का सवाल है तो जीवन के शुरुआती सालों
(केजी एवं प्री -प्राइम़री कक्षा में पढ़ने वाले) में
लड़के-लड़कियों में कोई अंतर नही होता, लेकिन जैसे-जैसे उम्र
बढ़ती है उनमें अंतर साफ दिखाई पड़ता है।'' विशेषकर, १३ से १९
वाले किशोर वय में। निर्धारित समय सीमा में किसी कार्य को
प्रभावी तरीके से सटीक एवं दक्ष रूप में पूरा कर लेने की
क्षमता के मामले में लड़कियाँ हमेशा लड़कों से बाज़ी मार लेती
हैं। ध्यान रहे, आधुनिक शिक्षा पद्धति में अधिकांश परीक्षाएँ
समय-बद्ध एवं बँधे-बँधाए ढर्रे वाली होती हैं, साथ ही प्राय:
नीरस भी होती हैं। इनके अनुसार यदि वास्तव में किसी की कार्य
क्षमता अर्थात संसाधन -क्षमता का परीक्षण करना है तो समय सीमा
की पाबंदी हटा देनी चाहिए एवं दिया गया कार्य चुनौतियों भरा
एवं रुचिकर होना चाहिए। ऐसी स्थिति में पुरुषों की संसाधन
क्षमता बेहतर होती है।
एक और मजेद़ार बात इनके अनुसंधान से निकल कर आई है। जब भाषा
द्वारा विचार संप्रेषण सबंधी परीक्षण किए गए तो कुछ क्षेत्रों
जैसे- वस्तुओं को पहचाना, विलोम एवं पर्यायवाची शब्दों का
ज्ञान, शब्दों के अनुरूपता का ज्ञान आदि के मामले में लड़कों
की संसाधन-गति लड़कियों से बेहतर पाई गई। यह तथ्य इस पुरानी
लोकप्रिय अवधारण को तोड़ता है कि लड़कियाँ संप्रेषण-कला लड़कों
से जल्दी सीखती हैं और इसमें सदैव आगे रहती हैं।
स्त्री-पुरुष की संसाधन-गति में परिलक्षित ये अंतर और भी
कौतुहल जगाते हैं, यथा- सोचने, समझने अथवा परिस्थितियों के
विश्लेषण के समय स्त्री-पुरुष के मस्तिष्क में चलने वाली
प्रकिया क्या अलग-अलग होती है या वहाँ कोई अंतर नहीं है। इस
संदर्भ में यहाँ एक-आध अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधानों की चर्चा
करना प्रासंगिक है।
अल्बर्टा युनिवर्सिटी से मनोचिकित्सा में पीएच ड़ी क़र रहीं
एमिली बेल एवं उसी विभाग के मनोचिकित्सक डॉ पीटर सिल्वरस्टोन
द्वारा दिसंबर २००५ में 'न्युरो इमेज' नामक जर्नल में प्रकाशित
एक शोध पत्र के अनुसार एक ही कार्य के संपादन में स्त्री एवं
पुरुष अपने मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों का उपयोग करते हैं।
इसके उलट कभी -कभी किसी कार्य-विशिष्ट के संपादन में पुरुष जिस
हिस्से का उपयोग करता है, स्त्री उसी हिस्से का उपयोग किसी
अन्य कार्य के संपादन में करती है।
इस शोध के लिए इन लोगों ने दायें हाथ से कार्य करने वाले २३
स्वस्थ पुरुषों एवं १० महिला स्वयंसेवकों को तरह -तरह के कार्य
संपादित करने के लिए कहा गया। इनमें से कुछ स्मृति से, कुछ
मौखिक संप्रेषण से, तो कुछ दृश्यावलोकन तो कुछ छोटी-मोटी
मांसपेशीय गतिविधियों से संबधित थे। इन कार्यों को संपादित
करते समय इनके मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाओं को 'फंक्शनल
मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इम़ेज़िंग' (f MRI) द्वारा प्रबोधित
(monitor) किया गया। लगे हाथों 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस
इमेज़िंग' के बारे में थोड़ा-बहुत जान लेने में कोई हर्ज नहीं
है। वैसे तो अब काफी लोकप्रिय नाम है और सभी जानते है कि इस
विधा द्वारा शरीर के उन अंगों के चित्र प्राप्त किए जा सकते
हैं जिनका निर्माण कोमल ऊतकों द्वारा होता है, जैसे कि
मस्तिष्क। fMRI जैसी विशिष्ट विधा द्वारा किसी कार्य के संपादन
के समय मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की स्नायु कोशिकाओं में
होने वाले विद्युतीय परिवर्तनों का आंकलन, रक्त के प्रवाह में
होने वाले परिवर्तनों द्वारा किया जा सकता है।
'नेचर न्युरोसाइंस' के अपैल २००६ अंक में एमोरी युनिवर्सिटी के
मनोवैज्ञानिकों, स्टीफेन हैमॅन् एवं किम वैलेन के नेतृत्व में
प्रकाशित इसी से मिलते-जुलते एक अन्य शोध-पत्र का निचोड़ यह है
कि एक ही स्तर के यौन उत्तेजना के समय भी पुरुषों एवं महिलाओं
के मस्तिष्क के "एमिग्डाला" (यह 'एमिग्डाला' भावनाओं एवं
अभिप्रेरणा का नियंत्रक होता है) वाले हिस्से में होने वाली
गतिविधियाँ अलग-अलग प्रकार की होती हैं। पुरुषों के
'एमिग्डाला' में विद्युतीय गतिविधियों का स्तर महिलाओं की
तुलना में काफी ऊँचा होता है। इस शोध में १४ पुरुष एवं १४
महिला स्वयंसेवकों ने भाग लिया। उन्हें यौन कियाओं से संबंधित
ऐसे चित्र दिखाए गए जो उनमें समान स्तर की यौन उत्तेजना भर
सकें। पूछने पर उन्होंने समान स्तर वाले उत्तेजना की जागृति की
बात को स्वीकारा भी, लेकिन जब इस अवस्था के दौरान उनके
'एमिग्डाला' का एफएमआरआई लिया गया तो पुरुषों में यह ज्यादा
सक्रिय नज़र आया।
चाहे भले ही इन तीनों शोध कार्यों का उद्देश्य अलग-अलग रहा हो
तथा एवं इनका दायरा एक छोटे से समूह तक ही सीमित रहा हो, लेकिन
ये सभी इस तथ्य की ओर इशारा अवश्य करते हैं कि स्त्री एवं
पुरुष के मस्तिष्क में विचारों के संसाधन की प्रकिया में काफी
अंतर होता है। यह अंतर दोनों के किशोर वय मे कदम रखने के साथ
ही परिलक्षित होने लगता है। इस अंतर को अच्छी तरह समझने के लिए
ऐसे शोध कार्यों को बड़े पैमाने पर, वह भी एफएमआरआई जैसे
अत्याधुनिक उपकरणों एवं विधाओं की सहायता से करने की आवश्यकता
है। इस बात को कमराटा एवं वुडकॉक भी अच्छी तरह समझते हैं एवं
भविष्य में एफएमआरआई का उपयोग कर वे अपने प्रयोगों को और भी
बड़े स्तर पर करने की योजना बना रहे हैं।
संभवत: स्त्री-पुरुष के बीच के इस अंतर को अच्छी तरह समझने के
बाद शिक्षाविद इनके अनुरूप सही शिक्षा पद्धतियों एवं परीक्षण
विधाओं का विकास कर बढ़ते बच्चों के विकास को सही दिशा दे
सकें। साथ ही, बच्चों को इस कच्ची उम्र में हीन भावन से ग्रसित
होने से बचा कर भविष्य में एक स्वस्थ एवं संतुलित समाज की रचना
में सहायक बन सकें। मनोचिकित्सा के क्षेत्र में ऐसे प्रयोगों
के महत्व को तो नकारा ही नहीं जा सकता है।
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