| वर्तमान समय में मानव समाज को डराने एवं चिंतित रखने के लिए 
					तरह-तरह के नये-नये भूतों का आविष्कार मानव समाज ने स्वयं कर 
					डाला है। अब ये भूत समय-कुसमय तरह-तरह के डरावने रूप में हमारे 
					सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो 
					स्थाई रूप से हमारे पीछे जोंक की तरह लगे हुए हैं। इनसे पीछा 
					छुड़ाना बड़ा मुश्किल लग रहा है। इन भूतों ने मिल-जुल कर एक 
					बड़े ही जटिल मकड़जाल का रूप ले लिया है। एक से निपटो (अस्थाई 
					रूप से ही सही) तो दूसरा सामने खड़ा है। विज्ञानवार्ता और 
					भूत-प्रेत की चर्चा! बात कुछ जमती नहीं है। पाठकगण कृपया 
					भौंहें टेढ़ी न करें। जिसके बारे में लेखक को ही कोई ज्ञान न 
					हो, उस पर भला वह चर्चा करेगा भी क्या। वैसे भी विज्ञान प्रमाण 
					माँगता है। बिना प्रमाण के वह न तो किसी को स्वीकारने की 
					स्थिति में होता है और न ही अस्वीकारने की स्थिति में। मैं तो 
					ऐसे भूतों की बात कर रहा हूं जिनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और 
					ये हमारे भूत, वर्तमान, भविष्य सभी में शामिल हैं। बढ़ती 
					जनसंख्या का भूत, आतंकवाद का भूत, असुरक्षा का भूत, महँगाई का 
					भूत, प्रदूषण का भूत क़हाँ तक गिनाएँ? अब आप चाहे इन्हें भूत 
					की संज्ञा दें, वर्तमान की संज्ञा दें या फिर भविष्य की ल़ेकिन 
					एक बात तो तय है और वह यह कि इन सबने हमारी नींद हराम कर रखी 
					है। दूसरी बात, इन सबकी उत्पत्ति के पीछे सुविधाभोगी आधुनिक 
					मानव समाज, उसकी राजनीति एवं कुछ सीमा तक वैज्ञानिक प्रगति का 
					मिला-जुला हाथ है। हालाँकि 
					सामाजिकता, राजनैतिकता एवं वैज्ञानिकता का बड़ा गहरा संबंध है, 
					फिर भी क़्योंकि यह विज्ञानवार्ता का क्षेत्र है इसलिए यहाँ इन 
					भूतों पर चर्चा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही की जाएगी। अब देखिए 
					न - बढ़ती जनसंख्या के लिए चाहे भोजन जुटाना हो, चाहे 
					सुख-सुविधा के साधन जुटाना हो या फिर असुरक्षा और आतंकवाद जैसे 
					भूत से निपटने के लिए अधुनातन हर्बा-हथियार जुटाना हो, विज्ञान 
					एवं वैज्ञानिक पूरी तन्मयता से इस कार्य में लगे हुए हैं। 
					जाहिर है इन सभी कार्यों 
					के लिए ढेर सारी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है।
 वैसे तो प्रकृति ने हमें सौर ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, विद्युत 
					ऊर्जा आदि के रूप में ऊर्जा का अकूत भंडार सौंप रखा है और हम 
					इनका उपयोग भी काफ़ी हद तक करना सीख गए हैं। फिर भी, कई 
					क्षेत्रों, विशेषकर यातायात के क्षेत्र में आज भी हम मुख्य रूप 
					से जीवाश्म-ईंधन यथा कोयला एवं पेट्रोलियम पर ही निर्भर हैं। 
					दुर्भाग्य से न तो इनका वितरण संसार के सभी देशों में एक सार 
					है और न ही हमारे पास इनका असीमित भंडार ही है। जिस रफ़्तार से 
					उनका उपयोग हो रहा है, ये बहुत दिनों तक नहीं चलने वाले है। 
					बढ़ती जन संख्या के साथ इनकी माँगग बढ़ती ही जा रही है। जिन 
					देशों के पास इनका भंडारण ज्यादा है वे मौके का फायदा 
					उठाते हुए जब-तब दाम बढ़ाते ही रहते हैं। परिणाम सामने आता है, 
					बढ़ती महँगाई के रूप में। पहले यातायात महँगा होता है फिर खाने 
					से लेकर रोजमर्रा एवं सुख-सुविधा से जुड़े साज-सामानों की 
					बारी आती है। इसकी मार जो जितना गऱीब होता है उसपर उतनी ही 
					ज़्यादा होती है। ऊपर से ये ईंधन हमारे वातावरण को भी 
					प्रदूषित कर रहे हैं जिसका कुप्रभाव हमारे व्यक्तिगत स्वास्थ्य 
					से लेकर पूरी धरती के ऊपर पड़ रहा है। यदि हाल यही रहा तो यह 
					धरती ही हमारे रहने योग्य नहीं बचेगी।
 स्थिति 
					चिंताजनक है। लेकिन हमें समस्या रूपी इन भूतों से डरने की 
					आवश्यकता नहीं है। मानव समाज शुरू से ही जुझारू प्रकृति का रहा 
					है। वह गलतियों से सीखना जानता है और समस्यायों से निपटना भी। 
					वैकल्पिक ऊर्जा के दोहन एवं उनके व्यावहारिक उपयोग के तरीके 
					खोजने में वह दिन-रात एक किए हुए है। कोई सौर-ऊर्जा से वाहन 
					चलाने की कोशिश कर रहा है, तो कोई बैटरी से तो कोई एथेनॉल या 
					फिर मात्र पानी से ही। इन प्रयासों में हमें आंशिक सफलता भी 
					मिल रही है। लेकिन व्यावहारिक उपयोग की सीमा तक ऐसे वाहनों तथा 
					इनसे जुड़े आधारभूत संरचनाओं एवं संसाधनों के 
					विकास में काफ़ी समय लग सकता है। 
					तो तब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें?
 पेट्रोलियम एवं कोयला जैसे प्राकृतिक जीवाश्म-ईंधन का 
					निर्माण जीवों, विशेषकर वनस्पतियों द्वारा ही प्राकृतिक रूप से 
					हुआ है। तो क्या हम इन्हीं जीवों एवं वनस्पतियों का उपयोग कर 
					कृत्रिम पेट्रोल नहीं बना सकते? अवश्य बना सकते हैं। ऐसे ही 
					तरीकों में एक है- बॉयोडीजल का उत्पादन।
 
 तो चलिए, अब देखें कि यह बॉयोडीजल है क्या? इसे कैसे बनाया 
					जाता है और इसके गुण-अवगुण क्या हैं?
 
 वनस्पति तेलों एवं अथवा जंतुओं से प्राप्त वसा को 
					'ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन' जैसी रसायनिक प्रक्रियाओं द्वारा 
					संसाधित कर बॉयोडीजल का निर्माण आसानी से किया जा सकता है। 
					वनस्पति तेल एवं जंतु-वसा ग्लीसरॉल तथा फ़ैटीएसिड्स के रसायनिक 
					संयोग से बने एस्टर्स ही होते हैं। इनके 'एल्कॉक्सी' ग्रुप के 
					एल्केन भाग को किसी भी अन्य इच्छित एल्कॉहल के एल्केन ग्रुप से 
					बदला जा सकता है। इस प्रकिया के लिए किसी एसिड अथवा बेस की 
					आवश्यकता भी पड़ती है, जो उत्प्रेरक का कार्य करता है। हालाँकि 
					ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन की प्रक्रिया, तमाम प्रकार के वनस्पति 
					तेलों एवं जंतुवसा में कराई जा सकती है, लेकिन बॉयोडीजल के 
					उत्पादन में वनस्पति तेलों, विशेषकर सोयाबीन अथवा कनोला का 
					उपयोग किया जाता है। मेथेनॉल द्वारा इसका ट्रांसएस्टरीफ़केशन 
					किया जाता है। इसके पश्चात प्राप्त बॉयोडीजल से ग्लीसरीन, बचे 
					हुए स्वतंत्र फ़ैटीएसिड्स, उत्प्रेरक तथा एल्कॉहल जैसी 
					अशुद्धियों को दूर किया जाता है, साथ ही इसमें सल्फ़र की 
					मात्रा को न्यूनतम स्तर 
					पर लाने का उपाय किया जाता है।इस प्रकार परिशोधित बायोडीजल को 
					बी १०० का मानक दिया जाता है।
 
 इस प्रक्रिया द्वारा प्राप्त बॉयोडीजल, पेट्रोडीजल के सदृश्य 
					ही होता है और इसका उपयोग आज के आधुनिक डीजल वाहनों में सीधे 
					तौर पर किया जा सकता है या फिर पेट्रोडीजल के साथ किसी अनुपात 
					में मिला कर। इसके लिए वाहन में किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता 
					नहीं होती। साथ ही इसकी आपूर्ति के लिए आधुनिक पेट्रोल 
					स्टेशनों की आधारभूत संरचना में भी किसी परिवर्तन की आवश्यता 
					नहीं है। अत: बॉयोडीजल को आधुनिक समय में प्रयोग में लाए जा 
					रहे पेट्रोल एवं पेट्राडीजल के विस्थापक के रूप में देखा जा 
					रहा है। हालाँकि विशुद्ध रूप में इसके उपयोग में कुछ अड़चनें 
					भी हैं, यथा : यह एँजिन में लगने वाले, रबर से बने अवयवों को ख़राब करता है। 
					यह समस्या अब अपने आप दूर हो गई है क्यों कि १९९३ के बाद बनने 
					वाले वाहनों में रबर की जगह विटॉन का उपयोग होने लगा है जिसके 
					ऊपर बॉयोडीजल का कोई भी कुप्रभाव नहीं है।
 
						
						४ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के नीचे विशुद्ध बॉयोडीजल में 
					श्लेष्मीकरण (gelling) प्रारंभ हो जाता है ठंडे देशों एवं 
					जाड़े के मौसम में कहीं भी यह एक बड़ी समस्या है। इससे बचने का 
					उपाय है, कम सल्फ़र के स्तर वाले पेट्रोडीजल, किरोसिन तेल तथा 
					बॉयोडीजल को ६५%, ३०% एवं ५% के अनुपात में मिला कर उपयोग में 
					लाना। देशकाल के अनुसार यह अनुपात बदला भी जा सकता है। ८० 
					प्रतिशत पेट्रोडीजल तथा २० प्रतिशत बॉयोडीजल के मिश्रण से 
					बने बी २० मानक वाला ईंधन आदर्श है।
						बॉयोडीजल के दहन से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक निष्कर्षित 
					नाइट्रोजन ऑक्साड्स की मात्रा पेट्रोडीजल की तुलना में निश्चय 
					ही अधिक होती है, परंतु इसे भी कैटेलिटिक कन्वर्टर लगा कर 
					नियंत्रित किया जा सकता है।
						बॉयोडीजल पानी में मिश्रणीय तो नहीं है, फिर भी कुछ हद तक 
					जल-प्रीति तो है ही। फलत: संशोधन की प्रक्रिया के बाद 
					थोड़ी-बहुत मात्रा में बचा-खुचा पानी या फिर भंडारण टंकी में 
					सघनन के फलस्वरूप निर्मित जल इसमें मिल ही जाता है। यह जल ईंधन के ज्वलनशीलता ताप में कमी लाता है। परिणाम, 
						एँजिन के 
					जल्दी न स्टार्ट होने, इसके इंर्ंधन-प्रणाली के क्षरण एवं अधिक 
					मात्रा में धुएँ के निष्कासन के रूप में सामने आता है। ठंडे 
					देशों में इस जल का क्रिस्टलीकरण भी हो सकता है जो बॉयोडीजल 
					के श्लेष्मीकरण को प्रोत्साहित करता है। ऊपर से इस जल में 
					जीवाणु भी पनप सकते हैं जो एँजिन के ईंधन-प्रणाली को अवरूद्ध 
					कर सकता है। परंतु इन समस्याओं से निपटना कोई बड़ी बात नहीं 
					है। आइए अब बॉयोडीजल के उन गुणों पर दृष्टिपात किया जाय, जो इसके 
					पक्ष में जाते हैं: 
						
						किसी भी वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत की तुलना में इसमें ऊर्जा की 
					मात्रा सर्वाधिक है। इसके अतिरिक्त इसका सीटेन नंबर 
					पेट्रोडीजल की तुलना में ज़्यादा है अत: एँजिन में शीघ्र 
					प्रज्ज्वलित होता है।
						इसका स्नेहाँक पेट्रोडीजल की तुलना में ऊंचा होता है जिसका 
					अर्थ है, एँजिन के फ़्यूएल इंजेक्टर की लंबी आयु।
						जीवणुओं द्वारा इसका अपचयन चीनी के समान ही शीघ्रता से होता 
					है, साथ ही यह नमक से भी कम विषाक्त है।
						पेट्रोलियम की तुलना में इसके प्रज्वलन से कार्बनमोनोऑक्साइड 
					के निष्कर्षण में लगभग ५० प्रतिशत एवं कार्बनडाईऑक्साइड के 
					निष्कर्षण में ७० से ८० प्रतिशत की कमी देखी गई है। जहाँ 
					पेट्रोलियम ईंधन धरती में जमा कार्बन को पुन: वातावरण में 
					लाकर प्रदूषण के स्तर को तेजी से बढ़ा रहे हैं, वहीं 
					बॉयोईंधन लगभग उतने ही कार्बन को वातावरण में वापस करते हैं 
					जितना वनस्पतियों द्वारा इनके संश्लेषण में होता है। अत: इसके 
					उपयोग से प्रदूषण का स्तर काफ़ी कम हो सकता है।
						बॉयोडीजल के दहन से पेट्रोलियम के दहन की तुलना में कणिकारूपी 
					प्रदूषक पदार्थों की मात्रा में ६५ प्रतिशत की कमी आती है। 
					इसका अर्थ है, कैंसर होने की संभावना में ९४ प्रतिशत की कमी। 
					इसमें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बेंज़ोफ़्ल्यूरोएन्थीन तथा 
					बेंज़ोपाइरीन सदृश्य गंधयुक्त हाइड्रोकार्बन की मात्रा भी 
					पेट्रोलियम की तुलना में लगभग आधी होती है। कुल मिला कर 
					स्वास्थ्य की दृष्टि से यह पेट्रोल की तुलना में कई गुना अधिक 
					सुरक्षित है। गुण ढेर सारे और अवगुण इतने कम! फिर भी क्या कारण है कि आज भी 
					हमारे वाहन मुख्य रूप से पेट्रोलियम पर ही निर्भर हैं, 
					बॉयोडीजल पर नहीं? वर्तमान समय में संसार के सभी वाहनों में 
					विशुद्ध रूप (B100)  में इसके उपयोग के लिए जितनी मात्रा 
					में वनस्पति तेल की आवश्यकता है वह पूरे विश्व की खेती योग्य 
					जमीन को मात्र कनोला एवं सोयाबीन जैसे वनस्पति तेल के पारंपरिक 
					स्रोत की खेती के लिए इस्तेमाल करने पर भी कम ही पड़ेगी। यह 
					व्यावहारिक रूप से संभव भी नहीं है। आख़िर हम अन्य फ़सलों, 
					विशेषकर अन्न प्रदान करने वाली फ़सलों को कहाँ उगाएँगे? इसके 
					अतिरिक्त इतने वृहद रूप में खेती करने पर कुछ दिनों बाद जमीन 
					कितनी उपजाऊ रह जाएगी तथा संश्लेषित खाद एवं पेस्टिसाइड्स आदि
					के उपयोग के कारण जमीन 
					कितनी प्रदूषित हो जाएगी, यह सब कल्पना के परे है।
 वास्तव में बॉयोडीजल की अवधारणा कोई नयी बात नहीं है। ड्यूफ़ी 
					एवं पेट्रिक ने रूडॉल्फ़ डीजल द्वारा डीजल एँजिन के विकास के 
					कई दशक पहले, १८५३ में ही वनस्पति तेलों के 
					ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन की विधि खोज निकाली थी। १९०० में पेरिस के 
					वर्ल्ड फ़ेयर में रूडॉल्फ़ डीजल ने जिस डीजल एँजिन का 
					प्रदर्शन कर ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार जीता था, वह मूंगफली के 
					तेल से ही चलता था। इस एँजिन के आविष्कार के मूल में रूडॉल्फ़ 
					डीजल की परिकल्पना भी यही थी कि भविष्य में यह पेट्रोलियम से 
					चलने वाले एँजिन के विकल्प के रूप में सामने आएगा। मूंगफली का 
					तेल बॉयोडीजल तो नहीं है, लेकिन इसे बॉयोईंधन की संज्ञा अवश्य 
					दी जा सकती है। १९२० में इस प्रकार के एँजिन के उत्पादकों ने 
					इसे प्रेट्रोडीजल से चलाने के लिए इसमें आवश्यक परिवर्तन किया, 
					कारण उन दिनों पेट्रोडीजल काफ़ी सस्ता था एवं लोगों को प्रदूषण 
					का इतना अनुमान नहीं था।
 
 पेट्रोलियम के बढ़ते दामों, इसकी आपूर्ति में हो रही 
					दिक्कतों एवं बढ़ते प्रदूषण के खतरे को देखते हुए, १९८० के दशक 
					में ऑस्ट्रिया में बॉयोडीजल के उत्पादन का पुनर्प्रयास किया 
					गया। १९९१ में वहाँ इसके औद्योगिक स्तर पर उत्पादन की व्यवस्था 
					की गई। १९९० तथा उसके बाद के दशक में यूरोप एवं संसार के अन्य 
					देशों में भी इसके औद्योगिक उत्पादन तथा पेट्रोडीजल के साथ 
					मिला कर इसे वाहनों में प्रयुक्त करने के प्रयास में काफ़ी 
					तेजी आई है। बी २० का उपयोग तो अब आम बात है, बी ५० के उपयोग 
					के संबंध में काफ़ी़ अनुसंधान कार्य चल रहा है। वनस्पति तेलों 
					के अन्य प्राकृतिक एवं 
					व्यावहारिक स्रोतों की खोज में भी तेजी आई है।
 
 इस संदर्भ में कुछ सूक्ष्म-शैवालों (Alga) पर भी हमारी दृष्टि 
					पड़ी है। इनकी खेती पानी में, कम खर्च में आसानी से की जा सकती 
					है तथा जमीन पर उगने वाली वनस्पतियों की तुलना में इनसे तेल 
					भी ७ से ३१ गुना अधिक मात्रा में निकाला जा सकता है। हालाँकि 
					अभी भी औद्योगिक स्तर पर इनकी खेती, तेल निकालने का कार्य एवं 
					बॉयोडीजल के उत्पादन का कार्य प्रारंभ नहीं हुआ है, परंतु 
					प्रयास जारी हैं। न्यूज़ीलैंड के एक्वाफ़्लो बॉयोनॅमिक 
					कारपोरेशन ने मई २००६ में पहली बार म्युनिसिपालिटी के सीवेज 
					तालाब में प्रकृतिक रूप से उगने वाले शैवालों से निष्कर्षित 
					तेल से बॉयोडीजल के नमूने के उत्पादन की घोषणा की है। चूंकि 
					शैवाल पानी में उगते हैं, अत: इनकी खेती से जमीन पर उगने वाले 
					कृषि उत्पाद बिल्कुल ही 
					अप्रभावित रहेंगे। लेकिन, इस दिशा में और भी अनुसंधान की 
					आवश्यकता है।
 
 एथेनॉल, जिसे एथिल एल्कॉहल या फिर सामान्य रूप से मात्र 
					एल्कॉहल के नाम से जाना जाता है, एक अन्य बॉयो-ईंधन के रूप 
					में हमारे सामने है। वनस्पति-तेलों की तरह इसके उत्पादन के लिए 
					मात्र बीजों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। इसका उत्पादन 
					किसी भी पौधे में पाए जाने वाले स्टार्च या शर्करा से किण्वन 
					(fermentation) द्वारा आसानी से किया जा सकता है। गन्ना 
					इसका सबसे उपयुक्त एवं सस्ता स्रोत है। एथेनॉल को विशुद्ध रूप 
					में भी प्रयोग में लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए वाहनों के 
					एँजिन में समुचित परिवर्तन की आवश्यकता पड़ेगी। कारण, विशुद्ध 
					रूप में यह एँजिन के रबर तथा प्लास्टिक से बने अवयवों को गला 
					देता है। साथ ही, पेट्रोल की तुलना में इसकी ऑक्टेन रेटिंग २० 
					प्रतिशत अधिक है।अर्थात इसके उपयोग के लिए पेट्रोल एँजिन की 
					तुलना में बड़े कार्ब्युरेटर जेट की आवश्यकता है, जिसका 
					क्षेत्रफल ३० से ४० प्रतिशत तक ज्या़दा हो। साथ ही ऐसे देशों 
					में जहाँ तापमान १३ डिग्री सेंटीग्रेड से कम होता है, ऐसे 
					एथेनॉल एँजिन की आवश्यकता पड़ेगी जो इतनी ठंड में भी स्टार्ट 
					हो सके। हाँ, यदि इसे १० से ३० प्रतिशत तक पेट्रोल के साथ मिला 
					कर उपयोग में लाया जाय तो वर्तमान पेट्रोल एँजिन में किसी 
					विशेष परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके साथ भी यक्ष 
					प्रश्न यही है कि संसार के समस्त वाहनों के लिए आवश्यक एथेनॉल 
					के उत्पादन के श्रोत अर्थात गन्ने की खेती के लिए अतिरिक्त 
					जमीन कहाँ से आएगी? और यदि यह कर भी लिया जाय तो भोजन प्रदान 
					करने वाली फ़सलें कहाँ उगाई जाएँगी?
 
 वो कहते है न जहाँ चाह, वहाँ राह। प्रयास जारी है। इस आलेख 
					में वर्णित विकल्पों के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर भी अनुसंधान 
					जारी है। हाल ही में (जून २००६) विस्कांसिन-मेडिसॉन 
					युनिवर्सिटी के रसायनिक एवं जैव इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर 
					जेम्स ड्युमेसिक तथा इनके सहयोगियों ने फलों में पाए जाने वाली 
					शर्करा, फ्रक्टोज को हाइड्रॉक्सीमेथाइलफ़रफ़्यूराल (HMV) 
					में बदलने की सस्ती विधा खोजने में सफलता पाई है। HMV एक ऐसा 
					अंतरिम रसायन है, जिसे न केवल डीजल रूपी ईंधन में बल्कि 
					प्लास्टिक जैसे पदार्थों में भी आसानी से बदला जा सकता है। 
					ध्यान रहे, वर्तमान समय में प्लास्टिक या इसी प्रकार के अन्य 
					तमाम रसायनों के उत्पादन के लिए हज़ारों-हज़ार टन पेट्रोलियम 
					अथवा प्राकृतिक गैस का उपयोग होता है। यदि इस प्रकार के प्रयास 
					आगे भी होते रहे तो आज नहीं तो कल, ईंधन से जुड़ी समस्याओं 
					का हल खोज ही लिया जाएगा। और, वह कल ज्या़दा दूर नहीं है।
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