अकेले
फरवरी 2006 के समाचार पत्रों को देखें तो भारत सहित
दुनिया के तमाम देशों में इस बीमारी से ग्रसित
चिड़ियों, विशेषकर मुर्गियों के किस्से रोज़ के
हिसाब से मिलेंगे। लाखों मुर्गियों को मार दिया
गया है। अन्य जंतुओं तथा मनुष्यों मे यह बीमारी
सीधे तौर पर तो नहीं फैल रही है, फिर भी कुछ केस
अवश्य मिले हैं। मार्च 2006 के पहले सप्ताह तक पूरी
दुनिया में कुल 95 लोगों की मृत्यु इस बीमारी के
कारण हो चुकी है और 84 नये केस सामने आए हैं।
करोड़ों की
जनसंख्या वाले मानव समाज में ये आंकड़े नगण्य
ही हैं। फिलहाल, इस बीमारी से केवल उन्हीं लोगों
के प्रभावित होने का ख़तरा है, जो ऐसी संक्रमित
चिड़ियों के सीधे संपर्क में हैं या फिर संक्रमित
चिड़ियों को जानेअनजाने अधपका खा रहे हैं। फिर
भी, मीडिया द्वारा इससे जुड़ी छोटीछोटी ख़बरों को
आवश्यकता से अधिक महत्व देने के कारण
लाखोंकरोड़ों मुर्गियों को मार कर खा जाने
वाला मानव समाज आज इतना डरा हुआ है कि अधिकांश
लागों ने मुर्गियां खाना तो छोड़िए, इनकी तरफ़
देखने से भी तौबा कर ली है। अब, विशेषज्ञ
समझाते हैं, तो समझाते रहें कि अच्छी तरह पका कर खाने
से हममें इस बीमारी का कोई ख़तरा नहीं है। डर बड़ी
चीज़ होती है जनाब, और वह भी तब जब अपनी जान
पर बन आने का सवाल हो तो कहना ही क्या? इस डर ने
आज लाखोंकरोड़ों के व्यापार वाले 'पोल्ट्री'
व्यवसाय के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
हज़ारों लोगों की रोज़ीरोटी छिनने का ख़तरा तो
है ही, कई देशों की अर्थव्यवस्था को भी यह गंभीर रूप
से प्रभावित कर सकता है।
सवाल यह
है कि किस प्रकार इस बीमारी को फैलने से रोका जाए
क्योंकि इस रोग से ग्रसित चिड़ियों को एक स्थान से
दूसरे स्थान तक जाने से तो रोका भी नहीं जा सकता है
न?
चिड़ियों
के पंख पर सवार सारी दुनिया में अपने पांख फैलाती
तथा हमें आतंकित करती इस बीमारी के कारण एवं
संभावित निवारण पर चर्चा ही विज्ञानवार्ता के इस
अंक का उद्देश्य है।
पहली बात,
इस बीमारी का असली कारण मुर्गियां नहीं बल्कि
H5N1
नामक वाइरस है, जो इन्फ्लुएंज़ा वाइरस की एक किस्म
है। यह वाइरस शब्द ही आतंक के लिए पर्याप्त है।
सर्दीजुकाम जैसी साधारण बीमारी से लेकर पॉक्स,
पोलियो, एड्स, कैंसर, हर्पीज़ जैसी दुनिया की
तमाम साध्यअसाध्य एवं जानलेवा बीमारियों के
पीछे वाइरस का ही हाथ होता है। सजीव और
निर्जीव के बीच की कड़ी, ये वाइरस आकार में
सबसे छोटे जीवधारी हैं। इतने छोटे कि केवल आंखों
से कौन कहे, साधारण माइक्रोस्कोप से भी इन्हें नहीं
देखा जा सकता है। मात्र 30 नैनोमीटर से 300 नैनोमीटर
के अति सूक्ष्म आकार वाले वाइरसेज़ को देखने के लिए
एलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की आवश्यकता पड़ती है। इनकी
सूक्ष्मता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि
मात्र आंखों से न दिखाई पड़ने वाले बैक्टीरिया से भी
ये लगभग पचास गुना छोटे होते हैं।
प्रकृति ने
इन्हें केवल सूक्ष्म आकार ही नहीं दिया है, बल्कि इनकी
संरचना की कहानी भी बिहारी के दोहों की तरह मात्र
न्युक्लिक एसिड्स, फॉस्फोलिपिड्स की दुहरी तह एवं कुछ
प्रोटीन्स को मिला कर दो पंक्तियों में लिख दी है।
इनकी संरचना के केंद्र में 'राइबोज़ अथवा
डीआक्सीराइबोज़ न्युक्लिक एसिड' का 'न्युक्लिक कोर'
होता है तथा इस 'कोर' के चारों ओर केवल
लिपोप्रोटीन्स से बना 'आवरण' होता है। लेकिन
बिहारी के दोहों की तर्ज़ पर ही ये 'देखन में छोटन
लगैं, घाव करैं गंभीर' को चरितार्थ करते हैं। इनके
द्वारा जनित तमाम बीमारियों पर आज हमने वैक्सीन
का विकास कर, विजय पा ली है या फिर ऐसे बहुतेरे
वाइरसों से निपटने के लिए हमारे पास प्राकृतिक
प्रतिरोध क्षमता भी होती है। लेकिन इनमें से कई ऐसे
हैं, जिनके विरूद्ध विकसित वैक्सिन कुछ समय बाद
अप्रभावी हो जाते हैं। कारण, उनकी संरचना में
समयसमय पर होने वाला परिवर्तन। इस प्रकार
उत्पारिवर्तित (mutated)होने वाले
वाइरसों के लिए हर
समय नए वैक्सीन के विकास की आवश्यकता रहती है।
इन्फ्लुएंज़ा वाइरस इसी प्रकार का एक वाइरस है। इन जैसे
वाइरसों के अतिरिक्त एड्स तथा कैंसर जैसे रोग
उत्पन्न करने वाले वाइरस ऐसे भी हैं, जो अभी
भी हमारे सामने चुनौती बन कर खड़े हैं। इनका सही
निवारण आज भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
चूंकि 'H5N1
वाइरस' इन्फ्लुएंज़ा वाइरस की ही एक किस्म है, अतः आइए
पहले हम इन्फ्लुएंज़ा वाइरस के बारे में जान लें। फिर
'बर्ड फ्लू' को समझना आसान हो जाएगा। गोलाकार
या फिर कभीकभी लंबे तंतुरूप मे पाए जाने वाले
इस वाइरस का 'न्युक्लिक कोर', राइबोज़ न्युक्लिक एसिड
के एकहरे धागे तथा कुंडलीकार 'न्यक्लिक प्रोटीन्स' के
घनिष्ट योग से बनता है। यह कोर इन्फ्लुएंज़ा वाइरस
में 'राइबोन्युक्लियर प्रोटीन' रूपी आठ खंडों मे बंटा
होता है। ये आठों खंड इस वाइरस के सफल प्रजनन तथा
अगली पीढ़ी के वाइरसेज़ की उत्पति के लिए अत्यावश्यक
हैं। इस 'कोर' के चारों ओर लीपोप्रोटीन्स से
निर्मित 'आवरण' होता है जिसकी भीतरी सतह पर विशेष
प्रकार के प्रतिजन (antigen) 'मैटि्रक्स प्रोटीन' की एक
तह होती है। 'मैटि्रक्स प्रोटीन' के ये अणु कोर में
अवस्थित राइबोन्युक्लिक प्रोटीन्स से भी रसायनिक रूप
से जुड़े होते हैं।
'आवरण' की
बाहरी सतह पर खूंटी जैसे उभार के रूप में दो प्रकार के
प्रतिजन प्रोटीन्स के अणु देखे जा सकते हैं। एक होता
है, बॉक्सनुमा 'न्युरामिनीडेज़.' नामक प्रोटीन,
जो एन्ज़ाइम्स का कार्य करता है। इस प्रोटीन की नौ
किस्में होती हैं। दूसरा होता है, त्रिफलीय आकार वाले
'हीमएग्ग्लुटिनिन'। इनकी भी 13 किस्में होती हैं।
'हीमएग्ग्लुटिनिन' के ये अणु संक्रमण के समय लाल
रक्त कणिकाओं सहित हमारे शरीर की या फिर किसी अन्य
जीव की तमाम प्रकार की कोशिकाओं के बाहरी सतह पर
उपस्थित विशेष प्रकार के 'रिसेप्टर' प्रोटीन्स के साथ
जुड़ने में सहायक होते हैं। एक बार इन रिसेप्टर्स से
जुड़ने के बाद 'एंडोसाइटोसिस' की प्रक्रिया द्वारा
वाइरस को संक्रमित कोशिका के अंदर ले लिया जाता है।
फिर कई जटिल प्रक्रियाओं के परिणाम स्वरूप वाइरस का
राइबोन्युक्लिक प्रोटीन संक्रमित कोशिका की संपूर्ण
प्रणाली का उपयोग कर नये वाइरस के उत्पादन में
संलंग्न हो जाता है। नव उत्पादित वाइरस की यह पीढ़ी
संक्रमित कोशिका से निकल कर नयी कोशिकाओं को संक्रमित
करती है।
अधिकांश
वाइरसेज़ परपोषीविशिष्ट (host
specific) होते हैं
अर्थात एक प्रकार के जीव को संक्रमित करने वाला वाइरस
सामान्यतया दूसरे जीव
को संक्रमित नहीं करता है।
कारण, हर जीव की कोशिका की बाहरी सतह पर पाए जाने
वाले 'रिसेप्टरप्रोटीन्स' अलगअलग प्रकार के होते
हैं। इन रिसेप्टर्स से किस प्रकार का वाइरस जुड़ पाएगा,
यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसके आवरण की सतह पर
पाए जाने वाले प्रतिजन प्रोटीन्स की संरचना क्या है
तथा ये किस प्रकार के हैं?
इन्फ्लुएंज़ा
वाइरस की मुख्य रूप से तीन किस्में होती हैं ए, बी
तथा सी। यह वर्गीकरण इनमें पाए जाने वाले
प्रतिजन प्रोटीन्स के मुख्य प्रकार तथा उनकी
उत्परिवर्तनशीलता के आधार पर किया गया है। इनमें से
'सी' किस्म साधारणतया नहीं मिलती और मिलती भी है
तो केवल मनुष्यों को ही संक्रमित करती है। 'बी' किस्म
भी केवल मनुष्यों में ही संक्रमण फैलाती है। इसकी
सतह पर पाए जाने वाले हीमएग्ग्लुटिनिन में समय के
साथ सामान्यतः मामुली परिवर्तन ही होते हैं। 'ए'
किस्म मुख्य रूप से चिड़ियों को संक्रमित करने वाला
वाइरस है। इसके हीमएग्ग्लुटिनिन्स में समय के
साथसाथ मामूली परिवर्तन तो हर समय होते रहते
हैं, यदाकदा बड़े परिवर्तन भी होते हैं। इनके
न्युरामिडज़ भी कुछ सीमा तक परिवर्तनशील होते
हैं। इन परिवर्तनों के कारण समयसमय पर इनकी
उपकिस्में उत्पन्न होती रहती हैं, जो अन्य जन्तुओं तथा
मनुष्य को भी संक्रमित कर सकती हैं। इन उपकिस्मों का
नामकरण इनमें मुख्य रूप से पाए जाने वाले
हीमएग्ग्लुटिनिन तथा न्युरामिडेज़ के आधार पर किया
जाता है। आजकल बर्ड फ्लू फैलाने वाले वाइरस
H5N1 का
नाम भी इसी आधार पर रखा गया है।
H5, इनमें मुख्यरूप
से पाए जाने वाले हीमएग्ग्लुटिनिन के प्रकार का द्योतक है
तो, N1,
न्युरामिड के प्रकार का।
चूंकि
वाइरस की यह किस्म यदाकदा ही सही, चिड़ियों के
अतिरिक्त मनुष्यों तथा अन्य जंतुओं को भी संक्रमित
कर दे रही है, अतः वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि कहीं
मनुष्य को मुख्य रूप से संक्रमित करने वाली 'बी' या
'सी' किस्म से मिलकर अचानक यह किसी ऐसी किस्म में
न उत्परिवर्तित हो जाए जो सीधे तौर पर मनुष्यों को
संक्रमित करने लगे। यदि यह नयी किस्म हमारी प्राकृतिक
प्रतिरोध क्षमता को छलावा देने वाली हुई और साथ ही
यदि समय रहते हम इसके विरूद्ध कारगर वैक्सीन भी न
विकसित कर पाए, तो यह महामारी का रूप ले सकती है।
खैर, यह
तो भविष्य की बात है। आइए, पहले यह तो देखें कि इस
बीमारी का भूत और वर्तमान कैसा है। वर्ल्ड हेल्थ
ऑर्गेनाइज़ेशन के अनुसार इस बीमारी की पहचान आज
से 100 वर्ष पूर्व ही इटली में कर ली गई थी। लगभग
सभी प्रकार के पक्षी बर्डफ्लू के प्रति संवेदनशील
होते हैं। अब तक इस वाइरस की 15 उपकिस्मों की पहचान की
जा चुकी है, जो पक्षियों में फ्लू के संक्रमण का
कारण हैं। जलीय पक्षी, विशेषकर बतखें तो ऐसे
वाइरसों की भंडार होती हैं, परंतु इनमें इस बीमारी
के विरूद्ध प्रतिरोध क्षमता भी सबसे अधिक होती है। यह
बीमारी संभवतः मुर्गियों तथा टर्की जैसे पक्षियों
में इन बतखों के सीधे या परोक्ष संपर्क में आने से
फैलती है और ये पक्षी इसके वाइरस के प्रति सर्वाधिक
संवेदनशील होते हैं। प्रारंभ में इसके लक्षण काफ़ी
मंद होते हैं और इससे इनकी जान को ख़तरा भी नहीं
के बराबर होता है। इस रूप में बीमारी के लक्षण मात्र
पंखों की अस्तव्यस्तता के रूप में दिखाई पड़ते हैं तथा
अंडो के उत्पादन में कमी हो जाती है। ये वाइरस कुछ
काल तक इन पक्षियों में इसी प्रकार के लक्षण उत्पन्न करते
रहते हैं। बाद में ये उत्परिवर्तित हो कर अतिउग्र लक्षणों
वाले फ्लू का संक्रमण करने लगते हैं। ये लक्षण हैं
नाक, कान तथा आंखों से गाढ़े श्राव का उत्सर्जन,
कलगी तथा सर में सूजन, हरे रंग का दस्त, इनके झुंड
में शोरगुल की कमी, आदि। इस रूप में यह फ्लू
बहुत तेज़ी से फैलता है तथा महामारी का रूप ले सकता
है। मृत्युदर भी लगभग शतप्रतिशत तक पहुंच जाती
है।
आज तक
संसार में जितनी भी बर्डफ्लू की महामारियां फैली
हैं, उनके मूल में वाइरस
H5 या
H7 उपकिस्मों का ही
हाथ रहा है। 19831884 के दौरान अमेरिका में
H5N2
जनित महामरी हो या फिर इटली में 19992001 के
दौरान
H7N1 जनित महामरी हो, प्रारंभ में इनकी
तीव्रता कम थी, लेकिन छः महीने के अंदर इन वाइरसों के उत्परिवर्तन का परिणाम 90 प्रतिशत मृत्युदर के रूप
में सामने आया। इसे नियंत्रित करने के लिए अमेरिका
एवं इटली में लाखोंकरोड़ों मुर्गियों को मारना
पड़ा। इससे हुई करोड़ों डॉलर की आर्थिक क्षति का
अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।
मुर्गियों
में फैलने वाली इस प्रकार की महामारी के नियंत्रण का
अब तक का सबसे कारगर तरीका इस बीमारी से ग्रसित
सभी मुर्गियों के साथसाथ उस पोल्ट्री फार्म की
अन्य स्वस्थ दीखने वाली मुर्गियों को भी तुरंत मार
देने तथा उस पोल्ट्री फार्म को पूर्ण रूपेण संगरोधित (quarantine)
कर देना ही है। ऐसे पोल्ट्री फार्म पर स्वछता के उच्च माप
दंड अपना कर न केवल इस व्यवसाय से जुड़े लोगों
तक इस वाइरसेज़ के संक्रमण को रोका जा सकता है अपितु
अन्य पोल्ट्री फार्म्स में भी इसके संक्रमण को कम किया
जा सकता है।
जैसा कि
पहले भी बताया जा चुका है, मुर्गियों तथा अन्य
पक्षियों से मनुष्यों तथा अन्य जंतुओं में इसके संक्रमण
की संभावना कम ही रहती है, फिर भी इनके सीधे संपर्क
में आने वाले लोगों तथा अन्य जंतुओं, विशेषकर
सुअरों में इसका संक्रमण यदाकदा हो सकता है।
मनुष्यों में
H5N1 वाइरस
की सबसे पहली जानीमानी घटना 1997 के दौरान हांगकांग में
सामने आई थी। 18 लोग इस वाइरस से ग्रसित पाए
गए, जिनमें से 6 की मृत्यु हो गई। इन सब में
लक्षण तो सामन्य फ्लू के ही थे, जैसे गले मे खराश,
सर दर्द, बदन दर्द, बुखार आदि, लेकिन बाद में
इनमें सांस संबंधी गंभीर समस्या देखी गई। उसी
समय यहां
मुर्गियों में भी इस वाइरस का संक्रमण देखने में
आया। तीन दिन के भीतर लगभग पंद्रह लाख मुर्गियों
को मार कर संभवतः हांगकांग की सरकार ने इसके द्वारा
मनुष्यों में महामारी फैलने के ख़तरे को रोक दिया।
इसके बाद 2003 में हांगकांग में ही इसी वाइरस के
संक्रमण की एकदो घटनाएं पुनः सामने आईं। इसके अतिरिक्त अन्य
एशियाई देशों कांबोडिया, थाईलैड, चीन,
इंदोनेशिया, टर्की, इराक तथा वियेतनाम में
यदाकदा कुछ और रोगी भी सामने आए हैं।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रपट के अनुसार 2003 से
ले कर अब तक मनुष्यों में इस वाइरस के संक्रमण की
कुल 175 घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें 95 लोगों
की मृत्यु
हो चुकी है। यानि, मृत्यु दर 50 प्रतिशत के ऊपर! और
यही चिंता का कारण है। प्रतिवर्ष ऐसी घटनाओं की संख्या
में वृद्धि ही हो रही है। 2004 में कुल 46 घटनाएं
सामने आईं जिनमें 32 लोगों की मृत्यु हुई, 2005 में 95
संक्रमित लोगों में से 41 की मृत्यु हुई और 2006 के मात्र
दोतीन माह में ही 31 बीमारों में से 19 की मृत्यु हो चुकी है।
सवाल यह
है कि हम मनुष्यों में इसके संक्रमण को कैसे रोक
सकते हैं या फिर कैसे कुछ कम कर सकते हैं? इससे भी
बड़ा सवाल यह है कि मनुष्यों को सामान्य रूप से संक्रमित
करने वाले 'ब' किस्म के वाइरस से मिल कर नये प्रकार
के उत्परिवर्तित वाइरस (जो सीधे तौर पर एक मनुष्य से
दूसरे तक संक्रमित हो सकता है) के विकास की संभावना
को कैसे कम किया जाए? क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं कर
पाए तो यह नयी उपकिस्म मनुष्यों में महामारी का रूप
ले सकती है और फिर यह लाखोंकरोड़ों की जान का
ग्राहक बन सकती है।
चूंकि
मनुष्यों में इस वाइरस के संक्रमण का अंदेशा मुख्य
रूप से संक्रमित मुर्गियों तथा अन्य 'पोल्ट्रीबर्ड्स'
द्वारा ही संभव है, तो सबसे बड़ी आवश्यकता इसके
संक्रमण को ऐसी चिड़ियों मे रोकने के उपाय ढूंढने
की है। फिलहाल, 'न रहे बांस,न बजे बांसुरी के'
तर्ज पर इसका सीधा उपाय ऐसी सारी संदेहास्पद
चिड़ियों
को मार देना है। न ऐसी संक्रमित चिड़ियां रहेंगी, न
मनुष्य में इस वाइरस का संक्रमण होगा। दूसरा उपाय,
पोल्ट्री फॉर्म तथा इसके व्यवसाय से जुड़े लोगों
को अतिरिक्त साफ़सफ़ाई के वातावरण में कार्य करने
के लिए सुविधाएं प्रदान करना है। समयसमय पर
इन्हें वाइरल प्रतिरोधक दवाएं भी मुहैय्या करानी चहिए।
साथ ही इन लोगों को 'बी तथा सी' प्रकार के वाइरस
के विरूद्ध टीका लगाना चाहिए, जिससे उन्हें
मनुष्यों में सामान्य रूप से होने वाले फ्लू से
बचाया जा सके। इसका लाभ यह होगा कि इनको यदि 'ए'
किस्म के वाइरस ने संक्रमित कर ही दिया है, तो इस
वाइरस को 'बी या सी' किस्मों के साथ मिल कर नये
उत्परिवर्तित किस्म (जो सीधे रूप से एक मनुष्य से
दूसरे तक संक्रमित हो सके) की वाइरस के विकास का
अवसर नहीं मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त, इनकी बदलती
किस्मों के अनुरूप नयेनये टीकों का विकास का
प्रयास हमें सदैव करते रहना चाहिए। इन वाइरसों के
विरूद्ध जितनी सावधानियां संभव हों, हमें अवश्य
बरतनी चाहिए।
चलतेचलते
यह भी समझ लें कि मुर्गी खाना ही छोड़ देना समस्या
का हल नहीं हैं। मुर्गी अवश्य खाएं, लेकिन अच्छी तरह पका
कर। कारण, उच्च ताप पर ये वाइरस नष्ट हो जाते हैं
क्योंकि इनका आवरण फॉस्फोलिपिड की दुहरी तह का बना
होता है, जो उच्च ताप के प्रति संवेदनशील है।
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