काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होय गी, बहुरि करेगा कब।।
जी हाँ, अपने समय के महान समाज–सुधारक कबीर दास ने अपने इस
दोहे में संसार की क्षणभंगुरता के बारे में चेतावनी देते हुए
लोगों को अपना काम समय रहते हुए करने की सलाह दी है। हो सकता
है कि कबीर ने प्रलय का भय दिखा कर उस समय के मानव समाज में
व्याप्त आलस्य को दूर करने का प्रयास किया हो। लेकिन प्र्रलय
की स्थिति वास्तव में भयावह है। प्रलय का अर्थ है इस धरती का
विनाश अथवा यहाँ ऐसी विषम स्थितियों का उत्पन्न होना जिसमें
जीवन का फलना–फूलना असंभव हो जाए। वैसे तो यदि हमें अपने
पुराणों तथा मिथकों पर जरा भी विश्वास है तो जल–प्लावन के रूप
में प्रलय कोई नयी बात नहीं है। ऐसे प्रलय अचानक हुए या फिर
प्रकृति इनके बारे में समय–समय पर चेतावनी देती रही, साथ ही
इसमें मनुष्य के अपने कर्मों का भी हाथ था या नहीं — आज हमारे
पास ऐसा कोई साधन नहीं है जो इनके बारे में सही जानकारी दे
सके।
लेकिन भविष्य में कोई ऐसा प्रलय आया तो निश्चित रूप से कहा जा
सकता है कि उसमें प्रकृति के साथ–साथ मनुष्य का हाथ अवश्य
होगा। पर्यावरण में हो रहे छोटे–बड़े परिवर्तन कबीरदास की तरह
हमें इसकी चेतावनी भी दे रहे हैं तथा समय रहते सुधरने का संकेत
भी। मनुष्य इस धरती का तथाकथित सबसे बुद्धिमान एवं विचारवान
प्राणी है। इस धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर उनका
उपयोग केवल अपने लिए करने का गुर उसे खूब आ गया है। लेकिन अपनी
बुद्धि के घमंड में उसने कबीर की बात न तब सुनी और न ही आज वह
प्रकृति रूपी कबीर की चेतावनी सुनने को तैयार है। वह तो बस
तथाकथित प्रगति के रास्ते पर आँखें मूंदे भागा चला जा रहा है।
वह कालीदास की तरह जिस डाल पर बैठा है उसी को जाने–अनजाने
काटने की प्रक्रिया में लगा हुआ है और खुश हो रहा है।
आने वाले प्रलय की चेतावनी धरती के बढ़ते ताप के रूप में
प्रकृति हमें बड़े मुखर ढँग से दे रही है। इस बढ़ते ताप का
दुष्प्रभाव अंत में जल–प्लावन ही होगा, यह तय है। हमारे
पर्वतों तथा ध्रुवीय प्रदेशों पर जमी लाखों टन बर्फ़ जब एक साथ
पिघलने लगेगी तो और क्या अपेक्षा की जा सकती है। यह पिघलती
बर्फ़ हमारे सागरों और महासागरों का जल–स्तर कई–कई मीटर तक ऊँचा
कर सकती है जो फिर नदियों एवं अन्य जलाशयों को भी प्रभावित
करेगा ही। परिणाम– चारों तरफ़ बाढ़ ही बाढ़। यह बाढ़ हमारे अधिकांश
मैदानी भागों को लील जाएगी। फिर न हम बचेंगे और न ही अन्य
जीव–जंतु। खैर यह तो बाद में होगा। बढ़ता ताप अभी भी अपनी रंगत
छोटे–बड़े रूप में दिखा ही रहा है। आइए, ज़्यादा नहीं, बस पिछले
एक साल के समय–अंतरालहाल में घटी कुछ घटनाओं पर ही नजर डाली
जाए। ये घटनाएँ मात्र कपोल–कल्पना नहीं हैं बल्कि विभिन्न
वैज्ञानिक तथा पर्यावरण संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन का
निचोड़ हैं। इन पर दृष्टिपात करने के बाद आप को समझ में आ जाएगा
कि बढ़ते ताप के फिलहाल क्या–क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं और
भविष्य में ये किस प्रकार की भयानक परिस्थितियों की ओर संकेत
कर रहे हैं।
जनवरी २००५ में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ़ फंड के एक अध्ययन के अनुसार
उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र के बर्फ़–अक्षादित क्षेत्रफल में प्रति
दशक के हिसाब से ९.२ प्रतिशत की कमी हो रही है और ऐसा
विशेषकर ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ़ में कमी के कारण हो रहा है।
ज़ाहिर है, यह वातावरण के ताप में वृद्धि का कुपरिणाम है।
जीवधारियों पर इसका कुप्रभाव— लगभग २२,००० पोलर बियर की
जनसंख्या के विलुप्त होने का खतरा।
फरवरी २००५ में प्रकाशित ब्रिटिश एंटार्कटिक सर्वे की एक
रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र अवस्थित लार्सेन बी
नामक एंटार्कटिक आइस शीट, जिसके बारे में अब तक समझा जाता कि
यह पत्थर के समान अविचल संरचना है, बढ़ती गर्मी के कारण
धीरे–धीरे विघटित होना प्रारंभ कर चुकी है। इसका कुपरिणाम इस
क्षेत्र के ३०० – ४०० ग्लैशियरों के आकार में कमी के रूप में
परिलक्षित हो रहा है।
युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा जून २००५
में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार साइबेरिया–क्षेत्र के
सैटेलाइट द्वारा लिए गए चित्र यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र
में अवस्थित एंटार्कटिक झीलों पर जमी लगभग स्थाई बर्फ़
धीरे–धीरे पिघल रही है, जिसके परिणाम स्वरूप झीलें विलुप्त
होती जा रही हैं। १९७३ तक इस क्षेत्र में झीलों की संख्या
१०,८८२ थी जो अब घट कर मात्र ९७१२ रह गई हैं। मात्र बत्तीस साल
के अंतराल में ऐसी एक सौ पच्चीस झीलें पूरी तरह विलुप्त हो
चुकी हैं।
रूट्गर युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किए गए
एक अध्ययन के अनुसार सभी सागरों का जल–स्तर सामान्यरूप से
प्रतिवर्ष २ मि.मि. की दर से बढ़ रहा है। वर्तमान वृद्धि की यह
दर औद्योगिक क्रांति के पहले के वर्षों की तुलना में दुगनी है।
यदि धरती के सामान्य ताप में वृद्धि के रोक–थाम के समुचित उपाय
समय रहते न किए गए तो इस दर के बढ़ते ही जाने की संभावना अधिक
है। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक हमारे समुद्रों
का जल–स्तर लगभग एक मीटर तक या उससे भी ऊँचा उठ सकता और तब
भविष्य में इसके कुपरिणाम की कल्पना तो की ही जा सकती है।
मैसाच्युसेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा
जुलाई २००५ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों
में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उठने वाले चक्रवात धीरे–धीरे
काफी प्रबल होते जा रहे हैं। चक्रवात में उठने वाली हवा की गति
में कम से कम ५० प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
जुलाई २००५ में पश्चिमी भारत मे आई बाढ़ इस सदी की भयंकर बाढ़ों
में एक थी। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग इससे बुरी तरह प्रभावित
हुए। मुंबई में ही मात्र २४ घंटे के अंदर ९४० मिली मीटर बरसात
हुई। इस बाढ़ ने लगभग १००० लोगों की जान ले ली। धन–संपदा के
नुकसान के बारे में तो कहना ही क्या। नवंबर–दिसंबर २००५ तमिल
नाडु और आस–पास के क्षेत्र भयानक बरसात तथा बाढ़ के गवाह हैं।
मौसम विभाग के अनुसार आने वाला समय कोई शुभ समाचार ले कर नहीं
आने वाला है। और भी बारिश एवं आँधी–तूफान के ही संकेत मिल रहे
हैं। प्रशांत महासगर के क्षेत्र से उठने वाले तूफानों की
संख्या तथा उनकी प्रबलता में भी इस वर्ष काफी वृद्धि हुई है और
इन्होंने मिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। १९३३ के २१
आँधियों तथा १९६९ के १२ तूफानों की तुलना में इस वर्ष की २५ आँधियाँ एवं
१२ तूफान अप्रत्याशित कीर्तिमान ही हैं। कैट्रीना
और रिटा जैसे तूफानों तथा इनसे हुई तबाही को अमेरिकावासी भला
जल्दी भूल सकते हैं क्या?
और तो और धरती के बढ़ते ताप का प्रभाव मानव समाज के स्वास्थ्य
पर भी पड़ रहा है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाज़ेशन द्वारा हाल ही में
प्रस्तुत एक रिर्पोट के अनुसार हमारे क्रिया–कलापों के
फलस्वरूप वातावरण में हो रहे परिवर्तनों का कुपरिणाम, विशेषकर
ताप–वृद्धि के कारण, प्रतिवर्ष लगभग ५० लाख लोगों को बीमारी के
रूप में भुगतना पड़ रहा है और लगभग डेढ़ लाख लोग काल के गाल में
समा जा रहे हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ विस्कांसिन–मेडिसन तथा वर्ल्ड हेल्थ
ऑर्गनाइज़ेशन के वैज्ञानिकों के अनुसार त्रासदी यह है कि इस
धरती को गरमाने में पश्चिमी देशों, विशेषकर तथाकथित विकसित
देशों का मुख्य हाथ है। त्रासदी यह है कि इसका कुपरिणाम
प्रशांत तथा हिंद महासागर के तटीय देशों एवं अफ्रीका के सहारा
रेगिस्तान के आस–पास के देशों को, जहाँ धरती को गरमाने वाले
क्रिया–कलाप न्यूनतम हैं, तमाम संक्रामक तथा जीवाणुजनित रोगों
जैसे मलेरिया से लेकर दस्त या फिर कुपोषण जैसी स्थितियों के
रूप में भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में स्थिति के बदतर होने के
ही आसार ज़्यादा हैं। कारण, उच्च ताप जीवाणुओं को पनपने का
बेहतर सुअवसर देते हैं। साथ ही ये देश इतने गरीब हैं कि ऐसी
स्थिति से निपटने के लिए न तो इनके पास साधन हैं और न ही
सुविधा। करे कोई, भरे कोई।
स्थिति भयावह है और इसके लिए काफी हद तक हमारे क्रिया–कालप ही
ज़िम्मेदार हैं। अपने लिए अधिक से अधिक सुख–सुविधाओं को जुटा
लेने के प्रयास में की जा रही तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति तथा
औद्योगीकरण की प्रक्रिया ही इसके मूल में है। छोटी–बड़ी
औद्योगिक इकाईयों, फैक्टरियों तथा लाखों–करणों वाहनों के
संचालन में प्रयुक्त होने वाले कार्बनयुक्त ईंधन यथा कोयला,
पेट्रोल, डीजल आदि के दहन से उत्पन्न गरमी और उससे भी अधिक
इनके अपूर्ण दहन से निकलने वाली कार्बन–डाई–ऑक्साइड तथा
मोनोऑक्साइड जैसी गैसें इस धरती के ताप को बढ़ाने में मुख्य
भूमिका अदा कर रही हैं। औद्योगीकरण ने शहरी करण को जन्म दिया।
औद्योगिक ईकाइयों तथा आवास–विकास हेतु हमें ज़्यादा जमीन की
जरूरत हुई। इसे हमने धरती की हरियाली की कीमत पर पाया। हरियाली
कम होती जा रही है और शहर, सड़कें तथा फैक्टरियाँ ज़्यादा।
परिणाम, वातावरण में अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कारकों के
अतिरिक्त कार्बन–डाई–ऑक्साइड की बढ़ती जा रही मात्रा। क्यों कि
ये पेड़–पौधे ही हैं जो वातावरण से कार्बन–डाई–ऑक्साइड का उपयोग
कर मूल–भूत भोजन कार्बोहाइडेट्स का संश्लेषण करते हैं तथा
ऑक्सीजन की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।
एंटाक्र्टिका में जमी बर्फ़ की अंदरूनी परतों में फंसे हवा के
बुलबुलों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में
कार्बन–डाई–ऑक्साइड की मात्रा पिछले साढ़े छह लाख वर्षों के
दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम कार्बन–डाई–ऑक्साइड की तुलना
में २७ प्रतिशत अधिक है। बढ़ती कार्बन–डाई–ऑक्साइड वातावरण में
शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है
लेकिन ताप को नहीं। सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु
को पार कर धरती तक तो आ जाती हैं, परंतु धरती से टकरा कर इसका
अधिकांश हिस्सा ताप में बदल जाता है। यदि वातावरण में
कार्बन–डाई–ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह ताप उसे पार कर
वातावरण के बाहर नहीं जा सकता है। इसका परिणाम धरती के सामान्य
ताप में शैनैः शैनैः वृद्धि के रूप में सामने आता है और
औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है। औद्योगिक एवं
व्यक्तिगत ऊर्जा खपत में अग्रणी होने के कारण पश्चिमी देश इस
धरती को गरमाने में भी अग्रणी हैं और इनमें अमेरिका का नाम
सर्वोपरि है। विकासशील तथा अविकसित देश भी इस कुकर्म में
कमो–बेश अपना सहयोग दे ही रहे हैं! ऐसी परिस्थति में भला धरती
को गर्म होने से कौन बचा सकता है!
ऐसा भी नहीं है कि इसे कोई नहीं समझ रहा है। लेकिन अधिकतर लोग
इसे समझते हुए भी नासमझ बने हुए हैं और जो इसे समझ कर इसकी
रोक–थाम के उपाय के प्रयास में लगे हुए हुए हैं, वे मुठ्ढी भर
पर्यावरण–विज्ञानी पूरे मानव समाज की मानसिकता को बदलने में
अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। हालांकि ऐसे जागरूक लोगों के
प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। ऐसे ही लोगों की
सक्रियता के फलस्वरूप ही विश्व के लगभग १४१ देशों ने फरवरी
२००५ में जापान के क्योटो शहर में एक ऐसे दस्तावज पर हस्ताक्षर
किए जिसमें इस बात पर सहमति बनी कि संसार के लगभग ४० औद्योगिक
रूप से विकसित देश २००८ से २०१२ के बीच धरती को गरमाने वाली
सभी प्रकार की गैसों के उत्पादन में १९९० की तुलना में कम से
कम ५.२ प्रतिशत की कमी लाने का प्रयास करेंगे। इस पर
हस्ताक्षर करने वाले हर देश के लिऐ वहाँ के प्रदूषण–स्तर के
अनुपात में ऐसी गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए अलग–अलग
मानक स्थिर किए गए हैं। ध्यान रहे, इस धरती को गरमाने वाली
गैसों के उत्पादन में इन देशों का हिस्सा लगभग ५५ प्रतिशत है।
यह सहमति पिछले सात सालों के अथक प्रयास का फल थी। इस सहमति
में भारत तथा चीन जैसे विकासशील देशों को छूट दी गई थी। इसी
बात को आधार बना कर ऑस्ट्रेलिया तथा विश्व के सबसे बड़े प्रदूषक
देश अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था।
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के अनुसार यह सहमति उनके
देशवासियों के रोजगार के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी,
साथ ही भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को छूट देना पक्षपात
है। अमेरिका जैसे देश का ऐसा रवैया इस दिशा में सक्रिय तथा
प्रयासरत देशों तथा लोगों के लिए काफी हताशापूर्ण है।
हस्ताक्षर करना और बात है, उसे अमली जामा पहनाना और बात!
अधिकांश देशों के पास न तो कोई निश्चित योजना है और न ही सुदृढ़
राजनैतिक इच्छा। अर्थतंत्र सब पर भारी है। उदाहरण के लिए, इस
सहमति पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाले में देशों में एक –
कनाडा के पास इस ध्येय को पाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है।
१९९० की तुलना में प्रदूषण के स्तर में कमी आने के बजाय यहाँ
लगभग २० प्रतिशत की वृद्धि ही हुई है। जापान जैसा देश भी, जहाँ
इस सहमति पर हस्ताक्षर हुए थे, इस ध्येय को पाने के रास्ते में
आने वाली कानूनी अड़चनों को कैसे दूर करेगा–इस बारे में दुविधा
में है। फिर भी इनके प्रयास सराहनीय है। आज नहीं तो कल रास्ता
निकल ही आएगा। कहते हैं न– जहाँ चाह वहाँ राह।
इसी राह पर आगे चलते हुए २८ नवंबर २००५ से ०९ दिसंबर २००५ तक
कनाडा के मॉन्ट्रियाल शहर में युनाइटेड नेशन्स द्वारा प्रयोजित
गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अंतर–राष्ट्रीय गोष्ठी में १८९
देशों के लगभग दस हज़ार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। यहाँ
मुख्य मुद्दा था– क्योटो सहमति जो २०१२ तक ही प्रभावी है, उसे
आगे कैसे बढ़ाया जाय तथा २०१२ के आगे भी धरती को गरमाने वाले
गैसों के उत्पादन की रोक–थाम के लिए और भी प्रभावकारी रणनीति
पर विचार करना तथा यह प्रयास करना कि विश्व के सबसे बडे.
प्रदूषक देश अमेरिका को किस प्रकार इस प्रयास मे शमिल किया
जाय। साथ ही इस प्रयास में विकासशील देशों की ज़िम्मेदारी भी तय
की जाय। खुशी की बात है कि लगभग क्योटो सहमति पर हस्ताक्षर
करने वाले सभी देश इस समझौते को २०१२ के आगे भी प्रभावी रखने
के लिए सहमत हो गए हैं। अमेरिका भी, जो इस संधि का
हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इस बात के लिए सहमत हो गया है कि
वातावरण में प्रदूषण की रोक–थाम से जुड़ी दूरगामी योजनाओं
संबंधी बात–चीत में शामिल होगा। शर्त यह है कि वह उन्हें मानने
या न मानने के लिए बाध्य न हो। चलिए, भागते भूत की लंगोटी ही
भली!
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ये सरकारी तथा राजनैतिक प्रयास
निश्चय ही दूरगामी प्रभाव डालेंगे, लेकिन मेरा मानना है कि
धरती को गरमाने से बचाने का प्रयास तो महायज्ञ है और इसमें सभी
का योगदान आवश्यक है। जब तक इस धरती का बच्चा–बच्चा इसके प्रति
सजग नहीं होगा और व्यक्तिगत रूप से इस प्रयास में सहभागी नहीं
होगा, धरती को इस महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता। हमें समय
रहते चेतना ही पड़ेगा वरना भस्मासुर की तरह विज्ञानरूपी वरदान
के पीछे छिपे प्रदूषणरूपी इस हाथ को अपने सर पर रख कर नाचते
हुए अपने विनाश का कारण हम स्वयं ही बन जाएँगे।
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