भूल
गया कुछ–कुछ -
याद नहीं सब कुछ
स्मृति–विस्मृति का
ताना–बानाः एक जटिल प्रक्रिया
—डा. गुरु
दयाल प्रदीप
भारत में आज कल परीक्षाओं का मौसम है। दसवीं तथा बारहवीं
की बोर्ड परीक्षाओं से ले कर नाना प्रकार की प्रतियोगिता
–
परीक्षाएँ मार्च से ले कर जून के महीने में ही तो होती हैं
और ये हमारे नौनिहालों का भविष्य तय करती हैं। अपने भविष्य
के प्रति जरा भी सजग छात्र, उनके अभिभावक, शिक्षा प्रदान
करने वाले तमाम संस्थान एवं शिक्षक–सभी इसकी तैयारी में
महीनों पहले से जुट जाते हैं। कुछ छात्र विषय को समझ कर
तथ्यों को याद रखने का प्रयास करते हैं तो कुछ बिना
समझे–बूझे ही सब कुछ रट लेने के चक्कर में पड़े रहते हैं।
तथ्यों को समझना और उन्हें याद रखने का प्रयास ही परीक्षा
में सफलता के दरवाजे को खोलने की एक मात्र चाभी है। चाहे
कोई कितना भी दावा करे कि आज–कल के प्रश्न–पत्र
परीक्षार्थी के बुद्धि की कुशाग्रता तथा विश्लेषक क्षमता
की परख करते हैं, परंतु इस परख में भी वही सफल सिद्ध होते
हैं जिनकी स्मरण
शक्ति भी तीव्र होती है।
परीक्षा ही क्यों, जीवन के हर क्षेत्र में हर प्राणी की
उत्तरजीविता के लिए एक कुशाग्र, विश्लेषक तथा तीव्र
स्मरण–शक्ति वाले तंत्र की आवश्यकता होती है। किसको कितनी
सफलता मिलती है इसका अधिकांश दारोमदार इसी तंत्र की शक्ति
पर निर्भर करता है–विशेषकर स्मरण शक्ति पर। किसी बात को
अच्छी तरह याद रखने का हमारे पूर्वजों ने सबसे कामयाब
नुस्खा उसे बार–बार दुहराने यानि रट लेने के रूप में पाया
था। और आज भी यह नुस्खा कारगर है। इस क्षमता को कैसे बढ़ाया
जाय, इस विषय पर भी अपने अनुभवों तथा अनुसंधानों के बल
विद्वान लोग समय–समय पर अपने सुझाव देते रहे हैं – यथा
प्रातःकाल याद करने का सर्वोत्तम समय है, बादाम तथा
त्रिफला का सेवन याददाश्त को बढ़ाने में सहायक हैं,
आदि।
यह स्मरण शक्ति भी बड़ी विचित्र होती है और ऐन वक्त पर
हमारे साथ आँख मिचौली खेलने से बाज नही आती। जरा उस
परीक्षार्थी से पूछिए जिसने रात भर जग कर तैयारी की,
परीक्षा केन्द्र पर पहुँचा, अचानक उसके मन में कोई प्रश्न
कौंधा, तथ्यों को जानते हुए भी उस प्रश्न का उत्तर इसकी
याददास्त से बाहर नहीं निकल रहा है और वह दौड़ कर किताब के
पन्ने जल्दी– जल्दी पलटता है। या फिर प्रश्न–पत्र पाने के
ठीक पहले उसे लगता है कि वह सब कुछ भूल गया। कितनी
विच्रित्र बात है कि प्रश्न–पत्र मिलने के बाद उसमें छपे
प्रश्नों के उत्तर तो उसे याद आने लगते हैं लेकिन बाकी पढ़ा
हुआ उस समय उसके स्मृति पटल से गायब हो जाता है। अथवा आप
किसी व्यक्ति से बहुत दिन बाद मिल रहे हैं और लाख प्रयास
के बाद भी उस समय आप को उसका नाम नहीं याद पड़ रहा है। जैसे
ही वह व्यत्ति आप से दूर जाता है अचानक उसके बारे में आप
को सब कुछ याद आ जाता है। या फिर कोई उस व्यक्ति अथवा उससे
संबंधित किसी घटना का उल्लेख करे तो तुरंत उसका नाम याद आ
जाता है और हम फौरन कह उठते हैं –अरे हाँ, यह तो वही
व्यक्ति है।
हम प्रति दिन हजारों नए–नए अनुभवों से गुजरते हैं। उनमें
से कुछ हमें थोड़े समय के लिए याद रहते हैं तो कुछ स्थायी
रूप से हमारे मानस पटल पर अंकित हो
जाते हैं। बहुत दिन पहले
किसी घटना विशेष का वर्णन तो हम आसानी से कर देते हैं
परंतु किसी दूसरी घटना के बारे में लाख कुरेदने के बाद भी
कुछ भी याद नहीं पड़ता। हर व्यक्ति की स्मरण क्षमता अलग–अलग
होती है और यह उम्र के साथ कम होती जाती है।
उपरोक्त बातें और ऐसी ही बहुत सी बातें तो हमारे आप के रोज
के अनुभव में शामिल हैं। आइए अब हम यह देखें कि आधुनिक
उपकरणों एवं सुविधाओं से लैस इस विषय के मर्मज्ञ
अनुसंधानकर्ता तथा वैज्ञानिक इस स्मरण–प्रक्रिया एवं
इससे जुड़ी जटिलताओं
को कहाँ तक समझ सके हैं।
वास्तव में स्मरण की संपूर्ण प्रक्रिया अत्यंत जटिल है। इस
प्रक्रिया में मस्तिष्क के साथ–साथ ज्ञानेन्द्रियों का भी
महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये ज्ञानेन्द्रियाँ ऊर्जा के
विभिन्न रूपों को ग्रहण करने में दक्ष होती हैं। आँखें
प्रकाश, कान ध्वनि, नाक तथा जीभ रासायनिक तो त्वचा उष्मा
एवं नाना प्रकार की यांत्रिक ऊर्जा को ग्रहण कर उसे
विद्युत ऊर्जा में बदलने की क्षमता रखती हैं। इन
ज्ञानेंद्रियों का सम्बन्ध संवेदी स्नायु तंत्र के द्वारा
मस्तिष्क या मेरुदंड से होता है। हमारे आस–पास घटित हो रही
घटनाओं को ये ज्ञानेंद्रियाँ विद्युत तरंगों में बदल कर
संवेदी स्नायु तंत्रों द्वारा मस्तिष्क या मेरुदंड तक
पहुँचा देती हैं। यहाँ की स्नायु कोशिकाओं में ये विद्युत
तरंगें नाना प्रकार की रासायनिक प्रक्रियाओं को जन्म देती
हैं, जिनके द्वारा
इनका विश्लेषण होता है और प्राप्त सूचनाओं का संग्रह किया
जाता है।
भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर इन संगृहीत सूचनाओं का पुनः
स्मरण किया जा सकता है। हमारी स्मृति में संगृहीत ये
सूचनाएँ भविष्य में होने वाली इसी प्रकार की या फिर इससे
मिलती जुलती अथवा संबंधित घटना–क्रम को पहचानने, उसका
विश्लेषण करने और उसे याद रखने में काफी सहायक होती हैं।
दिन–प्रतिदिन के अनुभवों को हमारे मस्तिष्क के स्मृति–पटल
पर एक समान स्थान नहीं मिलता है। किसी भी नए अनुभव अथवा
प्रति दिन काम आने वाली सूचनाओं को अल्पकालिक स्मृति पटल
पर स्थान मिलता है। यदि हमारी उत्तरजीविता से इनका गहरा
सम्बन्ध न हो अथवा इनका उपयोग कुछ समय के लिए न किया जाय तो
ये विस्मृत हो जाती हैं और काफी प्रयास के बाद ही उन्हें
फिर से स्मृति पटल पर वापस लाया जा सकता है। जैसे कि कोई
टेलीफोन नंबर–जब हम उस नंबर को बार–बार डायल करते हैं तो
कुछ दिनों में हमारी ऊँगलियाँ स्वतः उन नंबरों पर पड़ने
लगती हैं। लेकिन यदि कुछ दिनो के लिए हम वही नंबर न डायल
करें तो भविष्य में स्वतः वह नंबर नहीं याद आए गा।
जिन घटनाओं या अनुभवों का हमारी उत्तरजीविता से गहरा
सम्बन्ध
हो अथवा जिनकी बार–बार आवृति हो, वे हमारे दीर्घकालिक
स्मृति पटल पर अंकित हो जाती हैं। ऐसे अनुभव हमें सदैव याद
रहते हैं और उनका स्मरण कभी भी किया जा सकता है। यदि हम
ऐसे अनुभवों का उपयोग लंबे समय तक न भी करें तो थोड़ा बहुत
जोर देने पर हम उसे पुनः
याद कर सकते हैं या फिर थोड़ा–बहुत
संकेत मिलने पर ही शेष बातें याद आ जाती हैं।
तत्कालिक या अल्पकालिक स्मृति स्नायुतंत्र से संबंधित
रोगों के कारण भी गायब हो सकती है, परंतु दीर्घकालिक
स्मृति मस्तिष्क के गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त होने के बाद
भी आसानी से गायब नहीं होती। इन दोनों ही प्रकार की स्मृति
के लिए विकसित मस्तिष्क हो ही यह कोई आवश्यक नहीं हैं।
वास्तव में, अपने अनुभवों को कुछ हद तक याद रखने की क्षमता
वाले तंत्र का विकास एककोशीय जीव के प्रादुर्भाव के साथ
ही हो गया था, जिसकी पराकाष्ठा हमारे अति विकसित
स्नायु–तंत्र के रूप में परिलक्षित होती है।
निम्न श्रेणी के जीव भी अपने अनुभवों को काफी कुछ याद रखते
हैं एवं भविष्य में उनका उपयोग भी करते हैं। प्लैनेरिया
नामक चपटे कृमि पर किए गए प्रयोग यह सिद्ध करते है। इस
कृमि में बारंबार प्रजनन की अद्भुत क्षमता होती है। यदि
इसके शरीर को कई टुकड़ों में बाँट दिया जाय तो कुछ ही समय
में प्रत्येक टुकड़ा शरीर के बाकी हिस्सों को फिर से विकसित
कर लेता है और एक नए कृमि का रूप ले लेता है।
इस कृमि का स्नायु–तंत्र अल्प विकसित होता है। फिर भी
प्रकाश या विद्युत की निश्चित तीव्रता के संपर्क में कुछ
समय अंतराल पर बार–बार ला कर इन्हें ऐसे उद्दीपनों से दूर
रहने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। ऐसे प्रशिक्षण की
स्मृति इस कृमि के पूरे शरीर में रहती है। यदि ऐसे
प्रशिक्षित कृमि को दो भागों में काट दिया जाय तो इन दोनों
भागों से नव–उत्पादित कृमि स्वतः ऐसे उद्दीपनों से दूर
रहते हैं, उन्हें पुनः प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती
अर्थात् पुराने अनुभवों
की स्मृति दोनों ही
नव–उत्पादित कृमियों में स्वतः स्थानांतरित हो जाती है।
इस प्रकार के स्मृति स्थानांतरण के मूल में राइबोज़
न्युक्लिक एसिड नामक रसायन की संभावना व्यक्त की गई है।
प्रशिक्षण के समय इस कृमि की कोशिकाओं के राइबोज़ न्युक्लिक
एसिड्स की संरचना में स्थायी परिवर्तन परिलक्षित किया गया
है। कटे हुए टुकड़ों से नए कृमि के निर्माण के समय जब नई
कोशिकाएँ बनती हैं तो परिवर्तित राइबोज़ न्युक्लिक एसिड्स
की प्रतियाँ उनमें स्वतः स्थानांतरित हो जाती है । इस
प्रकार नई कोशिकाएँ तथा उनसे निर्मित अंग उस उद्दीपन विशेष
के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया स्वतः दिखाते हैं । यद्यपि कटे
हुए टुकड़ों में इन राइबोज़ न्युक्लिक एसिड्स को नष्ट करने
वाले एंज़ाइम ‘राइबोन्युक्लिएज़’ का समावेश करने पर यह देखा
गया है कि नव–उत्पादित कृमि पूर्व प्रशिक्षित कृमि के समान
प्रतिक्रिया नहीं दिखाते।
नए राइबोज न्युक्लिक एसिड्स का अर्थ है नए प्रकार के
प्रोटीन के अणुओं का संश्लेषण। जैसा कि हम बाद में
देखेंगे, इन प्रोटीन्स का स्मृति भंडारण की प्रक्रिया से
कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य है।
स्मृति की प्रक्रिया के तह में जाने की कोशिश में समुद्री
घोंघे ‘एप्लीसिया’ पर अभ्यसन (habituation) तथा
संवेदीकरण (sensitisation) से संबंधित प्रयोग भी
उल्लेखनीय हैं।
एप्लीसिया का स्नायु तंत्र भी बहुत ही साधारण होता है। जब
इसके शरीर के किसी भाग को किसी उद्दीपन विशेष से प्रभावित
किया जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया इसके गिल्स के संकुचन के
रूप में परिलक्षित होती है। यदि ये उद्दीपन लगातार बिना
समय अंतराल के दिए जाएँ तो गिल्स लगातार संकुचित अवस्था
में ही बने रहेंगें। संकुचन की यह अवस्था उद्दीपन को हटा
लेने के बाद भी कुछ मिनटों से ले कर घंटों तक बनी रह सकती
है। ऐसा स्नायु कोशिकाओं में बारंबर उद्दीपन के प्रभाव से
लगातार बढ़ते गए कैल्शियम ऑयन्स की मात्रा तथा इसके कारण इन
कोशिकाओं में श्रावित
न्युरोट्रांसमिटर्स के भारी
जमाव के कारण होता है।
यदि ये उद्दीपन अति तीव्र एवं अहितकारी न हों तथा एक
निश्चित अंतराल पर बार–बार दुहराए जाएँ तो इनके गिल्स में
संकुचन की तीव्रता धीरे–धीरे कम होने लगती है और अंततः
पूरी तरह से गायब हो जाती है। इसे सामन्य बोल–चाल की भाषा
में आदत पड़ना भी कह सकते हैं। इस प्रकार की आदत कई सप्ताह
तक बनी रहती है और यह एक प्रकार की अल्पकालिक स्मृति का
प्रारूप है। इस प्रक्रिया के दौरान स्नायुतंत्र की
कोशिकाओं में हो रहे रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन से यह
जानकारी मिली कि इस प्रकार के निरंतर उद्दीपन की प्रक्रिया
में प्रत्येक नए उद्दीपन के साथ इन कोशिकाओं के टर्मिनल
नॉब (जिसका सम्बन्ध सिनैप्स द्वारा अगली स्नायु कोशिका से
होता है) में न्युरोट्रांसमिटर के स्राव में क्रमशः कमी
होती जाती है जिसका सम्बन्ध हर बार नए एक्शन पोटेंशियल के
साथ कैल्शियम ऑयन्स के रिसाव में लगातार होने वाली कमी से
है।
संवेदीकरण की प्रक्रिया ठीक इसके विपरीत है, हाँलाकि यह भी
अल्पकालिक स्मृति का ही एक रूप है। जब उपरोक्त प्रकार से
उद्दीपन के प्रति अभ्यस्त एप्लीसिया के सिर के हिस्से में
किसी उसी प्रकार के उद्दीपन के साथ किसी अन्य हानिकारक
उद्दीपन को प्रयुक्त किया जाय तो यह जीव उस उद्दीपन के
प्रति अभ्यस्त होने के स्थान पर उसके प्रति संवेदनशील हो
जाता है। ऐसा कैल्शियम ऑयन्स तथा न्युरोट्रांसमिटर की
मात्रा में कमी की बजाय बढ़ोत्तरी के कारण होता है क्योंकि
उपरोक्त हानिकारक उद्दीपन किसी अन्य स्नायु कोशिका द्वारा
ग्रहण किया जाता है। इस सेंसरी स्नायु कोशिका के टर्मिनल
नॉब का सम्बन्ध भी उसी मोटर स्नायु कोशिका के साथ जुड़ा होता
है जिससे पहले प्रकार के उद्दीपन के प्रति
संवेदनशील
सेंसरी स्नायु कोशिका से होता है अर्थात् जिनका सम्बन्ध
गिल्स के संकुचन से होता है।
हानिकारक उद्दीपन से प्रभावित होने वाले सेंसृरी स्नायु
कोशिका के टर्मिनल नॉब से ‘सिरोटोनिन’ नामक एक अन्य
न्युरोट्रांसमिटर का स्राव होता है। यह रसायन मोटर स्नायु
कोशिकाओं में उपस्थित एक अन्य साइक्लिक रसायन ‘एडिनोसिन
मोनो फॉस्फेट ‘ के उत्पादन को प्रभावित करने वाले एन्ज़ाइम
‘एडिनलेट साइक्लेज ‘ को सक्रिय करता है, फलस्वरूप
‘एडिनोसिन मोनो फॉस्फेट’ के उत्पादन में वृद्धि होती है।
यह रसायन मोटर स्नायु कोशिकाओं के सिरे में उपस्थित एक
अन्य एन्जाइम ‘प्रोटीन काइनेज’ को सक्रिय कर देता है। अब
यह सक्रिय ‘प्रोटीन काइनेज’ विशिष्ट फॉस्फेट चैनेल्स में
उपस्थित एक प्रकार के प्रोटीन के अणुओं को निष्क्रिय कर
देता है। इनके निष्क्रिय होते ही ‘एक्शन पोटेंशियल’ की
काल–अवधि बढ़ जाती है तथा कैल्शियम ऑयन्स का जमाव बढ़ने लगता
है। बढ़ते हुए कैल्सियम की मात्रा इन मोटर स्नायु कोशिकाओं
से न्युरोट्रांसमिटर के स्राव की वृद्धि में सहायक होते
हैं, फलस्वरूप गिल्स लंबी अवधि तक संकुचित अवस्था में ही
बने रहते हैं।
स्नायु कोशिकाओं में घटने वाली इसी प्रकार की तथा ऐसी ही
दूसरे प्रकार की तमाम रासायनिक प्रतिक्रियाएँ उच्च श्रेणी
के जीवों (जिसमें हम मनुष्य भी शामिल हैं) के स्मृति
भंडारण तथा यथा समय उनके पुनर्स्मरण की जटिल प्रकिया के भी
अभिन्न हिस्से हैं। जैसा कि प्लैनरिया के सम्बन्ध में इंगित
किया गया था, ऐसा प्रतीत होता है कि विशेष प्रकार के
प्रोटीन्स के संश्लेषण का इस प्रक्रिया से गहरा सम्बन्ध है।
वे औषधियाँ जो प्रोटीन संश्लेषण में बाधक होती हैं वे
स्मृति को प्रभावित करती हैं। प्यूरोमाइसिन नामक औषधि
प्रोटीन संश्लेषण के अतिरिक्त अल्प कालिक स्मृति की
प्रक्रिया में भी बाधक है। रासयनिक प्रतिक्रियाओं के
अतिरिक्त स्नायु कोशिकाओं में संरचनात्मक एवं संगठनात्मक
परिवर्तन भी देखे गए हैं। सीखने की प्रक्रिया के दौरान इन
कोशिकाओं के डेंड्रान्स, ऐक्सॉन एवं अंतिम सिरे पर उपस्थित
नॉब्स की संख्या में वृद्धि अथवा उनमें नव निर्माण की
प्रक्रिया देखने में आती है जो दो स्नायु कोशिकाओं के
सम्बन्ध को और मजबूत करती है। किसी भी प्रकार के नव–
निर्माण के लिए प्रोटीन्स की आवश्यकता निश्चय ही होती है।
इस संदर्भ में हम वर्तमान समय मे किए जा रहे अनुसंधानों की
चर्चा थोड़ी देर बाद करेंगे। आइए पहले हम यह समझने का
प्रयास करें कि एकत्रित सूचनाओं के अल्प कालिक अथवा दीर्घ
कालिक भंडारण तथा समयानुसार स्मृति पटल पर फिर से ला कर
उसकी याद ताजा कराने
की प्रक्रिया में हमारे मस्तिष्क के किन–किन हिस्सों का और
कितना हाथ है।
ऐसा प्रतीत होता है कि मस्तिष्क में मुख्य रूप से
माइलिनेटेड स्नायु कोशिकाओं से निर्मित ‘सेरिब्रल
कॉर्टेक्स अपने विकास के साथ ही स्मृति की प्रक्रिया से
जुड़ गया है। उदाहरण के लिए यदि हमारे ‘टेम्पोरल लोब’ के
किसी विशेष भाग को उद्दीप्त किया जाए तो किसी बहुत पहले
घटी ऐसी घटना का विस्तृत स्मरण संभव है जिसे लाख चाह कर भी
हम स्वतः स्मरण नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से ऐसे प्रयोग
‘टेम्पोरल लोब’ से संबंधित मिरगी की बीमारी या फिर ऐसी ही
किसी अन्य
स्नायुतंत्र की बीमारी से ग्रसित व्यक्ति के साथ ही कर पाए
हैं।
विभिन्न अध्ययनों से प्राप्त जानकारी के आधार पर ऐसा लगता
है कि टेम्पोरल लोब में स्मृति के भंडारण की संभावना न के
बराबर है। वरंच यह संभव है कि इसके विभिन्न बिंदु उन
चाभियों के समान हों जो मस्तिष्क के अन्य भागों तथा ‘ब्रेन
स्टेम’ में जमा स्मृतियों को खोलने एवं उसे फिर से स्मृति
पटल पर लाने का कार्य करते हैं। सामान्यतया ये चाभियाँ तभी
काम करती हैं जब हमारे सामने उससे मिलती–जुलती या संबंधित
घटना का संदर्भ उपस्थित हो। विकास की क्रमबद्धता के आधार
पर सेरिब्रल कॉर्टेक्स के सबसे पुराने भाग ‘लिम्बिक
कॉटेक्स’ से जुड़े ‘हिप्पोकैम्पस’ को अल्पकालिक स्मृति से
संबद्ध होने का दावा किया जाता है। यदि इस भाग में विद्युत
के झटके दिए जाएँ तो व्यक्ति की ताजा स्मृतियाँ गायब हो
जाती है। यदि यह भाग धीरे–धीरे नष्ट होने लगे तो ताजा
स्मृतियों पर ही इसका प्रभाव पड़ता है, पुरानी स्मृतियाँ
ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
वैसे तो स्नायुतंत्र तथा इसकी कार्य–प्रणाली संबंधी
बहुतेरे रहस्य पर्दे के पीछे हैं फिर भी लंबे समय से किए
जा रहे अनुसंधानों एवं उनसे समय–समय पर मिलने वाले
साक्ष्यों के कारण इन रहस्यों से धीरे–धीरे पर्दा उठता ही
जा रहा है। ये अनुसंधान स्मृति के संदर्भ में भी नए–नए
तथ्यों को सामने ला रहे हैं जो इस प्रक्रिया को और अच्छी
तरह समझने में सहायक होने के साथ–साथ तथा पहले से प्राप्त
जानकारियों की पुष्टि कर रहे हैं। आइए, अब हम यहाँ ऐसे ही
कुछ नए अनुसंधानों से
प्राप्त जानकारियों की चर्चा करें।
जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है– स्मृति तथा
हिप्पोकैम्पस के बीच सम्बन्ध का अनुमान हमें बहुत पहले, लगभग
१९५० के दशक से ही है। न्यूयॉर्क तथा हावर्ड युनिवर्सिटी
से संबद्ध न्युरोसाइंटिस्ट्स ने जून २००३ में सीधे एवं ठोस
प्रमाणों के साथ पहली बार यह सिद्ध करने में सफलता पाई कि
हिप्पोकैम्पस किस प्रकार ‘एसोशिएटिव मेमोरी’ ( जो
‘डिक्लेरेटिव मेमोरी का एक हिस्सा है) से जुड़े दृश्यों,
ध्वनियों तथा गंध संबधी जानकारी को ग्रहण कर तथ्यों एवं
सामने हो रही घटनाओं से कुछ नया सीखने तथा उसे दीर्घकालिक
स्मृति के रूप में सँजो कर रखने में भी मुख्य भूमिका
निभाते हैं।
इन लोगों ने बंदरों में ‘एसोशिएटिव लर्निंग’ से जुड़े
कार्य–कालापों के दौरान इनके मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों
को एलेक्ट्रोड से जोड़ कर प्रत्येक स्नायु कोशिका में होने
वाली गतिविधियों का अध्ययन किया। इन बंदरों को प्रति दिन
जटिल दृश्यों के साथ अध्यारोपित (superimposed)
लक्ष्य दिखाए गए। ये बंदर बार–बार परीक्षण एवं त्रुटियाँ
करते हुए अंततः लक्ष्य तक पहुँचने का गुर सीख लेते थे। इस
सीखने की प्रकिया के दौरान इनके हिप्पोकैम्पस की स्नायु
कोशिकाओं में नाटकीय परिवर्तन देखे गए। ऐसी कोशिकाओं को
‘परिवर्तनशील कोशिका’(changing cells) का नाम दिया गया। इन
कोशिकाओं में परिलक्षित परिवर्तनों के ग्राफ सीखने की
प्रक्रिया के दौरान अंकित किए गए ग्राफ ‘बिहेवेरियल
लर्निंग कर्व' के काफी कुछ समानांतर थे। इससे यह संकेत
मिलता है कि इस प्रकार के ‘एसोशिएटिव लर्निंग’ की
प्रक्रिया तथा इसे संबंधित सूचनाओं के भंडारण में
हिप्पोकैम्पस की ‘परिवर्तनशील कोशिकाओं’ का विशेष योगदान
होता है। चूँकि ऐसी बहुतेरी कोशिकाओं में परिवर्तन की
प्रकिया इस प्रकार के सीखने की प्रक्रिया के बहुत देर बाद
भी चलती रहती है., फलतः यह निष्कर्ष निकाला गया कि ये
कोशिकाएँ इन सूचनाओं के दीर्घकालिक भंडारण में भी
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती
हैं।
जीवन में एक बार प्राप्त अनुभव को दीर्घकालिक स्मृति में
परिवर्तित किए जाने के रहस्य से पर्दा उठाने की दिशा में
वेक फॉरेस्ट युनिवर्सिटी बैप्टिस्ट मेडिकल सेंटर के अशोक
हेगड़े तथा उनके साथियों द्वारा चूहों पर किए जा रहे प्रयोग
स्नायु कोशिकाओं में श्रावित रसायन ‘नॉरएपीनेफ्रिन’ तथा
‘प्रोटीन काइनेज–सी’ की भूमिका पर प्रकाश डालते हैं।
(स्रोतः सूचना
प्रसारण १३ नवंबर २००३ वेक फॉरेस्ट युनिवर्सिटी बैप्टिस्ट
मेडिकल कॉलेज)
चुहिया सहवास के समय चूहे के शरीर से उत्पन्न गंध को याद
रखती है। गर्भावस्था में किसी दूसरे चूहे के संपर्क में
आने पर पहले चूहे के गर्भ को त्याग देती है परंतु
गर्भावस्था में एक माह के अंतराल के बाद भी यदि यह पहले
चूहे के संसर्ग में ही आती है तो ऐसा नहीं होता। संभवतः गंध
एवं सहवास से संबंधित सूचनाओं के संप्रेषण का समय एक ही
होने के कारण ऐसा होता है। गंध संबंधी सूचना ‘ग्लूटेमेट'
तथा सहवास संबंधी सूचना ‘नारएपीनेफ्र्रिन’ जैसे
न्युरोट्रांसमिटर्स के स्राव से जुड़ी है। नारएपीनेफ्रिन
का सम्बन्ध संवेदना तथा इससे जुड़े अनुभवों से होता है। इन
लोगों ने इस प्रकार के सूचना संप्रेषण के समय स्रावित
नॉरएपीनेफिन की मात्रा संबंधी आंकड़े एकत्र किए जो इंगित
करते हैं कि नॉरएपीनेफ्रिन स्मृति निर्माण में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाता है। इनके अनुसंधान से इस बात के भी संकेत
मिलते है कि ऐसी सूचनाओं के भंडारण तथा दीर्घकालिक स्मृति
के परिवर्तन में ‘प्रोटीन काइनेज–सी’ जैसे एन्ज़ाइम्स की
भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
जैसा कि पहले से ही मालूम है दीर्घकालिक स्मृति के लिए
स्नायु कोशिकाओं की संरचना में परिवर्तन होता है तथा इनके
नवनिर्मित अंग इनके बीच के सम्बन्ध को और प्रगाढ़ करते हैं।
इस नव निर्माण की प्रक्रिया प्रोटीन संश्लेषण के बिना संभव
नही हैं। ‘प्रोटीन काइनेज–सी’ इन स्नायुकोशिकाओं के
विशिष्ट जीन्स को सक्रिय कर विशेष प्रकार के प्रोटीन्स के
संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये प्रोटीन्स
स्नायु कोशिकाओं के नए अंगों के निर्माण में प्रयुक्त होते
हैं और संभवतः दीर्घकालिक स्मृति का भंडारण भी इन्हीं
प्रोटीन के अणुओं में होता है।
९ फरवरी २००४ के मैसेच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट के प्रेस रिलीज
के अनुसार नोबल पुरस्कार से सम्मानित सुसुमू टानेगावा के
अनुसंधान दल ने दीर्घ कालिक स्मृति के निर्माण तथा स्नायु
कोशिकाओं के नए अंगों के निर्माण तथा उनके बीच प्रगाढ़ता
में प्रयुक्त होने वाले प्रोटीन्स की तेज रफ्तार से
संबंधित एक विशेष आणविक पथ का पता लगाने में सफलता पाई है।
सामान्य एवं म्युटेंट चूहों पर किए गए प्रयोगों से यह बात
सामने आई है कि स्नायु कोशिकाओं के मध्य ‘सिनैप्टिक
क्लेफ्ट’ के उद्दीपन के फलस्वरूप इन कोशिकाओं में
‘मीटोजेन–ऐक्टिवेटेट प्रोटीन काइनेज’ नामक एन्ज़ाइम सक्रिय
हो जाता है। यह सक्रिय एन्ज़ाइम प्रोटीन संश्लेषण की
प्रक्रिया से जुड़े विभिन्न कारकों को सक्रिय कर इनके
निर्माण का पथ प्रशस्त करता है।
कितनी बड़ी विडंबना है कि मस्तिष्क, जिसके बल पर हम सारी
दुनिया के बारे में जानकारी रखने का दावा करते हैं, अभी तक
हम उसी के बारे ढेर सारी जानकारियों से वंचित है। फिलहाल,
अभी तक जानकारियों के भंडारण तथा यथासमय उन्हें फिर से
स्मृति पटल पर लाने सम्बन्धी दिए जाने वाले सुझाव मात्र
अनुमान एवं अनुभव पर ही आधारित होते हैं। नए–नए विस्तृत
अनुसंधानों के आधार पर इससे जुड़ी सारी जटिलताओं को समझने के बाद
भविष्य में संभवतः सही एवं सटीक सुझाव दे पाना संभव होगा।
फिर भी अच्छी स्मृति के लिए ध्यानपूर्वक देखने, सुनने,
पूर्व अनुभवों से जोड़ने तथा बार–बार दुहराने जैसे गुर काफी
सहायक होते हैं। |